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- अमीर पंचायतों के ग़रीब...
यह कोई दो-ढाई दशक पहले की ही बात है जब लोग ग्राम पंचायत चुनावों में उम्मीदवारों को बैलगाड़ियों, लढ़िया, साइकिलों पर या पैदल ही अपना चुनाव प्रचार करते देखते थे। अब लेकिन युग बदल गया है। आज प्रत्याशियों से लदी लक्ज़री एसयूवी गाड़ियों का लम्बा क़ाफ़िला हॉर्न दनदनाता जब आगरा ज़िले के शमसाबाद ब्लॉक के दिगनेर गाँव में दाखिल होता है तो खेतों की मेड़ों पर खड़ा ग़रीब किसान बलवान सिंह उन्हें अपनी दहशतज़दा आँखों से देखता है और देख कर सोचने लग जाता है कि क्या यही वे लोग हैं जिनके ज़िम्मे आने वाले दिनों में उसकी और उसके गाँव की क़िस्मत सँवरने की बात कही जा रही है? वह ख़ुद से सवाल पूछता है कि क्या लाखों की गाड़ियों में लदे इन लोगों के हाथों में गाँव का लोकतंत्र सुरक्षित बचेगा है या उनका अपना धनतंत्र?
पूर्व विधायक और किसान कांग्रेस के पश्चिमी उप्र के प्रमुख डॉ०अनिल चौधरी भरे गले से स्वीकार करते हैं कि आज जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव लोकसभा सदस्य के चुनाव से कहीं ज़्यादा मंहगा हो चुका है। यह आमफ़हम राय है कि ब्लॉक प्रमुखी के चुनाव में दमदार केंडिडेट 3 से 5 करोड़ लुटाता है और ग्राम प्रधानी के चुनाव में 50-60 लाख तक। सचमुच लोकतंत्र अपने ग्रास रुट स्तर पर ही जब इतना मंहगा बन चुका है तो वह लोक के तंत्र का निर्माण क्या खाक़ कर सकेगा? सचमुच इन अमीर पंचायतों में ग़रीबों के सपनों का क्या होगा ? बलवान सिंह रह-रह कर ख़ुद से यही सवाल करता है।
स्वतंत्रता पूर्व जब महात्मा गांधी ने आज़ाद भारत की ग्राम सभाओं के हाथों स्वराज सौंपने की कल्पना की थी तब उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों का यह स्वराज किसी दिन मंहगी और लक्ज़री कारों की सवारी करता घूमेंगा जो निर्धन किसानों की मांगों को धुंए में उड़ाती आगे बढ़ जाएँगी। 1992 में जब संसद ने पंचायतों को और अधिक अधिकार देने के लिए संविधान में 73 वां संशोधन किया था तब क्या संसद को पता था कि आने वाले दिनों में वह ऐसे पिरैमिड का निर्माण कर रही है जिसके नीचे से ऊपर तक के प्रत्येक तल की चाभी धनकुबेरों के हाथ में ही रहा करेगी?
उप्र के मौजूदा पंचायत चुनावों में अनुमान है कि लाखों लोग अपने नामांकन दाखिल करेंगे। पंचायत के पदों के लिए ऐसे आकर्षणके पीछे उनके विकास बजट हैं जो लोकतंत्र में सबसे नया चुंबकीय आकर्षण का सबब बन चुके हैं। आज स्थिति यह है कि ग्राम पंचायतें अपने वित्तीय कोष की धवल चांदनी में लकदका रही हैं। शायद यह सुनकर आश्चर्य होगा कि एक-एक पंचायत विकास का बजट कुछ मामलों में सांसद निधि कोष (पाँच करोड़ रुपए प्रति वर्ष ) से भी ज़्यादा होता है। बड़ी जनसँख्या (25,000 तक) वाली ग्राम पंचायतों का वार्षिक बजट 25 करोड़ रुपये से भी अधिक है और ऐसी पंचायतें यूपी में ही हैं। ग्राम पंचायतों पर होने वाले कुल खर्च का अंदाज़ा लगाने के लिए यदि 6000 ग्राम पंचायतों का एक ब्लॉक बनाकर समझने की कोशिश की जाय तो तो केंद्र सरकार और राज्य सरकारें विभिन्न मदों में इस ब्लॉक पर 9862 करोड़ खर्च करती है जबकि देश में कुल पंचायतों की संख्या ढाई लाख से अधिक है। इस धन राशि में केंद्र और राज्य के वित्तीय निगमों की धनराशि तो शामिल है ही, राज्य सरकारों के अनुदान (परफोर्मिंग ग्रांट) अलग से भी है। 'मनरेगा' और 'स्वच्छता मिशन' पर दिया जाने वाला खर्च इससे इतर है।
2019 -20 के केंद्रीय बजट में पांच वर्षों के लिए 2 लाख करोड़ से कुछ अधिक की राशि का आवंटन किया गया। इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों का विकास व्यय 488 रुपये प्रति व्यक्ति मापा जा सकता है। केंद्र और उप्र सरकार ने मार्च 2020 में 73 ग्राम पंचायतों के लिए 699.75 करोड़ रुपए आबंटित किए। सरकार ने इसके बाद अप्रैल 2020 में सभी ग्राम पंचायतों को 50-50 लाख की पहली किस्त दे भी दी। अगली किस्त मांगने से पहले ही 25 दिसंबर को इन पंचायतों का कार्यकाल समाप्त हो गया। देश के 26 राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायत सिस्टम कारगर है। केवल नागालैंड, मेघालय और मिजोरम में पंचायती संस्थाओं का अस्तित्व नहीं है। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने लोक सभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में बताया कि राज्यों को दिया जाने वाला अनुदान जनसँख्या और क्षेत्रफल के अनुपात स्वरुप 90 :10 होता है।
शताब्दियों से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लड़ा गया लम्बा संघर्ष आगे चलकर गाँधी के स्वराज्य में समाहित हो गया। इस स्वराज की गाँधी की परिकल्पना आम भारतीय के हाथों सत्ता प्राप्ति की थी। आम भारतीय का अर्थ उनके लिए उस बहुसंख्य शहरी-ग्रामीण से था जिनका बड़ा अंश निर्धन था। गाँधी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल दूसरे बहुत से कांग्रेसी और क्रन्तिकारी अंग्रेज़ों के पलायन के बाद ऐसे लोकतंत्र के सपने देखते थे जो बहुसंख्य भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर सके। आज़ादी प्राप्ति के बाद लेकिन जो संसद और विधानमंडल गठित हुए, उनमें या तो शरू से धनिक हावी थे या वे धीरे-धीरे उनके चुनाव इतने खर्चीले होते गए कि गरीब भारतीय उसमें भाग लेने की हैसियत वाला नहीं रहा। पंचायतों के सशक्त बनाये जाने की प्रक्रिया के दौरान भी यही सोचा जा रहा था कि ये बहुसंख्य ग्रामीणों का लोकतंत्र साबित होंगी, लेकिन 3 दशकों में उनका जो स्वरुप बना, गरीब उनकी परिधि के पार धकेल दिया गया था। ये ऐसी अमीर पंचायतें हैं जिनमे ग़रीबों के सपनों की कोई जगह नहीं।
(कल के अंक में जारी )