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पोस्टर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने योगी सरकार को घेरा,तो सरकार ने ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट का दिया उदाहरण
लखनऊ। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ राजधानी लखनऊ में हुई हिंसा के दौरान सार्वजानिक व निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वाले आरोपियों से वसूली का बैनर चौराहों पर लगाने के मामले में बुधवार को योगी सरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है जिसको लेकर सर्वोच्च अदालत में आज सुनवाई शुरु हो चुकी है। राज्य सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पक्ष रख रहे है। सरकार ने याचिका में होर्डिंग लगाए जाने की कार्यवाही को विधि सम्मत ठहराया है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यूपी सरकार की यह कार्रवाई कानूनन सही नहीं है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 95 लोग शुरुआती तौर पर पहचाने गए. उनकी तस्वीरें होर्डिंग पर लगाई गईं. इनमें से 57 पर आरोप के सबूत भी हैं, लेकिन आरोपियों ने अब निजता के अधिकार का हवाला देते हुए हाई कोर्ट में होर्डिंग को चुनौती दी, लेकिन पुत्तास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1994 के फैसले में भी निजता के अधिकार के कई पहलू बताए हैं.
आम आदमी के पोस्टर लगाने के पीछे क्या तर्क है?: SC
इस पर जस्टिस ललित ने कहा कि अगर दंगा-फसाद या लोक संपत्ति नष्ट करने में किसी खास संगठन के लोग सामने दिखते हैं तो कार्रवाई अलग मुद्दा है, लेकिन किसी आम आदमी की तस्वीर लगाने के पीछे क्या तर्क है? सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि हमने पहले चेतावनी और सूचना देने के बाद ये होर्डिंग लगाए. प्रेस मीडिया में भी बताया.
सरकार पर कानून के तहत चलने की पाबंदी: SC
इस पर जस्टिस अनिरुद्ध बोस ने कहा कि जनता और सरकार में यही फर्क है. जनता कई बार कानून तोड़ते हुए भी कुछ कर बैठती है, लेकिन सरकार पर कानून के मुताबिक ही चलने और काम करने की पाबंदी है. वहीं, जस्टिस ललित ने कहा कि फिलहाल तो कोई कानून आपको सपोर्ट नहीं कर रहा. अगर कोई कानून है तो बताइए.
ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट का दिया गया उदाहरण
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट ने भी व्यवस्था दी है कि अवर कोई मुद्दा या कार्रवाई जनता से सीधा जुड़े या पब्लिक रिकॉर्ड में आ जाए तो निजता का कोई मतलब नहीं रहता. होर्डिंग हटा लेना बड़ी बात नहीं है, लेकिन बिषय बड़ा है. कोई भी व्यक्ति निजी जीवन में कुछ भी कर सकता है लेकिन सार्वजनिक रूप से इसकी मंजूरी नहीं दी जा सकती है.
गत दिनों आरोपियों के पोस्टर सार्वजनिक रूप से लगाए जाने पर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब तलब किया था। इसके तहत कोर्ट ने लखनऊ के पुलिस आयुक्त व जिलाधिकारी को रविवार को अवकाश के दिन तलब कर लिया था।
कोर्ट ने अधिकारियों से यह स्पष्ट करने को कहा था कि उन्होंने किस नियम के तहत आरोपियों के पोस्टर लगाए। हालांकि सरकार की तरफ से सारी कार्यवाही को नियम संगत बताया गया था पर उच्च न्यायालय ने सरकार को होर्डिंग हटाकर 16 मार्च तक रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। पर सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले को चुनौती देने का फैसला किया और सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई।
पोस्टर लगाना लोगों की निजता में दखल : हाई कोर्ट
स्वत: संज्ञान में लिए गए इस मामले में सोमवार को मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर व जस्टिस रमेश सिन्हा की पीठ ने इन आरोपियों के पोस्टर फौरन हटाने के आदेश दिए थे। साथ ही कहा कि समग्र रूप में आरोपियों के पोस्टर लगाना लोगों की निजता में अनावश्यक दखल है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकार 'निजता के अधिकार' का उल्लंघन है।
बता दें कि सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लखनऊ में लगे 57 उपद्रवियों के पोस्टर हटाने के आदेश दिए थे. लेकिन इसके बाद योगी सरकार ने पोस्टर न हटाने का फैसला करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला लिया. पोस्टर मामले हटाने के मामले में 16 मार्च तक यूपी सरकार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के पास रिपोर्ट सौंपनी है. लखनऊ में 19 दिसंबर को 2019 को हिंसा करने वाले 57 उपद्रवियों के पोस्टर चौराहे पर लगे हैं. इस पोस्टर में आरोपियों से 1 करोड़ 55 लाख की वसूली का आदेश भी हुआ है.