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- राम राज्य में राम...
जबकि भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का सारा घ्यान पश्चिम बंगाल, असम व उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में लगा हुआ था अचानक देश कोरोना वायरस के दूसरे प्रकोप का शिकार हो गया। बताते हैं कि यह पिछले साल वाले प्रकोप के वायरस का एक बदला हुआ संस्करण है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पहले वाले से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसमें संक्रमित लोगों की एवं मरने वालों की तादाद पिछले साल से कहीं ज्यादा नजर आ रही है। लोग तो जैसे तैसे निपट रहे हैं लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ने तय किया है कि जनता की जान को जोखिम में डालकर भी वह चुनाव तो स्थगित नहीं करेगी जबकि नरेन्द्र मोदी ने खुद हरिद्वार में कुम्भ स्थगित करने का सुझाव दिया। ऐसा सुझाव उन्होंने चुनाव आयोग को क्यों नहीं दिया?
चुने हुए अस्पतालों को सिर्फ कोविड के मरीजों के लिए ही सुरक्षित रखा गया है। जबकि सरकारी नीति यह है कि लोग घर में अपने को अलग-थलग कर स्वयं को स्वस्थ्य करें, अस्पतालों में भर्ती होने के लिए लोगों को कई दिन इंतजार करना पड़ रहा है। लखनऊ में 70 वर्षीय फोटो देवी अचेतन अवस्था में पांच दिनों तक अस्पताल में जगह मिलने की प्रतीक्षा करती रहीं। किसी तरह आप अस्पताल के अंदर पहुंच भी जांए तो चिकित्सकों पर इतना बोझ है कि आपकी ठीक से देखरेख हो पाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। 42 वर्षीय संध्या देवी 18 अप्रैल शाम को लखनऊ के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती हुईं। जबकि इनको सांस लेने में दिक्कत हो रही थी किसी चिकित्सक ने घंटों तक उन्हें देखा ही नहीं और न ही कोई ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। झल्लाते हुए एक चिकित्सक ने बताया कि वह अपने दो लोगों के कोविड का शिकार होने से परेशान है और एक टीका लगा दिया। 19 अप्रैल को सुबह 3 बजे एक दूसरा टीका लगा और थोड़ी ही देर में संध्या देवी ने प्राण त्याग दिए।
मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ अखबार की सुर्खियों में दावा कर रहे हैं कि अस्पतालों में बेड की संख्या दोगुणी की जाएगी किंतु कोई यह नहीं पूछ रहा कि आप अतिरिक्त चिकित्सक कहां से लाएंगे? अखबार बता रहे हैं कि मुख्य मंत्री ने 10 नए आॅक्सीजन संयंत्र लगाने का बड़ा फैसला लिया है। आॅक्सीजन की जरूरत तो अभी है। क्या आॅक्सीजन संयंत्र रातों-रात लग जाएंगे? लखनऊ के सांसद और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हिन्दुस्तान एरोनाॅटिक्स लिमिटेड, जिससे रफेल हवाई जहाज बनाने का ठेका छीनकर अनिल अंबानी की कम्पनी को दिया गया था, से अस्पताल बनाने को कह रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि 16 महीने हो गए हैं कोरोना महामारी से वैश्विक स्तर पर जूझते हुए, तो इस तरह के फैसले आनन-फानन में लेने की जरूरत क्यों पड़ रही है? जिन देशों और भारत के प्रदेशों ने तैयारी की है वहां स्थिति तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर है. उदाहरण के लिए केरल सरकार ने, जितनी ऑक्सीजन कोविड और अन्य रोगियों को रोज चाहिए, उसकी दोगुणी से अधिक की व्यवस्था कर रखी है। केरल सरकार, अन्य प्रदेशों को ऑक्सीजन भिजवा रही है जैसे कि तमिल नाडू, कर्णाटक और गोवा। केरल सरकार ने न केवल चिकित्सकीय उपयोग के लिए ऑक्सीजन की मात्रा में पिछले साल की तुलना में सराहनीय बढ़ोतरी की है बल्कि मार्च 2020 में ही, उसने सारी ऑक्सीजन चिकित्सकीय उपयोग के लिए सुरक्षित कर दी थी (उससे पहले 60 प्रतिशत ऑक्सीजन औद्योगिक उपयोग के लिए थी)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सही सवाल पूछा है कि स्टील के उद्योग को क्यों ऑक्सीजन दी जा रही है जब इंसान बिना ऑक्सीजन के मर रहे हैं? मध्य प्रदेश के दमोह के जिला अस्पताल में आॅक्सीजन सिलेण्डर लूटे गए तो हरियाणा व दिल्ली की सरकारें आॅक्सीजन की आपूर्ति को लेकर आपस में उलझ रही हैं। क्या इस अराजकता के लिए वे लोग जिम्मेदार नहीं जो पिछले वर्ष थाली बजवा रहे थे और चिकित्साकर्मियों पर हेलिकाॅप्टर से फूलों की वर्षा करवा रहे थे?
अस्पताल में जो बेड अन्य रोगियों के लिए थे, वे बेड एवं सुविधाएँ (वेंटीलेटर, ऑक्सीजन, वार्ड, प्राइवेट वार्ड, स्वास्थ्यकर्मी, आदि) सब कोविड के लिये सुरक्षित कर दिए गए हैं। क्या इसी तरह अस्पतालों में बेड की संख्या दोगुणी की जाएगी? विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोविड नियंत्रण के प्रमुख डॉ. माइकल रेयन ने टिप्पणी की है कि अधिक स्वास्थ्यकर्मियों को तैनात करने का यह मतलब नहीं है कि जो स्वास्थ्यकर्मी कार्यरत हैं वही अधिक घंटे काम करें, छुट्टी आदि न लें। कोविड के लिए अस्पताल में अधिक बेड, ऑक्सीजन, वेंटीलेटर, आदि बढ़ाने का यह मतलब नहीं है कि जो वर्तमान में उपलब्ध है उससे अन्य रोगियों को वंचित कर कोविड के लिए सुरक्षित कर दिया जाए। जरूरी बात यह भी है कि कोविड महामारी के पहले से ही, जनता ऐसी बिमारियों को झेल रही है जो अनेक सालों से महामारी का ही रूप लिए हुए हैं - जैसे कि, दुनिया की सबसे घातक बीमारी हृदय रोग, पक्षाघात, दुनिया की सबसे घातक संक्रामक बीमारी क्षय रोग, मधुमेह, तमाम प्रकार के कैंसर, आदि. कोविड के दौरान यह बिमारियाँ होनी बंद नहीं हो गयी हैं पर स्वास्थ्य सेवा अत्यंत जर्जर हो गयी है। जवाबदेही तो इस बात की भी तय होनी चाहिए कि भारत में अधिकांश मृत्यु असामयिक क्यों होती हैं? ऐसे रोगों से असामयिक क्यों लोग मर जाते हैं जिनसे अक्सर बचाव मुमकिन है? इस समय 15 वर्षीय चांदनी जिसके दोनों गुर्दे जवाब दे चुके हैं और जिसका इलाज लखनऊ के संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान व बलरामपुर अस्पताल में चल रहा था, घर बैठने को विवश है क्योंकि दोनों अस्पताल कोविड के लिए सुरक्षित कर दिए गए हैं और उसका चिकित्सक भी कोविड से ग्रसित है।
मनीष केसरवानी की बहन मेयो अस्पताल में भर्ती हैं और 21 अप्रैल को उन्हें रेमडिसिविर टीका चाहिए था तो पता लगा कि सिर्फ काले बाजार में रु. 25,000 से ऊपर का मिलेगा जबकि अखबारों में योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं कि जो दवाओं की कालाबाजारी करेगा उसके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में मुकदमा दर्ज होगा। वैश्विक व्यापार संधि में ऐसे प्रावधान हैं कि सरकारें, जनहित में जनता की जरूरत को देखते हुए, पेटेंट वाली दवा पर अनिवार्य अनुज्ञप्ति (कम्पलसरी लाइसेंस) जारी करें जिससे कि स्थानीय (जेनेरिक) उत्पादन हो सके और जीवन रक्षा हो सके। इसीलिए अनेक चिकित्सकीय विशेषज्ञ मांग कर रहे हैं कि जो दवा वैज्ञानिक रूप से कोविड रोग में कुछ लोगों पर असरकारी दिख रही है उसके अनिवार्य लाइसेंस जारी हांे। सरकार अनिवार्य लाइसेंस किसी भी दवा जिसका पेटेंट 3 साल पुराना हो चुका हो पर दे सकती है। इस रेमडिसिविर दवा को पेटेंट मिले 11 साल हो रहे हैं तब इस पर सरकार ने अब तक अनिवार्य-लाइसेंस क्यों नहीं जारी किया? अनिवार्य लाइसेंस न सिर्फ जन स्वास्थ्य के लिए बल्कि सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी जरूरी कदम है जो सरकारों को पेटेंट वाली दवाओं को स्थानीय स्तर पर उत्पादन करने की, इस्तेमाल करने की, आयात-निर्यात करने की, कम कीमतों पर विक्रय करने की छूट देता है। जीवनरक्षक दवाओं पर अनिवार्य लाइसेंस न दे कर, सरकार ने सिर्फ दवा-उद्योग के ही हित का संरक्षण किया है और जनता को मजबूर किया है कि वह अत्यंत महंगी दवाएं और सेवाओं के लिए विवश हो।
कोविड से बचाव के लिए जो कोविशील्ड टीका अडार पूनावाला की कम्पनी बना कर सरकार को रु. 150 में बेच रही थी अब अचानक उसे 1 मई से यही टीका सरकार को रु. 400 और निजी अस्पतालों को रु. 600 में बेचने की छूट दे दी गई है। आखिर क्यों? क्या सही नरेन्द्र मोदी का 'आपदा में अवसर' का नमूना है। एक तरफ किसान को सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गांरटी नहीं दे सकती और दूसरी तरफ दवा उद्योग को संकट के समय मुनाफा कमाने की खुली छूट दी जा रही है।
अस्पताल से ले कर मृत्यु बाद शमशान तक महामारी के दौर में भी लूट मची है। एक बहादुर इंसान वर्षा वर्मा ने एक वैन का इंतजाम किया और मृत के परेशान परिवारजनों, जिनसे शमशान तक जाने के लिए हजारों रूपये मांगे जा रहे हैं, के लिए निःशुल्क सेवा शुरू की है। दवा, ऑक्सीजन, बेड, एम्बुलेंस, शव वाहन आदि सब पर कालाबाजारी या लूट मची है किंतु लखनऊ में सरकार ने अपनी असफलता छुपाने को लिए शमशान घाट को टीन से ढक दिया है ताकि बाहर से दिखाई न पड़े कि कितनी लाशें जल रही हैं।
राजनेता ऊपर से आदेश व घोषणाएं करते जा रहे हैं बगैर उनकी व्यवहारिकता की परवाह किए। उन्हें शायद जमीनी हकीकत का अंदाजा ही नहीं। जब वे बीमार पड़ते हैं तो उनके लिए तो सरकारी खर्च पर अति महत्वपूर्ण व्यक्ति की सारी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं।
24 मार्च 2020 को प्रधान मंत्री गरीब कल्याण पैकेज से स्वास्थ्यकर्मी के लिए बीमा घोषित किया गया था जो 24 मार्च 2021 को समाप्त हो गया। इसको 20 अप्रैल 2021 से पुनः लागू किया गया है पर 25 मार्च 2021 से 19 अप्रैल 2021 तक क्या स्वास्थ्यकर्मी इसका लाभ उठा पाएंगे यह स्पष्ट नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार इतनी व्यस्त है कि उसे अपने स्वास्थ्यकर्मियों के लिए अबाधित बीमा की गांरटी देने की भी सुध नहीं रही?
नरेन्द्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत में आम व्यक्ति को अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। या यों कहें कि भाजपा की राम राज्य की कल्पना में आम इंसान अब राम भरोसे है।