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राजनीतिक चौपाल: वह 7 सितंबर 2013 था, ये 5 सितंबर 2021 है जनाब
माजिद अली खां
देश में मोदी युग शुरू होने से पहले 2013 में 7 सितंबर मुजफ्फरनगर में एक महापंचायत आयोजित की गई थी जिसके बाद मुजफ्फरनगर दंगों में बुरी तरह झुलस गया था और इन दंगों ने नरेंद्र मोदी को देश की केंद्रीय सत्ता सौंपने की बुनियाद रख दी थी और मुजफ्फरनगर या उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत में दंगों से भारी ध्रुवीकरण हुआ और भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत से केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ हो गई. इसके साथ ही देश में मोदी युग की शुरुआत हो गई. अबकि बार फिर मुजफ्फरनगर में एक महापंचायत का आयोजन किया गया और मज़े की बात है कि 2013 वाली महापंचायत के आयोजक भी लगभग वही थे जो 5 सितंबर 2021 वाली महापंचायत के आयोजक रहे हैं. वह पंचायत हिंदुत्व की रक्षा के लिए आयोजित की गई थी जिसमें अल्लाहु अकबर कहने वालों को सबक सिखाने की हुंकार भरकर मोदी जी और भाजपा को सत्ता में लाने की प्रतिज्ञा की गई थी लेकिन 2021 वाली महापंचायत में हर हर महादेव, अल्लाहू अकबर का नारा लगा कर मोदी और योगी सरकार को उखाड़ फेंकने तथा देश व किसानों को बचाने अहद लिया गया. अब राजनीतिक विश्लेषकों को ये बात दबी जबान में कहनी पड़ रही है कि मुजफ्फरनगर की ये पंचायत भाजपा के लिए सिरदर्द अवश्य बनेगी.
अब सबसे बड़ा सवाल है कि जैसे 2013 में महापंचायत में इकट्ठा भीड़ भाजपा के पक्ष में वोट में तबदील हो गई थी क्या उसी प्रकार ये 2021 वाली भीड़ भाजपा के विरोध में वोट में बदल जाएगी. ये बहुत अहम सवाल है. भाजपा द्वारा इस महापंचायत में इकट्ठा भीड़ के बारे में दुष्प्रचार वाले बयान आने शुरू हो गये हैं तो दूसरी ओर खुद किसान नेता और विपक्षी पार्टियां इस महापंचायत के ज़रिए भाजपा को सत्ता से दूर करने के दावे कर रही हैं. भाजपा द्वारा महापंचायत में शामिल लोगों के लिए खालिस्तानी और अन्य दलों के कार्यकर्ता के शब्द प्रयोग हो रहे हैं जबकि महापंचायत में लोगों की संख्या को कम करके बताने का प्रचार भी भाजपा की तरफ से किया जा रहा है. तटस्थ सूत्रों की मानें तो महापंचायत में शामिल लोगों की संख्या 5-7 लाख से कम नही थी. इन सभी लोगों को मौजूदा केंद्र सरकार से तमाम शिकायतें तो थीं ही, लेकिन निशाने पर मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा अंबानी और अडानी थे.
ज़्यादातर किसान मुज़फ़्फ़रनगर के आस-पास के ज़िलों और यूपी के अन्य हिस्सों के थे, लेकिन हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश के अलावा तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों से भी किसान आए थे.
महापंचायत सुबह नौ बजे से ही शुरू हो चुकी थी और मंच से किसान नेताओं के भाषण होने लगे थे. भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत क़रीब बारह बजे ग़ाज़ीपुर बॉर्डर से सीधे मंच पर पहुंचे और फिर पंचायत ख़त्म होने के बाद ग़ाज़ीपुर बॉर्डर वापस लौट गए. हालांकि उनका घर वहां से महज़ कुछ मीटर की ही दूरी पर था. राकेश टिकैत का कहना है कि "घर तो छोड़िए मुज़फ़्फ़रनगर की धरती पर भी तब तक पांव नहीं रखेंगे, जब तक कि काले क़ानून वापस नहीं हो जाते."
किसान नेताओं द्वारा आयोजित इस सफलतम महापंचायत को यदि आधार बना कर अग्रिम विधानसभा चुनाव की बात करें तो खासतौर से उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड में भाजपा को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. किसान नेताओं ने उत्तर प्रदेश के हर मंडल में ऐसी ही किसान महापंचायत का आयोजन करने की घोषणा कर ये बताने की कोशिश की है कि सरकार किसान आंदोलन को हलके में बिलकुल ना ले. यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए किसान मोर्चा एक ख़ास रणनीति बनाने की तैयारी में भी है और इसके लिए मोर्चे के नेताओं की 9 और 10 सितंबर को लखनऊ में एक बैठक भी बुलाई गई है.
किसान नेताओं ने दो टूक शब्दों में साफ कर दिया है कि जब तक तीनों नये कृषि कानून वापस नहीं होंगे तब तक सरकार के खिलाफ आंदोलन में कोई कमी नहीं आएगी. महापंचायत में जिस प्रकार भाजपा नेताओं पर सांप्रदायिकता फैलाने के आरोप लगाए गए हैं उससे तो लगता है कि किसान नेता खुलकर भाजपा विरोध पर उतर आए हैं. एक तरफ सरकार का विरोध बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर सरकार इस मामले में बिलकुल जिद पर अड़ी हुई है. राजनीतिक माहिरीन का कहना है कि यदि सरकार ने कानून वापस लिए तो सरकार का इकबाल और भाजपा का वज़न दोनों खत्म हो जाएंगे. किसान नेता मोदी और अमितशाह को पहले ही पूंजीपतियों का खिलौना करार दे चुके हैं. किसान नेताओं का मानना है कि सरकार बनाई ही गई है पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए इसलिए सरकार देश को बेच देगी लेकिन किसी सूरत कानून वापस नही लेगी. अब देखना है कि किसान आंदोलन किस प्रकार अपने विरोध को वोटों में तबदील कर भाजपा को सत्ता से दूर करने में सफल हो पाता है.