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- पंकज भाई! सैल्यूट है...
मेरी स्टडी की खिड़की के बाहर शहर कितना जमगम-सा है. किसी को अंदाजा भी नहीं हो सकता कि रोशनी में डूबी इन बस्तियों में कई परिवारों को अंधेरे ने घेर रखा होगा. दूर-दराज से लोग आते हैं, अपनी छोटी-सी दुनिया बनाते हैं, कहने के लिए ही सही लेकिन अपनों की एक फेहरिस्त रखते हैं, छोटे-बड़े सपनों के पीछे भागते रहते हैं और अचानक किसी आफत की बेड़ियों में जकड़ लिए जाते हैं. इन दिनों कोरोना की बेड़ियां नहीं बल्कि अजगर-पाश लोगों को जकड़ रहा है. आज सारे रिकार्ड टूट गए हैं. संक्रमण के 2 लाख 60 हजार नए मामले आए हैं और लगभग डेढ हजार लोगों ने दम तोड़ा है. जब से कोरोना का हमला चल रहा है, देश में एक दिन में ना तो इतने लोग चपेट में आए ना इतनों की मौत हुई.
आज संक्रमण के जो दो लाख 60 हजार मामले आए हैं, उनमें एक मामला आदित्य उपाध्याय का भी रहा. दो साल पहले अपनी बेटी और बेटे के साथ पति-पत्नी घर आए थे. आदित्य की पत्नी सुधा, मेरी पुरानी सहकर्मी रही हैं. लगभग 10 साल पहले साथ काम किया था और तब से गाहे-बगाहे हालचाल पूछने के लिए कॉल कर लिया करतीं हैं. कभी-कभार किसी आयोजन वगैरह में मुलाकात भी हो जाती. उनके जरिए ही उनके पति को जाना और दोनों जब सपरिवार घर आए तो फिर जीवन की सारी नाप-जोख पता चल गई.
समय सपनों को ऊंचाई देता जाता है और हैसियत को बौना करने लगता है, तब इंसान सबसे ज्यादा तना और तकलीफ में होता है. मध्यम वर्ग का पारंपरिक परिवेश यही है. आगे जो करना है, वह चुनौती है और पीछे ऐसा कुछ है नहीं जिससे थोड़ी भी मदद ली जा सके. हम ही गुजरा हैं, हम ही आज और हम ही कल हैं. जरुरतों की कतरब्योंत और रोज-रोज की जोड़-गांठ से ही मध्यम वर्ग की गृहस्थी चलती है. सुधा और आदित्य भी इसी का हिस्सा हैं. बेटा क्रिकेट में अच्छा है और बेटी पढने में. दोनों अच्छा कर जाएं इसी खातिर दोनों पति-पत्नी दिन-रात खुद को खपाए रखते हैं.
आज सुधा का दिन में फोन आया. मैं एडिटोरियल मीटिंग में था. एक बार ख्याल आया कि पहले मीटिंग कर लेता हूं, फिर कॉल बैक कर लूंगा. लेकिन हाथ बढ गया, फोन उठ गया- हां सुधा बोलो. "सर, इनकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है, हालत अच्छी नहीं है, सांस उखड़ रही है, बहुत बेचैनी है और बढती जा रही है." सुधा ने बिना दुआ-सलाम पति की जो हालत थी बताई. मैने कहा- ऑक्सीमीटर है? नहीं सर- जवाब आया. स्टीम दी हो? हां सर, दो बार. अभी एक काम करो, ऑक्सीमीटर किसी दवा दुकान से ले आओ और देखो ऑक्सीजन लेवल कितना है- मैंने कहा. "जी सर, देखती हं, लेकिन इनको एडमिट कराना होगा, बहुत प्रॉबलम में हैं." मेरी मीटिंग के साथी सुन रहे थे. मीटिंग रुकी थी और बातों से सबको अंदाजा हो गया था कि कोई सीरियस केस है. सुधा ने फोन रखा और ऑक्सीमीटर के लिए चली गई. मैने मीटिंग शुरु कर दी. 20-25 मिनट बाद जब प्राइम टाइम का एडिटोरियल प्लान मैं मेल कर रहा था, सुधा का फोन आया. सर, इनका ऑक्सीजन लेवल तो 58 है. क्या? मैं जैसे कुर्सी में ही उछल पड़ा. तुम इनको लेकर जल्दी भागो. पास में कोविड का कोई अस्पताल है? कुछ भी करो सुधा तुरंत एडमिट करवाओ- मेरी आवाज ऊंची हो गई थी. "सर मुझे कुछ नहीं पता. पास में यशोदा है लेकिन वो ऐसे तो लेंगे ही नहीं, आप ही कुछ करिए सर." वो बदहवाश-सी थी. वैशाली के आसपास कोविड का कोई अस्पताल जिसमें तुरंत एडमिशन हो जाए, जरुरी था. मैंने अपने गाजियाबाद के रिपोर्टर जतिन को फोन लगाया. सारी बात बताई और कहा कि कोई जुगाड़ करो कि कम से कम तुरंत इलाज शुरु हो जाए. मेरे दिमाग में ऑक्सीजन लेवल खतरे की घंटी की तरह बज रहा था. सुधा औऱ उसके दोनों बच्चों के चेहरे नजर आ रहे थे. जतिन को बोलने के बाद मैने कौशांबी में यशोदा अस्पताल के मालिक पीएन अरोड़ा को फोन किया. मरीज की हालत बताई और गुजारिश की कि अरोड़ा जी एडमिट कर लीजिए,जिंदगी का सवाल है. वे बेचारे देर तक अपना रोना रोते रहे. "कैपेसिटी से ज्यादा लोग हैं सर, कहीं कोई जगह नहीं है. मामला कोविड पेशेंट का है इसलिए ऐसा भी नहीं है कि कहीं भी इलाज करवा दें, आपके लिए कभी मना करता हूं? हालत तो आप देख ही रहे हैं. बहुत बुरा चल रहा है." मैने कहा- अरोड़ जी, मुझे सब पता है लेकिन अभी ये एडमिशन जरुरी है. उन्होंने कहा- सर जैसे ही कोई बेड खाली होता है, मैं आपको फोन करता हूं. इसबीच जतिन का फोन आया. सर, एक नवीन अस्पताल है, उसमें एक बेड का इंतजाम किया है लेकिन वो बस जल्दी आ जाएं. मैने कहा- तुम फोन रखो, मैं उसको अभी बोलता हूं. पता चला एंबुलेंस के लिए सुधा ने फोन तो डीएम को भी कर दिया लेकिन घंटे भर बाद भी एंबुलेंस आई नहीं है, हां उसके ड्राइवर का दो-तीन बार फोन आ गया कि मैं एंबुलेंस का ड्राइवर बोल रहा हूं, आपके यहां आ रहा हूं. सुधा! घंटे भर में एंबुलेंस नहीं आई, तुम कार चला नहीं सकती तो वो फिर वो जाएंगे कैसे? मैंने लगभग डांटनेवाले अंदाज मे कहा. सर, मैं कुछ करती हूं, नहीं होता है तो ऑटो देखती हूं. लेकिन उनको लेकर कहां जाऊंगी? उसके दिमांग में अचानक ये सवाल कौंधा. तुम निकलो तो, मैं देखता हूं. किसी ना किसी अस्पताल में एडमिट करुंगा, तुम बस निकलो. मेरी बात खत्म हुई कि जतिन का फोन आया- सर उनको बोलिए जल्दी आएं. बेड की बहुत मारामारी है. तुम रोक कर रखो मैं उसको भेज रहा हूं- कहते हुए मैने फोन रखा. इस दौरान मैंने यूपी के मुख्यमंत्री और डीएम को टैग करते हुए ट्वीट किया कि क्या एंबुलेंस एक घंटे में भी नहीं पहुंचती? ऐसे में किसी की जान चली जाए तो?
इमरजेंसी है, मरीज को तुरंत ले जाना है- इसतरह का आग्रह जिला कलेक्टर से करने औऱ उनके आश्वासन के बावजूद डेढ घंटे बाद एंबुलेंस आई. नतीजा ये हुआ कि नवीन अस्पताल में जो बेड था उसपर एक क्रिटिकल पेशेंट को डाल दिया गया. अब कोई रास्ता बचा नहीं था. मैंने पीएन अरोड़ा को फिर फोन किया. वही बातें दोहराई और उन्होंने भी अपना पुराना राग ही अलापा. बात फिर नहीं बनी. इस दौरान मैंने नोएडा विधायक और मित्र पंकज सिंह, गाजियाबाद के सांसद जेनरल वीके सिंह औऱ पूर्व केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा को टैग कर इस केस में मदद करने के लिए ट्वीट किया. इसके कुछ देर बाद पीएन अरोड़ा का फोन आया- "सर आपके पेशेंट का नाम क्या है?" आदित्य उपाध्याय- मैने कहा. "उनको भेज दीजिए यशोदा वहां मेरे मैनेजर हैं, मैने उनको बोल दिया है." मैने फोन रखते ही सुधा को क़ॉल लगाया. तुम यशोदा पहुंचो फटाफट और मैनेजर से मिलो. पहुंचते ही एडमिशन हो गया औऱ इलाज शुरु हो गया. मरीज की हालत गंभीर थी, बिना आईसीयू के बचाना मुश्किल होगा- शायद यह बात पीएन अरोड़ा को मरीज देख रहे डॉक्टरों ने बताई होगी. उनका मेरे पास फोन आया. मैने छूटते ही कहा- अरोड़ा जी, बहुत शुक्रिया आपका. उस आदमी के बच्चे बेचारे अनाथ हो जाते, अगर उसको कुछ हो जाता तो. अरोड़ा जी ने मेरी बात पूरा होने के बाद कहा- सर वो तो ठीक है, लेकिन मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूं. "आपका पेशेंट क्रिटिकल है. हिज सरवाइवल इज क्वैशचनेबल एंड आई डॉन्ट हैव एनी बेड इन आईसीयू." मैंने कहा – अरोड़ा जी, आपके अस्पताल में एक आदमी इसलिए मर जाएगा क्योंकि आपके पास आईसीयू में बेंड नहीं है. बोले – "सर क्या करुं? मैंने आपको पहले बतना जरुरी समझा. इलाज चल रहा है, दवाएं सारी दी जा रही हैं, बट हिज बॉडी इज नॉट प्रॉपरली रेस्पॉन्डिंग." मेरी उनकी बात चलती रही. मैने कहा आप इलाज कीजिए लेकिन कोई ऐसा इंताजम कीजिए कि उनको जो ट्रीटमेंट चाहिए वो मिल जाए. मैंने फिर ट्वीट किया- जान चली जाएगी इस इंसान की अगर आईसीयू में एडमिशन नहीं मिला तो. छोटे-छोटे बच्चे हैं. प्लीज हेल्प. मैने सुधा का नंबर भी डाल दिया. टैग वही लोग थे- पंकज भाई, वीके सिंह और महेश शर्मा. थोड़ी देर में पंकज सिंह की टीम से भूपेंद्र का फोन आया. "भैया, विधायक जी अभी पीएन अरोड़ा से बात किए हैं और डीएम से भी किए है. बोले- केस सीरियस है और आईसीयू चाहिए. आप परेशान मत होइए, कुछ कर रहे हैं. वैसे पेशेंट की हालत टीक नहीं है." मैंने कहा- भूपेंद्र! मैं जानता हूं ठीक नहीं है, लेकिन क्या दिल्ली-एनसीआर में एक बड़े अस्पताल में कोई इसलिए मर जाएगा क्योंकि आईसीयू में बेड नहीं है? हम उसकी खातिर लड़ेंगे नहीं? "नहीं भैया, आप ठीक कह रहे हैं, सब हो रहा है, हो जाएगा. बस थोड़ा टाइम और"- भूपेद्र ने कहते हुए फोन रखा.
दफ्तर में काम का दबाव अलग होता है, हर घंटे की लड़ाई चलती है, कई जगहों पर नजर रखनी पड़ती है औऱ आप उससे फारिग नहीं हो सकते. इसलिए वो भी चल रहा था. थोड़ी देर में पंकज भाई का जवाबी ट्वीट था- यशवंत जी, आदित्य उपाध्याय को उपचार मिल रहा है, मै अस्पताल के संपर्क में हूं, उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना करता हूं. मैंने उनको शुक्रिया कहा. लेकिन आईसीयू जरुरी था और मेरा दबाव इसी बात के लिए था. मैने सुधा को फोन लगाया- क्या हो रहा है? सर, आईसीयू में ले जा रहे हैं. कह रहे हैं अरैंजमेंट हो गया है. हम्म्म्म्म. चलो कोई दिक्कत होगी तो बताना. मैने फोन रख दिया. तभी पंकज सिंह या पंकज भाई कह लीजिए ( मैं उनको ऐसे ही पुकारता हूं ) का एक और जवाबी ट्वीट आया – यशवंत जी, आदित्य जी को आईसीयू में बेड मिल गया है, उनका इलाज जारी है, उनके शीघ्र स्वस्थ होने की शुभकामना. मेरे पास शब्द नहीं थे. आंखें गीली थीं. खिड़की के बाहर खाली आसमान और खामोश सड़क थी. दिल्ली में वीकेंड कर्फ्यू है. पता नहीं यह दौर कबतक चलेगा, इंसान रोज मरने के डर में जीता है और नहीं मालूम ऐसा कबतक चलेगा - मन में यह सोचते हुए दो घूंट पानी पिया. कुर्सी से उठकर, बांयी तरफ से टेबल का चक्कर लगाते हुए खिड़की के पास पहुंचा. उससे लग कर खड़ा हो गया. एक बच्चा भारी सा थैला लिए, देह को सड़क की तरफ दबाए चला जा रहा था. उसके भी मां-पिता होंगे, उनके भी सपने होंगे कि मेरी औलाद कुछ बने, लेकिन हालात..... पता नहीं मां-बाप होंगे भी या नही! अब भी आसमान और सड़क का हुलिया थोड़ी देर पहले वाला ही था. सोचा नीचे जाकर टलहते हुए एक कप चाय पी लूं, फिर काम करुंगा.
रात के 9.30 बज रहे थे, मैं अब घर निकलने की सोच रहा था. फोन बजा. सुधा का था. "सर, अब ठीक हैं, मैं अंदर गई थी, बात की उन्होंने, मैं घर जा रही हूं, बच्चे अकेले हैं, वह भी यही बोले कि चली जाओं, मैं ठीक हूं." मैने पूछा – आदित्य तुमको ठीक लगे? "हां, सर ठीक है." मैने कहा फिर घर चली जाओ. कोई रिश्ता नहीं है इन दोनों से लेकिन कुछ तो है जो उसके अंदर मुझसे एक उम्मीद जोड़ता है. उसी उम्मीद से सवा करोड़ के इस शहर में उसने मुझे कॉल किया था. कुछ वैसी ही उम्मीद से आज मैने तीन नेताओं को ट्वीट में टेग किया. लेकिन खड़ा सिर्फ पंकज सिंह हुए. उनका क्षेत्र भी नहीं है- गाजियाबाद. वे नोएडा के विधायक हैं, चूंकि मैने मदद मांगी थी, इसलिए वे क्षेत्र के दायरे से बाहर आकर अपनी कोशिश में लग गए. उनकी टीम संपर्क में आ गई. वे खुद जवाब देते रहे. अगर आदित्य उपाध्याय की जान बच गई है तो सिर्फ पंकज सिंह के चलते. हां, अरोड़ा जी के कारण भी. मेरे लिहाज में ही सही लेकिन उन्होंने मरीज को अपने यहां बुला तो लिया और बाद में आईसीयू में दाखिल भी कर दिया. मगर जिन दो नेताओं की तरफ से कोई हरकत तक नहीं हुई, वे भी तो यहीं के हैं. जन प्रतिनिधि कहलाने का शौक तो उनको भी चर्राता है! लेकिन जब आम आदमी जिंदगी की जंग लड़ रहा होता है तो ये क्या करते हैं? इसका जवाब भी तो इनको देना चाहिए. पार्टियों की पालकी पर बैठकर विधायकी या सांसदी का सेहरा बांधने भर से कोई जन प्रतिनिधि नहीं होता. उसके लिए जनता का दर्द समझना जरुरी है. खैर, पंकज भाई, आपको धन्यवाद नहीं कहूंगा क्योंकि यह शब्द बहुत छोटा है, उस इंसानी फर्ज के आगे जो आज आपने निभाया. सैल्यूट!!!
साभार पत्रकार यशवंत राणा की फेसबुक से