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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मथुरा के केस में सुनाया बड़ा फैसला
प्रयागराज
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लम्बे समय तक किसी संपत्ति का उपयोग करने की छूट या संपत्ति के स्वामी की मौन स्वीकृति से कब्जा होने मात्र से उस व्यक्ति का संपत्ति पर अधिकार सृजित नहीं होता है। कोर्ट ने जमींदार द्वारा अपने पुत्र के नाम किए गए जमीन के पट्टे को लेकर पैदा हुए कानूनी विवाद पर सुनवाई करते हुए ये बातें कहीं।
कोर्ट ने कहा कि यदि जमींदार ने संयुक्त परिवार की संपत्ति का एक हिस्सा अपने अवयस्क पुत्र को उसके अभिभावक के माध्यम से पंजीकृत पट्टा दिया है तो यह माना जाएगा की संपत्ति पर उस पुत्र का अकेले अधिकार है। यह उसकी निजी संपत्ति मानी जाएगी। ऐसी संपत्ति को संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं माना जा सकता। यह आदेश जस्टिस जेजे मुनीर ने वाराणसी के द्वारिका की निगरानी अर्जी स्वीकार करते हुए दिया है।
मंगलवार को सुनाया फैसला
कोर्ट ने मामले की सुनवाई के बाद अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था। जिसे लॉकडाउन के दौरान मंगलवार 31 मार्च को सुनाया गया। कोर्ट ने उपनिदेशक चकबंदी के 30 मार्च 1987 के आदेश को अवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया है। उपनिदेशक ने याची के पक्ष में दिए गए चकबंदी अधिकारी और सहायक बंदोबस्त अधिकारी के आदेश को रद्द कर विपक्षी (याची का भाई मथुरा) के पक्ष में निर्णय दिया था।
मामले के अनुसार, वाराणसी तहसील के परगना कोलसला अंतर्गत जाटी गांव निवासी जमीदार हरिनंदन के दो पत्नियां थी, दुलारा और बेचनी। दुलारा से उनको दो पुत्र द्वारका और मथुरा थे। 24 अप्रैल 1923 को हरिनंदन ने अपनी कृषि भूमि का खाता संख्या 287 अपने बड़े पुत्र द्वारिका के नाम पट्टा कर दिया। उस समय नाबलिग होने के कारण द्वारका का नाम अपनी मां दुलारा के साथ राजस्व रेकॉर्ड में दर्ज हो गया और वह 1974 तक उसी के नाम पर दर्ज रहा।
जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू होने के बाद 1974 में द्वारिका के छोटे भाई मथुरा ने खुद को इस भूमि का साझीदार बताते हुए अपने हिस्से की मांग को लेकर चकबंदी अधिकारी के समक्ष वाद दायर किया। चकबंदी अधिकारी ने उसका दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उपरोक्त भूमि अकेले द्वारका के नाम पट्टा की गई है और लंबे समय से उसका नाम राजस्व रेकॉर्ड में दर्ज है, इसलिए यह उसकी व्यक्तिगत संपत्ति मानी जाएगी, न कि संयुक्त परिवार की संपत्ति।
अधिकारी ने भी खारिज किया दावा
मथुरा ने चकबंदी अधिकारी के आदेश को सहायक बंदोबस्त अधिकारी के समक्ष चुनौती दी। सहायक बंदोबस्त अधिकारी ने भी उसका दावा खारिज कर दिया। इसके बाद इस फैसले के खिलाफ उपनिदेशक चकबंदी के समक्ष निगरानी दाखिल की गई। उपनिदेशक ने उपरोक्त दोनों अधिकारियों के आदेश को पलटते हुए कहा की संपत्ति पर मथुरा का भी अधिकार है क्योंकि वह द्वारिका के साथ संपत्ति के उपभोग में शामिल रहा है।
द्वारका ने उपनिदेशक चकबंदी के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद यह तय किया कि मथुरा संपत्ति के उपभोग में शामिल अवश्य रहा रहा है, लेकिन जमीन का पट्टा अकेले द्वारका के नाम से किया गया था और वह उस पर 1923 से काबिज है। इस दौरान मथुरा ने कभी भी अपना दावा पेश नहीं किया। जमीन के पट्टे के समय मथुरा का जन्म भी नहीं हुआ था इसलिए यह जमीन द्वारिका की निजी संपत्ति मानी जाएगी। इसे संयुक्त परिवार की संपत्ति नहीं माना जा सकता है।