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UP Politics | राजनीति के अनछुए पहलू : यूपी के एक ऐसे नेता की कहानी जो बतौर PM संसद नहीं पहुंच सके...Watch Video
उत्तर प्रदेश में चुनावी (Assembly Elections 2022) माहौल बना हुआ है और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष दोनों ही एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में पहले चरण का मतदान भी हो चुका है. चुनाव में किस पक्ष को जीत मिलेगी अभी इसमें वक्त है. देश की राजनीति के लिहाज से बेहद अहम स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश में ढेरों ऐसी बड़ी और चर्चित घटनाएं हुईं जिसने इतिहास ही रच दिया. आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि यह देश का अकेला ऐसा प्रदेश है जहां पर एक प्रधानमंत्री बतौर पीएम संसद नहीं जा सके तो एक मुख्यमंत्री को अपना पद इसलिए गंवाना पड़ गया क्योंकि तय वक्त से पहले वह विधानसभा के सदस्य नहीं बन सके थे.
शुरुआत पहले, प्रधानमंत्री पद से करते हैं. देश की आजादी के बाद 70 का दशक राजनीतिक तौर पर बेहद उथलपुथल से भरा हुआ था और इस दौर ने तो आपातकाल जैसे बुरे दिन भी देखे हैं. कई विवादों में घिरीं और आलोचकों के निशाने पर रहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अप्रत्याशित रूप से 25 जून 1975 को देशभर में आपातकाल का ऐलान कर दिया. राजनीतिक आलोचकों को जेल में डाला गया और 21 महीने तक यह कायम रहा 21 मार्च 1977 को यह काला अध्याय खत्म हुआ. चौधरी चरण सिंह, मोरार जी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नाडिस समेत ढेरों नेताओं में शुमार थे जिन्हें गिरफ्तार कर जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया था. जेल में बंद विरोधी पक्ष लामबंद हो गया.
मोरार जी देसाई के बाद PM बने चरण सिंह
आपातकाल के खत्म होने के बाद 1977 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली और देश में गैर-कांग्रेसी दलों ने मिलकर पहली बार सरकार बनाई. मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और वे प्रधानमंत्री बने. चरण सिंह इसी सरकार में उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बने.
लेकिन कई विपक्षी दलों के सहयोग से बनी जनता पार्टी सरकार में कलह बढ़ती चली गई और मोरार जी की सरकार गिर गई. सरकार पतन के बाद कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह (28 जुलाई 1979) प्रधानमंत्री बने. चरण सिंह को बहुमत साबित करने के लिए 20 अगस्त तक का वक्त दिया गया था लेकिन इंदिरा ने एक दिन पहले ही 19 अगस्त को अपना समर्थन वापस ले लिया जिससे उनकी सरकार गिर गई. संसद का बगैर एक दिन सामना किए चरण सिंह को पद छोड़ना पड़ा.
चरण सिंह ने लोकसभा का सामना किए बिना ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया. एक तरह से 23 दिन तक ही पीएम रह सके और शेष दिन केयरटेकर पीएम के रूप में रहे. तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने 22 अगस्त, 1979 को लोकसभा भंग करने की घोषणा कर दी. लोकसभा का मध्यावधि चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी 14 जनवरी, 1980 को फिर से प्रधानमंत्री बन गईं.
त्रिभुवन नारायण सिंह बतौर मुख्यमंत्री जो उपचुनाव हार गए
अब बात उस मुख्यमंत्री की, जो बदले सत्ता समीकरण की वजह से उत्तर प्रदेश के शीर्ष सीट पर पहुंच गए और अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए उन्हें विधानसभा के किसी भी सदन का सदस्य बनना अनिवार्य था और इसके लिए उपचुनाव लड़ने का फैसला लिया. 70 के दशक में भी भारतीय राजनीति में बेहद उतार-चढ़ाव दिखा और इंदिरा गांधी को अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर 12 नवंबर 1969 को कांग्रेस से निकाल दिया गया. इंदिरा ने अलग होकर अलग पार्टी बनाई जिसे नाम दिया कांग्रेस (आर) यानी कांग्रेस रिक्विजिशनिस्ट. तो वहीं उनको हटाने वाले असंतुष्ट नेताओं के सिंडिकेट के प्रभुत्व वाली कांग्रेस का नाम पड़ा कांग्रेस (ओ) कांग्रेस यानी ऑर्गनाइजेशन (संगठन).
कांग्रेस (ओ) पार्टी के नेताओं में से एक थे त्रिभुवन नारायण सिंह. वह 18 अक्टूबर 1970 को जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो वह किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे और उन्हें अपना पद बचाए रखने के लिए अगले 6 महीने के अंदर विधायक बनना अनिवार्य था.
त्रिभुवन को महंत अवैद्यनाथ का मिला समर्थन
फिर त्रिभुवन नारायण सिंह ने गोरखपुर की तब की मानीराम विधानसभा सीट से उपचुनाव लड़ने का फैसला लिया. यह सीट इसलिए रिक्त हो गई थी क्योंकि महंत अवैद्यनाथ सांसद बन गए थे और उन्होंने विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी थी. त्रिभुवन को महंत अवैद्यनाथ का समर्थन हासिल था. त्रिभुवन दूसरे आम चुनाव में चंदौली लोकसभा सीट से मशहूर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को हरा चुके थे. ऐसे में उनकी खास काफी ज्यादा थी.
इस बीच गोरखनाथ मंदिर और महंत अवैद्यनाथ का समर्थन हासिल होने के बाद त्रिभुवन नारायण सिंह की जीत पक्की मानी जा रही थी तो वहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उपचुनाव में त्रिभुवन के खिलाफ चुनाव प्रचार करने का ऐलान कर दिया. इंदिरा ने उन्हें हराने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर डाली. हालांकि इंदिरा के ऐलान के बाद भी त्रिभुवन की स्थिति काफी मजबूत दिख रही थी और उन्हें अपनी जीत का इस कदर आभास था कि वह यहां प्रचार करने ही नहीं आए.
इंदिरा की सभा में अशोभनीय हरकत और माहौल बदल गया
इस बीच चुनाव प्रचार करने आईं इंदिरा गांधी की सभा में कुछ लोगों की ओर से अशोभनीय हरकत कर दी गई जिसका आरोप तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह पर लगा. इंदिरा गांधी ने भी इसे मुद्दा बना दिया और लोगों से भावुक अपील कर डाली. भावुक अपील का लोगों पर खासा असर भी पड़ा और मानीराम में माहौल बदलता चला गया.
त्रिभुवन नारायण सिंह के खिलाफ कांग्रेस ने युवा पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी को उम्मीदवार बनाया. अपने साथ हुए अभद्र व्यवहार को इंदिरा ने लगातार मुद्दा बनाकर अपने उम्मीदवार के पक्ष में माहौल तैयार किया. इस बीच प्रदेश में घटे कुछ अन्य घटनाक्रम ने भी त्रिभुवन के खिलाफ माहौल बनाने का काम किया और जब उपचुनाव का परिणाम घोषित हुआ तो वह चुनाव हार चुके थे. इसी दौरान विधानसभा सत्र चल रहा था और राज्यपाल के भाषण पर बहस के दौरान ही उन्होंने ऐलान किया कि वह मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे रहे हैं. त्रिभुवन को हराने वाले रामकृष्ण कमलापति त्रिपाठी की नई सरकार में मंत्री बनाए गए. त्रिभुवन सिंह महज 167 दिन यानी साढ़े 5 महीने ही मुख्यमंत्री रह सके.