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- यूपी में दिखा कोतवाल...
काशी के लोगों से जब आप कहें कि 'कोतवाल साहब' के यहां जाना है तो लोग तुरंत समझ जाते हैं की बाबा काल भैरव के यहां जाने की बात हो रही है। मगर जब आत्ममुग्धता सर पर और दौलत की पट्टी आंखों पर हो तो कुछ लोग स्वयं के सम्बोधन में भी श्री जी या साहब लगाते हैं।
अभी घर के बगल की कालोनी से गुजर रहा था की सहसा एक तिमंजिला बंगलानुमा मकान के बाहर लगे नेम प्लेट पर निगाहें ठहर गयीं, लाल नीली पट्टी के ऊपर न नाम न मकान नम्बर बस...'कोतवाल साहब का मकान'...यह परिचय देखकर मन उत्सुक हो गया,अरे 'कोतवाल साहब' यह कैसा नेम प्लेट ...बहुत से इंस्पेक्टर(कोतवाल)सब इंस्पेक्टर डिप्टी एसपी मित्र भाई परिचित हैं,किसी के घर पर कोतवाल साहब टाइप का नेम प्लेट नही है।
और है भी तो इंस्पेक्टर या सब इंस्पेक्टर फलाना...इसमें श्री जी या साहब जैसे शब्द ही नही होते।
खैर खड़ा होकर बंगला नुमा घर को देखने लगा तो घर रजवाड़े टाइप का लगा तिमंजिला मकान महंगे खिड़की दरवाजे महंगी वाल पेंटिग लाखों का गेट उसके बाहर तक झांकती ग्रेनाइट खिड़कियों के बाहर फिट एयरकंडीशन, मतलब किसी इंस्पेक्टर का घर न होकर इंस्पेक्टर जनरल के मकान होने का अहसास करा रहा था।
मन तुरन्त खुद को समझाते हुए कहने लगा कि बेटा विनय तेरे परिचित किराये के कमरे में एच आर से काम चलाते हैं, थोड़ा बहुत हिम्मत किये तो दूर ताल तलैया टाइप इलाके में लोन पी एफ लेकर एक बिस्वा जमीन ले लियें उसी में दो कमरा बनवा लें तो खुद को खुशनसीब समझते हैं।
तो स्वाभाविक है जो अच्छे कालोनी में महल टाईप का मकान बनवा ले उसे दम्भ तो होगा ही, और दम्भ हाई होगा तो अपने घर के आस पास वालों से भी वह स्वयं को 'साहब' का ही सम्बोधन पसन्द करेगा।
और साहब यही आपके दम्भी परिचय ने मुझे यहां लिखने को मजबूर कर दिया क्योंकि दम्भ और भरम इंसान को समाज से अलग तो करता ही है,यह भेदभाव का भी वाहक है। भई कोतवाल साहेब डाक्टर को लोग भी साहब कहते हैं पत्रकार को भी लोग साहब कहते हैं ऐसे बहुत से पेशे हैं जिस में लोग सम्बोधन में साहब का इस्तेमाल करते हैं, तो क्या लोग साहब लगाना शुरू कर दें..?
मुझसे हुये एक वार्ता में चंदौली कप्तान संतोष सिंह जी ने कहा था कि पुलिस फोर्स नही सेवा है, यह सच भी है। पुलिस की हनक अपराधी तत्वों पर होनी चाहिये,आम जन से जितने ही सरल सहज रहेंगे उतना ही बेहतर पुलिसिंग आप कर पाएंगे। और हाँ कोतवाल साहेब जाते जाते एक बात और राज्य कर्मचारी आचरण नियमावली का अवलोकन कर लीजिए, किसी ने खोद दिया तो भरभरा जायेंगे।
और मेरा आशय सिर्फ आप और टाइप के लोगों को आईना दिखाना है,वरना पुलिस फ्रेंडली हूँ मगर बेवजह अईठूँ ,किसी निर्दोष का उत्पीड़न करने वाले पुलिसवालों का विरोधी भी हूँ, क्योंकि धूल धूप आँधी पानी बरसात सर्दी गर्मी ठंड, की परवाह किये बिना होली दीवाली दशहरा ईद बिना अपनो के साथ मनाये, सड़े लाश से लेकर मेनहोल के गड्ढों में गिरे बकरा भैंसों को निकलवाना ।
तमाम जिम्मेदारीयों का बोझ भी आप लोगों के कंधों पर होता है,उस पर अपनी बात व्यथा मन दबाए रखना की अनुशासनहीनता में आएगा, सब समझता देखता हूँ। पुलिस विभाग के रीढ़ सिपाही से लेकर इंस्पेक्टर तक ही होते हैं, अगर वही रीढ़ की हड्डी अकड़ने लगे तो टोकूँगा ही।
विनय मौर्या