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- ममता बनर्जी : बेटी...
ममता बनर्जी आज नंदीग्राम से अपना चुनावी नामांकन भरेंगी। प० बंगाल विधान सभा के लिए उनकी यह तीसरी बार की दावेदारी है। वैसे तो वह हर बार राजनीतिक झाड़-झंकाड़ से अपना दामन बचाती बाहर निकल कर आई हैं लेकिन इस बार का चुनाव उनके लिए इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि वह भवानीपुर (कोलकाता) की अपनी चिर-परिचित सरज़मीं को छोड़कर सुदूर नंदीग्राम में अपने राजनितिक शागिर्द को पठखनी देने के इरादे से पहुंची है।
नंदीग्राम ममता के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं। 2006-2007 के सिंगुर-नंदीग्राम भूमि दखल के लिए लिए चले ज़बरदस्त संघर्ष ममता बनर्जी के ही नाम हैं। नंदीग्राम ही आने वाले 4 साल बाद के विधानसभा चुनावों में लेफ्ट को बंगाल से खदेड़ने और ममता दीदी को सत्ता की चाभी सौंपने की आधारभूमि बना था। नंदीग्राम से अपने जीवन का दूसरा महासंग्राम लड़ने का ममता बनर्जी का फैसला न सिर्फ बंगाल में कई सारे सवालों को एक साथ खड़े कर रहा है बल्कि ये नए साल में समूचे देश में भाजपा और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पर भी एक बड़े प्रश्नचिन्ह की तरह उभर कर आया है।
क्या नंदीग्राम का वोटर सचमुच 70 और 30 प्रतिशत के अनुपात के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के भाजपा के आव्हान को धता बताते हुए ममता दीदी की उस अपील पर मोहर लगयेगा जो उन्होंने अपनी उम्मीदवारी की औपचारिक घोषणा के बाद पहली बार क्षेत्र में पहुंचने के बाद बीते मंगलवार को की थी और जिसमें उन्होंने उससे कहा था कि वह 1 अप्रैल को नंदीग्राम में पड़ने वाले वोटों के जरिये भाजपा को 'एप्रिल फूल' बन जाने का तोहफा प्रदान करें?
नंदीग्राम का चुनाव ममता बनर्जी बनाम शुवेंदु अधिकारी नहीं है। यह चुनाव तृणमूल कांग्रेस बनाम भाजपा भी नहीं है। यह चुनाव वस्तुतः कोरोना के कोढ़ से त्रस्त और आर्थिक विपन्नता में डूबते-उतराते देश, मंहगाई के आगोश में डूबी जनता और किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि की सामूहिक धमक बनाम नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद व हिंदुत्व के आह्वान के बीच है।
देखना होगा कि इस महासमर में ऊँट किस करवट बैठता है।
भाजपा नंदीग्राम के हिन्दू बनाम मुस्लिम मतदाता के अनुपात को 70 बनाम 30 के ध्रुवीकरण के आह्वान के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रही है। वस्तुतः नंदीग्राम में कुल वोटर 2लाख 53 हज़ार हैं। इसमें 69,700 (लगभग 27. 55 %) अल्पसंख्यक हैं। शुवेंदु अधिकारी बाकी के 1 लाख 83 हज़ार बहुसंख्यक वोटों के "पर्याप्त" होने की दावेदारी ठोंकते घूम रहे हैं। एक तथ्य जो भाजपा नेतृत्व की निगाहों से भी नहीं छिपा है वह यह कि नंदीग्राम के 30 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता के वोट के साथ 70 प्रतिशत हिन्दू मतदाता की ओर से आने वाला छोटा सा मत प्रतिशत भी ममता को विजयी बनाएगा। स्वयं को ब्राह्मण पुत्री और दुर्गा भक्त साबित करके ममता 70 प्रतिशत के इसी भाजपाई दावे में एक बहुत बड़ी सेंध लगाने को आतुर हैं। इसी की खातिर वह मंच से अनेक श्लोकों का पाठ करते हुए वह भाजपा को ललकारती भी हैं- "तुम मुझे हिंदुत्व का पाठ पढ़ाना चाहते हो? मेरे साथ हिन्दू पत्ते खेलने की कोशिश मत करना। अगर तुम यही करना चाहते हो तो पहले यह घोषित करो कि तुम एक नेक हिन्दू हो। हिंदुत्व का आदर्श लोगों में प्रेम और भाईचारा करना सिखाता है।"
महाशिवरात्रि के दिन अपना चुनावी घोषणापत्र जारी करने का ममता का फैसला भी भाजपा के 70 प्रतिशत वोट बैंक के ध्रराशायी करने की उनकी इसी सुविचारित गणित का हिस्सा है। गुज़रे मंगलवार और बुद्धवार को वह अनेक मंदिरों में माथा टेकने भी गयीं।
वह भाजपा के 'बाहरी उम्मीदवार' के सवाल को भी उठती हैं। वह मतदाता से पूछती हैं कि वाममोर्चा शासन के दौरान नंदीग्राम में हुए दमन के खिलाफ लड़ने जब वह लाठी-गोली खाने का डर छोड़कर कोलकाता से यहाँ संघर्ष करने आयी थीं, तब भी वह बाहरी थीं? 'बाहरी' होने के इसी हमले का जवाब देने के लिए उन्होंने नंदीग्राम में किराये के घर लिया है। यही उनका स्थायी ठिकाना होगा। नंदीग्राम में हैलीपेड बनाया गया है। यहीं से वह रोज़ सुबह निकल कर पूरे बंगाल का दौरा करेंगी और रात को यहीं वापस लौटेंगी।
भाजपा की मुश्किल यह है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने पूरे जंजाल के बावजूद यह नहीं साबित कर पा रही है कि दीदी हिन्दू हैं या सेक्युलर। अपने राजनितिक जीवन में ममता 1989 के अपवाद को छोड़कर कोई चुनाव नहीं हारी हैं। उन्होंने बंगाल की धरती से लेफ्ट को बेदखल किया था। देखना होगा कि क्या इस बार वह भाजपा को देश से बेदखल करने का शुभारम्भ करेंगी जिसका कि वह दावा कर रही हैं? अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार ममता का ब्राह्मण पुत्री बन कर उभारना, पहली बार चंडी दुर्गा के श्लोकों का मंच से पाठ करके स्वयं को खांटी हिन्दू पेश करना और इसके बरख़िलाफ़ भाजपा से उनके 'आदर्श हिंदुत्व' के क्रेडेंशियल की बाबत पूछताछ करना, यह दर्शाता है कि भाजपा के हिन्दू 'नेरेटिव' से बंगाल की बेटी आक्रांत है। क्या ममता को भाजपा की आर्थिक नीतियों और महंगाई से कराहते देश की जनता के आत्मविश्वास पर पूरा भरोसा नहीं? तब क्यों वह चुनाव लड़ने की उसी रणनीति में उलझने की कोशिश कर रही हैं जिससे उनकी विरोधी भाजपा उन्हें उलझना चाहती है?