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- कांग्रेस और लेफ्ट के...
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में एक बार फिर कांग्रेस के हाथ मायूसी ही लगी है वही लेफ्ट पार्टियों की जमीन भी दरकती नजर आई है।खास तौर पर जिस तरह बंगाल में दोनों पार्टियों का सूपड़ा साफ हुआ है उसे देखते हुए उनको अपना अस्तित्व बचाने के लिए गंभीर आत्ममंथन करना होगा।
पहले लेफ्ट पार्टियों के बात करें तो बंगाल में करीब 34 वर्षों तक कम्युनिस्ट पार्टियों ने शासन किया है। एक समय बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था। वर्ष 2016 के चुनाव में भी लेफ्ट का प्रदर्शन कुछ संतोषजनक था, 30 सीटों पर जीत के साथ करीब 20% वोट लेफ्ट पार्टियों को मिले थे वही इस बार के चुनावों में पार्टी पूरी तरह औंधे मुंह गिरी हैं, पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली और वह 5% वोट पर ही सिमट गई। जानकारों का मानना है कि कुशल नेतृत्व के अभाव और अपने को समय अनुसार ना ढाल पाने का खामियाजा लेफ्ट पार्टियों को भुगतना पड़ रहा है।
इन चुनावों ने कांग्रेस की जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय नमक लगाने का ही काम किया है। बंगाल से शुरू करें तो 2016 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 44 सीटों पर 12.25 प्रतिशत वोट शेयर के साथ अपना कब्जा जमाया था वही अबकी बार पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली और वोट शेयर भी करीब 3 प्रतिशत पर आकर ठहर गया।
असम में इस बार प्रियंका गांधी ने जबरदस्त प्रचार किया था। माना जा रहा था कि भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा और कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर उसे सत्ता से बेदखल कर देगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। असम में पिछले चुनाव के मुकाबले कांग्रेस को करीब 3 सीटों का फायदा जरूर हुआ है लेकिन यह प्रदर्शन उम्मीद से काफी पीछे रह गया। कमोबेश केरल में भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ जबकि यहां पर राहुल गांधी ने जोर शोर से पार्टी का प्रचार किया था। जबकि 30 विधानसभा सीटों वाले केंद्र शासित प्रदेश पांडुचेरी में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा। यहां पर पार्टी को 9 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा।
कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाना है तो उसको अपनी चूकों से सबक लेना होगा। पार्टी आलाकमान को यह समझना होगा कि सत्ता विरोधी विरोधी लहर के बावजूद वह मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने में क्यों कामयाब नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा पार्टी को बूथ स्तर तक ध्यान देना होगा और संगठन में जान फूंकने की कोशिश करनी होगी।