अदालत के बदौलत अस्तित्व बचाता अरावली

फिलहाल वे गैर वानिकी कार्य नहीं कर सकते। जहां पर वन संरक्षण कानून लागू होता है वहां पर सरकार से संबंधित विकास कार्य ही केवल किए जा सकते हैं। सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों के रहने के लिए इमारत तक नहीं बना सकते।

Update: 2021-06-15 17:33 GMT

पंकज चतुर्वेदी 

सात जून 2021 को सुप्रीम कोर्ट के ओदष के बाद फरीदाबाद नगर निगम क्षेत्र में सूरजकुड से सटे खोरी गांव की कोई साठ हजार आबादी का सोना-खाना सबकुछ छूट गया है। वहां बस डर है, अनष्चितता है और भविश्य का अंदेषा है। मानवीय नजरिये से भले ही यह बहुत मार्मिक लगे कि एक झटके में 80 एकड़ में फैले षहरी गांव के कोई दस हजार मकान तोडे जाने हैं व उसमें रहने वालों को कोई वैकल्पिक आवास व्यवस्था के अनुरोध को भी कोर्ट ने ठुकरा दिया। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि राजस्थान के बड़े हिस्से, हरयाणा, दिल्ली और पंजाब को सदियों से रेगिस्तान बनने से रोकने वाले अरावली पर्वत को बचाने को यदि अदालत सख्त नाहो तो नेता-अफसर और जमीन माफिया अभी तक समूचे पहाड़ को ही चट कर गया होता। कैसी विडंबना है कि जिस पहाड़ के कारण हजारों किलोमीटर में भारत का अस्तित्व बचा हुआ है उसको बचाने के लिए अदालत को बार-बार आदेष देने होते हैं। जान लें सन 2016 में ही पंजाब -हरियाणा हाई कोर्ट अरावली पर अवैध कब्जा कर बनाई कालोनियों को ध्वस्त करने के आदेष दे चुका था, उसके बाद फरवरी-2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भी उस ओदष को मोहर लगाई थी। प्रषासनिक अमला कुछ औपचारिकता करता लेकिन इस बार अदालत ने छह सप्ताह में वन भूमि पर से पूरी तरह कब्जा हटा कर उसकी अनुपालन रिपोर्ट अदालत में पेष करने का सख्त आदेष देते हुए इसके लिए ुपलिस अधीक्षक को जिम्मेदार अफसर निरूपित किया है।

यह भी समझना होगा कि अरावली के जंगल में अवैध कब्जा केवल खेरी गांव ही नहीं है, फरीदाबाद में ही हजारों फार्म हाउस भी हैं। पिछले साल लाॅक डाउन के दौरान गुरूग्राम के घाटा गांव में किला नंबर 92 पर कई डंपर मलवा डाल कर कुछ झुग्गियां डाल दी गई थीं। अरावली के किनारे समूचे मेवात में - नगीना, नूह, तावड़ू से तिजारा तक अरावली के तलहटी पर लोगों के अवैध कब्ज हैं और जहां कभी वन्य जीव देखे जाते थे अब वहा खेत-भवन हैं।

अरावली पर कब्जे हटाने के लिए राज्य सरकारों की कभी ईमानदार मंषा नहीं रही तभी हरियाणा सरकार ने तीन मार्च 2021 को सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दे कर पर्यावरणीय मंजूरी सहित सभी वैधानिक अनुमति के अनुपालन के साथ अरावली पर्वतमाला में खनन फिर से शुरू करने की मांग की थी। सनद रहे सुप्रीम कोर्ट ने 6 मई 2002 को अरावली में अवैज्ञानिक तरीके से हो रहे खनन कार्य पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब से हरियाणा से लगते अरावली क्षेत्र में खनन कार्य पूरी तरह बंद है। उसके बाद सन 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने इको सेंसिटिव क्षेत्र में सभी प्रमुख और मामूली खनन पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। जान लें कि दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान का अस्तित्व ही अरावली पर टिका है और यदि इससे जुड़ै सरंक्षण के कानूनों में थोड़ी भी ढील दी गई तो भले ही सरकारी खजाने में कुछ धन आ जाए लेकिन तय मानें कि हजारों हैक्टर के कृशि व हरियाली क्षेत्र रेगिस्तान मं बदेल जाएगा। यह भी याद करना जरूरी है कि सन 2019 के 27 फरवरी को हरियाणा विधानसभा में जो हुआ था उसने अरावली के प्रति सरकारों की संवेदनहीनता जाहिर कर दी थी। बहाना था कि महानगरों का विकास करना है, इस लिए करोड़ों वर्श पुरानी ऐसी संरचना जो कि रेगिस्तान के विस्तार को रोकने से ले कर जैवविधिता संरक्षण तक के लिए अनिवार्य है, को कंक्रीट का जंगल रोपने के लिए खुला छोड़ दिया गया। सनद रहे सन 1900 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने पंजाब लैंड प्रीजर्वेशन एक्ट (पीएलपीए) के जरिए अरावली के एक बड़े हिस्से में खनन व निर्माण जैसी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। 27 फरवरी को इसी एक्ट में हरियाणा विधानसभा ने ऐसा बदलाव किया कि अरावली पर्वतमाला की लगभग 60 हजार एकड़ जमीन षहरीकरण के लिए मुक्त कर दी गई। इसमें 16 हजार 930 एकड़ गुड़गांव में और 10 हजार 445 एकड़ जमीन फरीदाबाद में आती है। अरावली की जमीन पर बिल्डरों की शुरू से ही गिद्ध दृष्टि रही है। हालांकि एक मार्च को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) अधिनियम-2019 पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए हरियाणा विधान सभा के प्रस्ताव के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेता दिया था कि यदि अरावली से छेड़छाड़ हुई तो खैर नहीं। हालांकि लगता है कि अरावली का अस्तित्व केवल अदालत के बदौलत ही बचा है। इससे पहले राजस्थान सरकार भी अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने को ले कर अदालत में बचती दिखी है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाउ या हरियाली वाली जमीन रेत के ढेर से ढक रही है औा इसका असर एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है। बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। इस बात पर बहुत कम लोग ध्यान देतें हैं कि भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान व उससे आगे तक फैले भीशण रेगिस्तान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है और यह हरियाली वाले इलाकों तक ना पहुंचे इसकी सुरक्षा का काम अरावली पर्वतमाला सदियों से करती रही है। विडंबना है कि बीते चार दषकों में यहां मानवीय हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रंखला की जगह गहरी खाई हो गई और एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।

गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देष के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दषक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग षिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असर में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेष 07 मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में एमसी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई ओदष आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कालोनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार व तपन ने तंग करना षुरू किया तब यहां के सत्ताधारियों को पहाड़ी की चिंता हुई। देष में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्ष है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराष-हताष से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।

सितंबर-2019 में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया था कि वह 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था. इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया. इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चैंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है।

यह बेहद दुखद और चिंताजनक तथ्य है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिषत हिस्से पर हरियाली थी जो आज बामुष्किल सात फीसदी रह गई। जाहिर है कि हरियाली खतम हुई तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो गए। सनद रहे अरावली रेगिस्तान की रेत को रोकने के अलावा मिट्टी के क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और जमीन की नमी बरकरार रखने वाली कई जोहड़ व नदियों को आसरा देती रही है। अरावली की प्राकृतिक संरचना नश्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृश्णावति, दोहन जैसी नदियां अब लुप्त हो रही है। वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट की एक सर्वें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किलोमीटर पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किलोमीटर हो गई है। साथ ही इसके 47 वर्गकिमी में कारखाने भी हैं।

सोहना से लेकर महेंद्रगढ़ की कई पहाड़ियां गायब

पिछले कुछ सालों के दौरान वैध एवं अवैध खनन की वजह से सोहना से आगे तीन पहाड़ियां गायब हो चुकी हैं। होडल के नजदीक, नारनौल में नांगल दरगु के नजदीक, महेंद्रगढ़ में ख्वासपुर के नजदीक की पहाड़ी गायब हो चुकी है। इनके अलावा भी कई इलाकों की पहाड़ी गायब हो चुकी है। रात के अंधेरे में खनन कार्य किए जाते हैं। सबसे अधिक अवैध रूप से खनन की शिकायत नूंह जिले से सामने आती है। पत्थरों की चोरी की शिकायत सभी जिलों में है।

वैसे तो भूमाफिया की नजर दक्षिण हरियाणा की पूरी अरावली पर्वत श्रृंखला पर है लेकिन सबसे अधिक नजर गुरुग्राम, फरीदाबाद एवं नूंह इलाके पर है। अधिकतर भूभाग भूमाफिया वर्षों पहले ही खरीद चुके हैं। वन संरक्षण कानून के कमजोर होते ही सभी अपनी जमीन पर गैर वानिकी कार्य शुरू कर देंगे। फिलहाल वे गैर वानिकी कार्य नहीं कर सकते। जहां पर वन संरक्षण कानून लागू होता है वहां पर सरकार से संबंधित विकास कार्य ही केवल किए जा सकते हैं। सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों के रहने के लिए इमारत तक नहीं बना सकते।

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