धन्य है सत्तार भाई की जिंदादिली और मस्ती. 'फिकर नाट' ज़िन्दगी जीने का अंदाज़ कोई इनसे सीखे
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
ये हैं अब्दुल सत्तार मेमन, सायकल रिपेयरिंग का काम करते हैं। हमारे मित्र Jagdish Dua की सायकल दूकान में चीफ इंजीनियर कहलाते हैं। चीफ इसलिए कि सर्वाधिक बुजुर्ग हैं और पिछले २० वर्षों से सायकल सुधारने और फिट करने में लगे हुए हैं. ये सौंपे गए काम को धीमे और अत्यंत धीमे करने के विशेषज्ञ हैं. किसी भी कार्य को करने के पहले उस पर ठिठक कर विचार करना और उसके बाद धीरे से उसको शुरू करना और हंसते हुए आराम से पूरा करना इनकी स्थायी अदा है.
नियम के पक्के हैं. सुबह के समय अलसी और मेथी दाना नियमित रूप से खाते हैं. घर में जो भी नाश्ता बना उसे खाकर दस-पंद्रह गिलास पानी पीकर निकलते हैं तो फिर रात को घर लौटकर ही उतना ही पानी पीते हैं. इस बीच दो रुपये की तम्बाकू के अलावा दिन भर कुछ भी ग्रहण नहीं करते. खाने-पीने के शौक़ीन सत्तार भाई जवानी के दिनों में एक बैठक में ७०-८० पूरियां खा लिया करते थे लेकिन अब वह ताकत न रही. तैरने के महाशौक़ीन इस इंसान को मस्ती में जीना पसंद है. घर से काम में जाने के लिए निकलेंगे लेकिन काम पर पहुंचेंगे या नहीं, यह किसी को मालूम नहीं. यदि मूड न हुआ तो 'सेल्फ होलीडे' मना लेंगे और दिन भर शहर की पैदल ख़ाक छानेंगे. ऐसी छुट्टी वे एक दिन की नहीं लेते, चार-पांच दिनों तक यूँ ही लापता रहते हैं, इनकी घरवाली बेचारी फोन करके इधर-उधर पता करते रहती है क्योंकि इनके पास फोन नहीं है. अगर कोई दानवीर मिल गया तो उसके साथ उन्हीं एक कपड़ों में अजमेर शरीफ के लिए निकल सकते हैं. वहां से घूमते-घामते दस-पंद्रह दिनों बाद दांत निपोरते हुए फिर सायकल फिट करतने में व्यस्त हो जाते हैं, उनसे कोई पूछता भी नहीं कि इतने दिन कहाँ रहे?
अपने पैसे से खरीद कर उनके घर में मांस-मटन नहीं बनता. 'बताओ, इतना मंहगा है, मैं कैसे खरीद सकता हूँ? जकात में मांस आता है, तीन-चार घरों से आ जाता है तो लगभग एक किलो हो जाता है, तब मटन पकता है. मेरी ससुराल में राईस मिल है, वहां से खाने भर को चावल आ जाता है, कुछ यहाँ जगदीश भाई से तनख्वाह मिल जाती है तो मेरा काम चल जाता है, फ़िज़ूल खर्च एक पैसा भी नहीं करता.' उन्होंने हंसते हुए बताया.