शिवनाथ झा
नई दिल्ली के जनपथ से : आप विस्वास भले नहीं करें लेकिन भारत में गणतन्त्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के अवसर पर कोई 680 करोड़ रुपये का व्यवसाय है प्लास्टिक से बना तिरंगा और तिरंगे की इस माफियागिरी में समाज के सैकड़ों लोग लगे हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तिरंगे के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रान्तिकारियों, शहीदों और उनके जीवित वंशजों को कौन पूछता है ? इतना ही नहीं, इससे भी ह्रदय विदारक बात यह है कि जिस व्यक्ति ने इस तिरंगे की रचना की, उसे मरणोपरांत तिरंगा नसीब नहीं हुआ। देश के आवाम के लिए इससे बड़ी शर्मनाक बात कुछ और नहीं हो सकती।
लेकिन, आजादी के 75 वें वर्षगांठ पर उस महामानव श्री पिंगली वैंकय्या के सम्मानार्थ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर "घर-घर तिरंगा" का आह्वान कर राष्ट्रध्वज के रचयिता को भारत के 135 करोड़ लोगों के तरफ से सम्मान देने का वचन दिया है।
वैसे भारत का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्लास्टिक से बने तिरंगे पर प्रतिबंध है, साथ ही, भारत के लोगों से यह भी अपेक्षा होती है कि वे संविधान द्वारा पारित झण्डा नियमों का अक्षरसः पालन करें। लेकिन, कपड़े से बने तिरंगे की बात छोड़िये, औसतन गणतन्त्र दिवस और स्वाधीनता दिवस पर भारत की सम्पूर्ण आवादी के प्रत्येक हाथ में न सही, प्रत्येक चौथे हाथ में तिरंगा अवश्य होता है और वह भी प्लास्टिक वाला। यह अलग बात है कि देश की सम्पूर्ण आवादी में प्रत्येक 100 में 80 + व्यक्ति तिरंगे के आकार-प्रकार से वाकिफ नहीं हैं, कोई बताने वाला भी नहीं है – माता-पिता सहित ।
प्रत्येक चौथे हाथ में तिरंगा का अर्थ हुआ 25 फीसदी आवादी के पास तिरंगा, यानि 34 करोड़ लोगों के हाथ तिरंगा। इस दृष्टि से, गणतन्त्र दिवस और स्वाधीनता दिवस पर (34 करोड़ + 34 करोड़) 68 करोड़ तिरंगा भारत के बाज़ारों में, सड़कों पर, गलियों में, चौराहों पर "बिकने" के लिए मौजूद होते हैं। अब जरा तिरंगे का गणित देखिये – इन अवसरों पर एक तिरंगे की कीमत भारत की सडकों पर न्यूनतम 10 रुपये निर्धारित है वह भी प्लास्टिक वाला; भले ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय प्लास्टिक से बने तिरंगे पर पाबन्दी क्यों न लगा रखा हो । यानि 68 करोड़ तिरंगा x 10 रुपये = 680 करोड़ रुपये का व्यवसाय । इस बात पर बहस नहीं करेंगे की तिरंगे को शाम ढलते सड़कों पर फेंकते हैं या कूड़ेदानों में – यह तो मानसिकता पर निर्भर है।
एक बहुत बड़ा "तिरंगा माफ़िया" जो विभिन्न भेष-भूषाओं में हैं इस व्यवसाय में जुड़े हैं। यहाँ भी स्पष्ट कर दूँ की उन्हें राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में फर्क नहीं मालुम है और इन दोनों को गाने के लिए समय पाबन्दी कितनी है होती है, यह पूछना तो सबसे बड़ी मूर्खता होगी। ऐसे हालात में जब तिरंगा ही बिक रहा है वहां उस तिरंगे को अपनी उड़ान देने के लिए जिन-जिन क्रान्तिकारियों ने अपने-अपने प्राणों की आहुति दी ताकि देश आज़ाद हो, आज़ाद भारत में उसका तिरंगा आसमान की ऊंचाई छुए – कौन पूछता है।
बहरहाल, देश के बड़े पत्रकार के विक्रम राव ने लिखा है कि "जिन्हें नाज है हिन्द पर वे सभी जान ले कि राष्ट्रध्वज के रुपरेखाकार पिंगली वैंकय्या एक तेलुगुभाषी निर्धन स्कूल मास्टर थे। वे कंगाली में जन्में (2 अगस्त 1876 : सागरतटीय महलीपत्तनम, आंध्र) तथा अभाव में पले। इस विप्र के शवदाह में पर्याप्त ईधन नहीं मिला। उनका अधूरा ख्वाब था कि तिरंगे में लपेटकर उनकी लाश ले जायी जाये। आज मीडिया और नरेन्द्र मोदी से लेकर सभी उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। "घर—घर तिरंगे" के पर्व पर। पिंगली वेंकैया का जन्म आज के ही दिन, यानी 2 अगस्त 1876 को भट्लापेननुमारु में हुआ था और 4 जुलाई, 1963 को विजयवाड़ा में अंतिम सांस लिए। दुर्भाग्य यह रहा कि तिरंगे के रचयिता को मृत्युपरांत तिरंगा नसीब नहीं हुआ।
के विक्रम राव लिखते हैं कि वैंकय्या ने जीवन में कई ज्वारभाटा देखे। मेधावी छात्र थे। लाहौर के वैदिक महाविद्यालय में उर्दू और जापानी के अध्यापक रहे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक डिग्री ली। मगर भारत लौटकर आये तो निजी रेलवे में जीविका पायी। लखनऊ में भी एक शासकीय नौकरी की। उनके रोजगार में विविधता रही। भूविज्ञान तथा कृषि क्षेत्र में निष्णात रहे। खदानों के जानकार रहे। फिर आयी उनके जीवन की विलक्षण बेला। ब्रिटिश सेना का दक्षिण अफ्रीका में बोयर युद्ध हुआ। भारतीय लोग भी वहीं गये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण सैनिक था मोहनदास कर्मचन्द गांधी। वे चिकित्सक (स्वयं सेवक) की भूमिका में थे। तभी वैंकय्या भी ब्रिटिश सैनिक के रोल में गये। गांधीजी से भेंट हुयी, परिचय हुआ। फिर भारत में राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में दोनों में प्रगाढ़ता सर्जी।
के विक्रम राव के अनुसार, तभी का किस्सा है। चालुक्यों की गौरवमीय राजधानी रही काकीनाडा (गोदावरी तटीय) की घटना है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन (26 दिसंबर 1923) हुआ। यह चालुक्यों के सम्राट पुलकेशिन से जुड़ा था। यहीं वैंकय्या ने कांग्रेस में शरीक होकर राष्ट्रीय ध्वज के प्रारुप पर चर्चा किया था। यह अधिवेशन दो घटनाओं के लिये ऐतिहासिक था। यहीं मौलाना मोहम्मद अली ने कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में वन्दे मातरम् गाने पर एतराज किया था। वाक आउट किया। तभी से यह राष्ट्रगान अधूरा हो गया। इसी अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने तय किया कि स्वतंत्रता के बाद भारत का भाषा के आधार पर पुनर्गठन किया जायेगा। सर्वाधिक निर्धार जब महत्वपूर्ण था कि काकीनाडा अधिवेशन में ही वैंकय्या ने राष्ट्रध्वज की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका यह विचार गांधीजी को बहुत पसन्द आया। गांधीजी ने उन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने का सुझाव दिया।
पिंगली वैंकय्या ने पाँच सालों तक तीस विभिन्न देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया और अंत में तिरंगे के लिए सोचा। विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पिंगली वैंकय्या महात्मा गांधी से मिले थे और उन्हें अपने द्वारा डिज़ाइन लाल और हरे रंग से बनाया हुआ झंडा दिखाया। तब तक ब्रिटिश यूनियन जैक ध्वजा ही कांग्रेस सम्मेलनों में फहरती थी। मगर बाद में तिरंगा फहरने लगा। देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में दो रंगों वाले झंडे का प्रयोग बंद हो गया। लेकिन उस समय इस झंडे को कांग्रेस की ओर से अधिकारिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिली थी। इस बीच जालंधर के हंसराज ने झंडे में चक्र चिन्ह बनाने का सुझाव दिया। इस चक्र को प्रगति और आम आदमी के प्रतीक के रूप में माना गया। बाद में गांधी जी के सुझाव पर पिंगली वैंकय्या ने शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया। बाद में 1931 में कांग्रेस ने कराची के अखिल भारतीय सम्मेलन में केसरिया, सफ़ेद और हरे तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। फिर राष्ट्रीय ध्वज में इस तिरंगे के बीच चरखे की जगह अशोक चक्र ने ले ली।
राष्ट्रध्वज वैंकय्या द्वारा निरुपित हो जाने से गीत का प्रस्ताव आया इसी की पंक्ति थी जो हमलोग गुलाम भारत (1945—46) में स्कूलों में गाते थे। ध्वज गीत की रचना श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' ने की थी। पद वाले इस मूल गीत से बाद में कांग्रेस ने तीन पद (पद संख्या 1, 6 व 7) को संशोधित करके 'ध्वजगीत' के रूप में मान्यता दी। यह गीत न केवल राष्ट्रीय गीत घोषित हुआ बल्कि अनेक नौजवानों और नवयुवतियों के लिये देश पर मर मिटनें हेतु प्रेरणा का स्रोत भी बना : "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। सदा शक्ति बरसाने वाला, प्रेम सुधा सरसाने वाला। वीरों को हरषाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा।"
जब 9 अगस्त 1942 में गवालिया टैंक मैदान मुम्बई (अगस्त क्रांति मैदान) में सारे नेताओं के कैद हो जाने पर क्रांतिकारी अरुणा आसफ अली ने यह ध्वज फहराया था। वे भी गुनगुना रही थी : "इसकी शान न जाने पाये। चाहे जाने भले ही जाये।"
मगर इतिहास की विडंबना है कि भारी विरोध के बाद भी तिरंगा सत्तारुढ कांग्रेस का पार्टी झण्डा भी हो गया। आम जन को भ्रम होता है। राष्ट्रीय कांग्रेस का भारत को भ्रम में डालने का यह एक और किस्सा है। जैसे गांधी उपनाम का नेहरुवंश वालो का इस्तेमाल धोखा ही हुआ।