इसे ही थेथरोलॉजी कहते है नीतीश जी
कल बिहार विधानसभा के हंगामेदार बहस,जिस में मुख्यमंत्री नीतीशजी ने आपा खो दिया था...?'
प्रेमकुमार मणि
बिहार में एक शब्द प्रचलित है - थेथरोलॉजी . यह शब्द पहली दफा मैंने और किसी के नहीं ,नीतीशजी के ही मुँह से ही एक प्रसंग में सुना था . बिहार के लोग शब्द गढ़ने में माहिर होते हैं . अंग्रेजी के नर्वस से नरभसाना सुन कर एक बार व्यंगकार शरद जोशी परेशान हुए थे . इसे लेकर एक लेख ही लिख डाला था . तो , थेथरोलॉजी पहली दफा सुन कर मैं भी परेशान हुआ था .
लेकिन कल विधानसभा में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने जब इसकी सप्रसंग व्याख्या की,तब , कम से कम मुझे ऐसा जरूर महसूस हुआ कि थेथरोलॉजी जिस अर्थ को व्यंजित करता है ,दूसरा कोई शब्द नहीं कर सकता . इसीलिए आज मैंने इस शब्द को शीर्षक में शामिल किया है .
कल बिहार विधानसभा के हंगामेदार बहस,जिस में मुख्यमंत्री नीतीशजी ने आपा खो दिया था की इतनी चर्चा सुनी कि उसे यूट्यूब पर सुनने के लिए मजबूर हुआ . मैं परेशान हो रहा था कि उन्हें अस्पताल ले जाना कैसे नहीं पड़ा. लेकिन सौभाग्य कि ऐसा नहीं हुआ था .
चुनाव के दरम्यान ही नीतीशजी जुबान का संयम खोने लगे थे . इसे बिहार की जनता ने देखा . मर्यादा पुरुष होना किसी भी समाज में बड़ी बात मानी जाती है . सब जानते थे कि नीतीशजी के व्यक्तित्व में भाषा और व्यवहार का संस्कार अंतर्गुम्फित है ,और यह उनके व्यक्तित्व की पूँजी भी है . यह दुर्भाग्यपूर्ण हुआ कि विगत चुनाव में इसमें भयानक छीजन हुई और कल तो मानो उनका एक नया ही रूप प्रगट हुआ . एक दम्भ में पगा तेवर . शायद कोई तानाशाह भी अपनी संसद में इस रूप में प्रगट नहीं हुआ होगा . हिटलर की तस्वीरें देखिए और कल के नीतीशजी की तस्वीरों से मिलान कीजिए . फर्क यही है कि हिटलर की गुस्से से पगी तस्वीरें आमसभाओं की हैं . जर्मन संसद की नहीं .
फ़िलहाल उनके तेवर को छोड़ उनकी बातों पर आता हूँ . वह नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के भाषण के बीच में टोक रहे थे . शायद वह भूल ही गए कि वह किसी घर या चौराहे पर नहीं , विधानसभा में हैं . कानून के कारखाने में ,धारासभा में , जहाँ वह पक्ष के नेता हैं और दूसरा ,जिसकी बात में वह दखल दे रहे हैं ,प्रतिपक्ष का नेता . वह बेलछी का चौबारा नहीं ,लोकतंत्र का घरौंदा है ,जहाँ सब कुछ मर्यादा पर ही टिका है . कानून में व्यक्ति नहीं आसन या कुर्सी महत्वपूर्ण होती है . नीतीशजी को लग रहा था कि यह छोकरा तो हमारे पुराने ' भाई समान दोस्त का बेटा ' है . मुझ से बराबरी से क्यों बोल रहा है ! इसकी औकात क्या है ? गाँव का सामंत इसी अंदाज में बोलता है . खास कर तब, जब उसके चरवाहे -हलवाहे का बेटा कुछ बन जाता है . सुना है जब कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक पास किया तब उनके पिता उसे लेकर गाँव के बाबूसाहब (जमींदार ) के घर गए . बतलाया बेटा मैट्रिक पास किया है . लकड़ी के बड़े कुन्दे की तरह भारी -भरकम जमींदार लुढ़का और बोला -अच्छा ,मैट्रिक पास किया है ! तो आओ गोड़ (पैर) दबाओ . ऐसा सामंती चलन होता था . सामंतवाद ख़त्म हो गया . ज़मींदारियाँ ख़त्म हो गईं . लेकिन सामंती ठसक लोकतान्त्रिक दुनिया में भी कई रूपों में आज भी प्रगट होती रहती है .
नीतीश जी की बातों को ध्यान से सुनिए . फिर उसका खंडन -मंडन कीजिए . ' भाई समान दोस्त का बेटा ' . ( ! उस भाई समान दोस्त ,जिसे हमने मिलजुल कर जेल भिजवाया है ! ) नेता प्रतिपक्ष एक संवैधानिक पद है . उस पर कोई भी बैठ सकता है . उसे वाजिब सम्मान मिलना ही चाहिए . मैंने बहुत पहले अरुण सिंह का एक साक्षात्कार इंडियन एक्सप्रेस में देखा था . वह राजीव गांधी के सहपाठी दोस्त थे . राजीव जब प्रधानमंत्री बने तब अरुण को राज्यमंत्री बनाया . अरुण से पूछा गया था आप उन्हें क्या कह कर सम्बोधन करते थे . अरुण का जवाब था - ऑफिस में सर कहता था और घर में राजीव . दूसरी बात बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री केबी सहाय की है . 1937 के चुनाव के बाद जब पहली दफा प्रांतीय सरकारें बनी और बिहार में श्रीबाबू की सरकार बनी ,तब उसमे श्री सहाय संसदीय सचिव ( आज के राज्यमंत्री के बराबर ) बनाए गए थे . हज़ारीबाग में उनके पिता दरोगा थे . जब वहां केबी सहाय गए तो उनके पिता की ड्यूटी लगी थी . दरोगा पिता ने बेटे को सलामी दी . बेटे ने टोपी उतारी और पिता के पाँव छुए . यह मर्यादा होती है .
मुख्यमंत्री सदन का नेता होता है . सदन का अध्यक्ष नियमन के लिए जवाबदेह होता है .इस रूप में वह सबका आदरणीय होता है . इन दोनों के बाद नेता प्रतिपक्ष ही महत्वपूर्ण होता है . मुख्यमंत्री आपा खोकर उसे तुम -तड़ाक किए जा रहे थे . यह कोई अच्छी परंपरा है क्या ? मान भी लिया जाय कि नेता प्रतिपक्ष कुछ गलत बोल रहा है ,तब उस पर कुछ कहने के लिए अध्यक्ष थे . कोई सामान्य सदस्य यह करता तब क्षम्य हो सकता था . सदन के नेता वह भी वयोवृद्ध और अनुभवी नेता ऐसा कर रहा है ,तब कुछ गड़बड़ है . मुख्यमंत्री ने उस सदन की गरिमा गिराई ,जिस के वह नेता हैं . ऐसा करके उन्होंने स्वयं की गरिमा भी गिरा ली .
नीतीश जी ने यह भी कहा कि पता है कि आपके पिता को किस ने विधायक दल का नेता बनाया ? नेता विधायक दल लालू प्रसाद 1988 में बने ,कर्पूरीजी के निधन के बाद . तब लोकदल था . भूल नहीं रहा हूँ तो इस दल के कुल जमा 33 विधायक थे . लगभग आधे यादव थे . इसमें अधिकांश लालू प्रसाद के साथ थे . नीतीशजी ने अपना समर्थन अवश्य दिया था . दूसरी दफा 1990 में सब जानते हैं कि यदि चंद्रशेखर ने रघुनाथ झा को नहीं खड़ा किया होता और 13 वोट उन्हें नहीं आते तो रामसुंदर दास नेता होते और फिर मुख्यमंत्री भी . इसमें नीतीशजी की कितनी भूमिका थी उसे दुनिया जानती है . वह तो तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री बनाने की कृपा का भी हवाला दे रहे थे . इस से हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है भला . नीतीशजी 71 विधायकों के नेता थे . तेजस्वी उनसे 9 अधिक ,यानि 80 विधायकों के नेता थे . लोकतान्त्रिक रिवाज तो यह था कि कायदे से तेजस्वी मुख्यमंत्री और नीतीश उपमुख्यमंत्री होते . लेकिन यदि कोई यह दम्भ करे कि मैंने उपमुख्यमंत्री बनाया तो मानना पड़ेगा कि सोच में कोई गड़बड़ी है .
प्रसंगवश मुझे बचपन में सुना हुआ एक किस्सा याद आ रहा है . सर्दियों के दिन थे और एक धर्मशाला में तीन राहगीर रुके हुए थे . चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था . तीन राहगीरों में से दो के पास तो कंबल थे ,तीसरे के पास कुछ नहीं था . कंबलदार राहगीरों ने तीसरे से पूछा -' यार तुम्हारे पास कुछ ओढ़ना नहीं है ,कैसे रात गुजारोगे ? इतनी ठण्ड है . '
तीसरा इत्मीनान भाव से बोला -मैं कंबल लेकर नहीं चलता . मैं जानता हूँ कि लोग सदाशयी हैं . मेरा काम चल जाएगा .'
- ' लेकिन कैसे ?
-' मैं धागा लेकर चलता हूँ . आपलोग इज़ाज़त दीजिए तो मैं जादू कर दिखाऊं और अपने लिए इंतज़ाम कर लूँ . '
'- कर लो यार . जल्दी कर लो . '
तीसरे ने दोनों के कम्बलों को लिया और धागे से जोड़ दिया . सोने की बारी आई तो तीसरे ने कहा, आपलोग अपने -अपने कम्बल के नीचे रहो ,मैं बीच में अपने धागे के नीचे रहूँगा . सदाशयी राहगीरों ने ऐसा होने दिया . रात में बीच में ,यानी मुख्य जगह पर अपने धागे के नीचे पड़ा राहगीर बारी -बारी से दोनों को धमकाता था कि इधर -उधर करोगे तो धागा खींच लूँगा . रात में तो नहीं ,लेकिन सुबह के वक़्त एक राहगीर की नजर तीसरे की चालाकी पर गई और उसने दूसरे को भी बतलाया . फिर दोनों ने एक -एक लात तीसरे को जमाई कि यह आदमी तो हमारी ही सदाशयता का फायदा उठाते हुए रात भर हमें उपदेश देता रहा . मानो यही हमलोगों पर कृपा कर रहा हो .
नीतीशजी के उपदेश इस तीसरे चालाक आदमी के उपदेश की तरह ही हैं . सन 2000 में 68 भाजपा के विधायक थे ,33 समता के . नीतीश मुख्यमंत्री बन गए . 2015 में 71 जदयू के थे , 80 राजद के . नीतीश बन गए . अबकी 74 भाजपा के हैं , 43 नीतीश के . फिर बन गए . इसे कहते हैं राजनीति का धागावाद . इनका धागावाद अभी काम आ रहा है . उपदेश भी जारी है . लेकिन हक़ीक़त अब लोग जानने लगे हैं . उनका खम्बा नोचना इसी का परिचायक है . दरअसल वह दया के पात्र होते जा रहे हैं .