बिहार में दलित राजनीति दशा और दिशा

Update: 2020-09-08 09:08 GMT

बेताब अहमद 'बेताब

बिहार में कुल 16 फीसदी दलित मतदाता हैं बिहार की सियासत में दलित राजनीति की जड़ें आखिर क्यों इतनी कमजोर हैं। चिराग पासवान और जीतन राम मांझी गठबंधनों में तवज्जों नहीं मिलने से बेचैन नजर आ रहे हैं। बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित हुआ। इसके बाद हालांकि, 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बन गए थे, जो देश में पहले दलित मुख्यमंत्री थे। 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बन गए थे आखिर क्या कारण है कि इसके बाद भी दलित राजनीति बिहार में यूपी और महाराष्ट्र की तरह अपनी जड़े नहीं जमा सकी है? और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके? कारण क्या है कि यूपी में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया है वैसा कोई आंदोलन बिहार में नहीं हुआ है?

बिहार में दलित समुदाय बिखरा हुआ है, उसका अपने कोई एक नेता नहीं है और न ही कोई एक बेल्ट है. बिहार में राजनीतिक तौर पर उन्हें वो मुकाम नहीं मिला, जिस प्रकार यूपी और महाराष्ट्र की राजनीति में दलित समुदाय को मिला है। बिहार में दलित समुदाय हर चुनाव में अपना मसीहा तलाशता है। पहले कांग्रेस पर भरोसा किया और फिर लालू यादव की आरजेडी के साथ लंबे समय तक रहा। इसके बाद नीतीश कुमार की जेडीयू का रुख किया, लेकिन दलित समुदाय को सभी ने ठगा है। उनके हक के लिए किसी ने भी कोई ठोस काम नहीं किया।

इसीलिए हर चुनाव में दलित समुदाय की वोटिंग पैटर्न बदलता रहा है। बिहार में तकरीबन पांच फीसदी के करीब वोट बैंक वाली पासवान जाति के सर्वमान्य नेता राम विलास पासवान और चिराग पासवान पूरे बिहार में वो न तो पार्टी खड़ी कर सकी है और न ही कोई सक्रिय भूमिक में कभी दिखी है। जीतनराम मांझी ने 8 महीने सीएम पद पर रहते हुए अपना सारा फोकस कमोबेश इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सके। नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को महादलित का चेहरा न बन जाए इसके रोकने के लिए दलित समुदाय को साधने के लिए दलित कैटेगरी की 22 जातियों में से 21 को महादलित घोषित कर अपनी तरफ से कोशिशें शुरू, जिसमें वो कामयाब भी रहे। हालांकि, 2018 में पासवान जातीय को भी शामिल कर सभी को महादलित बना दिया। इस तरह से बिहार में अब कोई दलित समुदाय नहीं रह गया है।

जीतन राम मांझी, रामविलास पासवान, चिराग पासवान, श्याम रजक, रमई राम और उदय नारायण चौधरी सरीखे नेताओं कभी भी सामाजिक आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे हैं। बिहार में दलित राजनीतिक की अपनी कोई पहचान तब तक स्थापित नहीं हो सकती है जब तक कि दलित समुदाय अपना सामाजिक एजेंडा तय नहीं करते हैं। ऐसे में अगर एजेंडा सेट करने के लिए सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन खड़ा करते हैं तो निश्चित तौर पर दलित ही नहीं बल्कि पिछड़ों को कोई राजनीतिक दशा और दिशा मिल सकेगी। बिहार में सिर्फ जाति के नेता हैं। पासवान समुदाय पर आज भी रामविलास पासवान और चिराग पासवान, मुसहरों के सर्वमान्य नेता जीतन राम मांझी, रजकों के बड़े चेहरे श्याम रजक, रविदास के रमई राम, पासियों के उदय नारायण चौधरी अपने-अपने जाति अपने आप को नेता मानते हैं। ऐसे में जात के नहीं जमात के नेता बनना चाहते है तो दलित कोटे के वोट का 70 फीसदी हिस्सा रविदास, मुसहर और पासवान जाति का है। ऐसे में सूबे में दलित वोट बैंक सत्ता की दिशा और दशा दोनों तय करने की ताकत रखता है।

बिहार में दलित वर्ग की जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 16 प्रतिशत है। बिहार विधानसभा में कुल आरक्षित सीटें 38 हैं। 2015 में आरजेडी ने सबसे ज्यादा 14 दलित सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि, जेडीयू को 10, कांग्रेस को 5, बीजेपी को 5 और बाकी चार सीटें अन्य को मिली थी। इसमें 13 सीटें रविदास समुदाय के नेता जीते थे जबकि 11 पर पासवान समुदाय से आने वाले नेताओं ने कब्जा जमाया था। 2005 में JDU को 15 सीटें मिली थीं और 2010 में 19 सीटें जीती थी। बीजेपी के खाते में 2005 में 12 सीटें आईं थीं और 2010 में 18 सीटें जीती थी। आरजेडी को 2005 में 6 सीटें मिली थीं। 2005 में 2 सीट जीतने वाली एलजेपी ने तो 2010 में इन सीटों पर खाता तक नहीं खोला।

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