चुनावी तंज पर डी एम मिश्र की ग़ज़लें
1
वोटरों के हाथ में मतदान करना रह गया
दल वही , झंडे वही काँधा बदलना रह गया।
फिर वही बेशर्म चेहरे हैं हमारे सामने
फिर बबूलों के बनों से फूल चुनना रह गया।
चक्र यह रूकने न पाये , चक्र यह चलता रहे
बस , इसी से एक लोकाचार करना रह गया।
इक तरफ़ माँ -बाप बूढ़े , इक तरफ़ बच्चे अबोध
खुरदरा दोनों तरफ फुटपाथ अपना रह गया।
इस फटे जूते में मोची कील मारे अब कहाँ
चल रहा ये इसलिए तल्ला उखड़ना रह गया।
ये सियासत रँग बदलती रोज़ गिरगिट की तरह
इस सियासत का मगर चेहरा बदलना रह गया।
चंद गुर्गे बस विधायक , साँसद के मैाज करते
गाँव की लेकिन तरक्की का वो सपना रह गया।
2
हम भारत के भाग्य -विधाता मतदाता चिरकुट आबाद
लोकतंत्र की ऐसी -तैसी नेता जी का ज़िंदाबाद।
वो भी अपना ही भाई है मजे करै करने दे यार
तू जिस लायक़ तू वह ही कर थाम कटोरा कर फ़रियाद।
बड़े - बड़े ऊँचे महलों से पूछ रहा है मड़ईलाल
मेरा सब कुछ पराधीन है , किसका भारत है आज़ाद।
हर दल का अपना निशान है , मगर निशाना सब का एक
पहले भरो तिजोरी अपनी मुल्क -राष्ट्र फिर उसके बाद।
कफ़नचोर खा गये दलाली वीर शहीदों का ताबूत
फटहा बूट सिपाही पटकैं रक्षामंत्री ज़िंदाबाद।
सच्चाई का पहन मुखौटा ज्ञान बताने निकला झूठ
मेरी जेब कतरने वाला सिखा रहा मुझको मरजाद।
उससे क्या उम्मीद करोगे उसको बस कुर्र्सी से प्यार
जनता जाये भाड़ में वो बस अपना मतलब रखता याद।
दारू बँटने लगी मुफ़्त में लगता है आ गया चुनाव
जा जग्गू जा तू भी ले आ कहाँ मिलेगी इसके बाद।
नेताओं ने वोट के लिए बाँट दिया है पूरा मुल्क
फिर भी जिंदाबाद एकता बेमिसाल कायम सौहार्द।
3
करें विश्वास कैसे सब तेरे वादे चुनावी हैं
हक़ीक़त है यही सारे प्रलोभन इश्तहारी हैं।
हवा के साथ उड़ने का ज़रा -सा मिल गया मौक़ा
तो तिनके ये समझ बैठे वही तूफ़ान आँधी हैं।
कहाँ है वो हसीं दुनिया ग़ज़ल जिस पर बनाते हो
बहुत अच्छा कहा बेशक , मगर अश्आर बासी हैं।
सियासत की वो मंडी है वहाँ भूले से मत जाना
वही चेहरे वहाँ चलते हैं जो कुख्यात दाग़ी हैं।
न तुम कहने से बाज़ आते न हम सुनने से ऐ भाई
पता दोनों को है लेकिन सभी बातें किताबी हैं।
जवाँ बच्चे बडे़ खुश हैं मिला लैपटाप है जबसे
किताबें छोड़कर पढ़ने लगे सब पोर्नग्राफ़ी हैं।
4
राजनीति में आकर गुंडो के भी बेड़ापार हो गये
धीरे -धीरे करके जनता को भी सब स्वीकार हो गये।
लूटतंत्र में काले कौए उड़कर कहाँ से कहाँ हैं पहुँचे
बड़ी- बड़ी कुर्र्सी हथिया कर देश के खेवनहार हो गये।
ये सब फ़ितरत की बातें हैं पर हम जैसे क्या समझ्रेंगे
जिन पर था रासुका लगा वो बंदी पहरेदार हेा गये।
जनता में पैसे बँटवाकर कैसे वोट ख़रीदा जाता
बूथ लूटकर बने विधायक फिर भी इज़्ज़तदार हो गये।
बड़ी- बड़ी बातें करते थे बड़े-बडे़ मंचों से कल तक
ऐसा क्या मिल गया कि अब वो बिकने को तैयार हो गये।
उसने तो चारा डाला था मगर हमीं धोखा खा बैठे
सेाने की कँटिया में फँसकर अपने आप शिकार हो गये।
अख़बारों में नाम छपे ये किसको नहीं सुहाता भाई
चार मुफ़्त का कंबल बॉँट के लेकिन वो करतार हो गये।
पढे़-लिखे उन बच्चों को कुछ भी करने को नहीं मिला जब
तो वो मौत के सौदागर के हाथों का औज़ार हो गये।
5
इक तरफ़ हो एक नेता इक तरफ़ सौ भेड़िये
पर , पडे़गा कौन भारी सोच करके बोलिए।
खु़दबख़ुद हर चीज़ घर बैठे हुए मिल जायेगी
रामनामी ओढ़कर कंठी पहन कर देखिये।
रात भर मुँह कीजिये काला किसी का डर नहीं
दिन में फिर रंगे सियारों की तरह से घूमिये।
आज का जल्लाद है वो बात भी हँसकर करे
आप अपने हाथ से अपना गला ख़ुद रेतिये।
अब दलानों में नहीं मिलती पुरानी खाट वो
अब शहर जैसी कहानी गाँव में भी देखिये।
गाँव का तालाब फिर सूखा मिलेगा आपको
गाँव से उस व्यक्ति को फिर चुन के जाने दीजिये।
जो सियासत कर रहे हैं आइये उन से कहें
मोम की बस्ती हमारी आग से मत खेलिये।
जनता में पैसे बँटवाकर कैसे वोट ख़रीदा जाता
बूथ लूटकर बने विधायक फिर भी इज़्ज़तदार हो गये।
बड़ी- बड़ी बातें करते थे बड़े-बडे़ मंचों से कल तक
ऐसा क्या मिल गया कि अब वो बिकने को तैयार हो गये।
उसने तो चारा डाला था मगर हमीं धोखा खा बैठे
सेाने की कँटिया में फँसकर अपने आप शिकार हो गये।
अख़बारों में नाम छपे ये किसको नहीं सुहाता भाई
चार मुफ़्त का कंबल बॉँट के लेकिन वो करतार हो गये।
पढे़-लिखे उन बच्चों को कुछ भी करने को नहीं मिला जब
तो वो मौत के सौदागर के हाथों का औज़ार हो गये।
6
मगर हुआ इस बार भी वही हर कोशिश बेकार गई
दाग़ी नेता जीत गये फिर भेाली जनता हार गर्इ।
फिर चुनाव की मंडी में मतदाताओं का दाम लगा
फिर बिरादरीवाद चला एकता देश की हार गई।
कहाँ कमीशन और घूस की जाँच कराने बैठ गये
बड़े घोटालों की ही संख्या अरब खरब के पार गई।
कल टीवी पर देखा मैने कल छब्बीस जनवरी थी
लोकतंत्र था शूट -बूट में बुढ़िया पाला मार गई।
उस मजूर की नज़र से लेकिन कभी देखिये बारिश को
झड़ी लगी है आप के लिए उसकी मगर पगार गई ।
जनता ने तो चाहा था लेकिन परिवर्तन कहाँ हुआ
चेहरे केवल बदल गये , पर कहाँ भ्रष्ट सरकार गई।
डा डी एम मिश्र