गोर लागी... कन्हैया कुमार को वोट दीजिए। गुजरात से कहने आया हूं। वोट फॉर कन्हैया कुमार, अच्छा आदमी है, तीन साल से पहचानता हूं, मां की कसम''। जिग्नेस भाई का एक वीडियो अभी देखा जिसमें वे कन्हैया के लिए बेगुसराय में यही कह कर वोट मांग रहे हैं। जैसा माहौल दिख रहा है, लगता है कि दिल्ली से एक अच्छी-खासी फौज बेगुसराय निकल रही है कन्हैया के लिए। यह सकारात्मक है। कम से कम पिछली बार के मुकाबले सकारात्मक, जब पूरी दिल्ली और आधे देश के सेकुलर, प्रगतिशील लोग मोदी को हराने की अपील करने बनारस जा पहुंचे थे। सब जनता से कह रहे थे मोदी को हराइए। लोग पूछ रहे थे- फिर किसे वोट दें? और मामला गड़बड़ा जा रहा था। अंत में एकदम्मे गड़बड़ा गया। मोदी जीत गए। बाहरी आदमी जीत गया और लोकल अजय राय निपट गए। क्यों? क्योंकि तीसरा बाहरी आदमी यानी केजरीवाल बीच में टांग दे दिया था।
इस बार मैदान अलग है। फुटबॉल भी अलग है। बस, गेंद के पीछे पूरी टीम के भागने वाली हिंदुस्तानी प्रवृत्ति नहीं बदली है। 'चलो बेगुसराय' का नारा दे दिया गया है। सारे वहां जाकर जिग्नेस की तरह एक लोकल को जिताने की बात करेंगे। बाकी प्रत्याशी भी लोकल ही हैं। यह पहला संकट है। 2014 से समानता बस एक है- जिताने की अपील करने वाले बाहरी हैं। यह दूसरा संकट है। जिग्नेस के चुनाव में यही हुआ था। सब गुजरात पहुंच गए थे लेकिन किसी को गांववालों से संवाद करने नहीं आ रहा था। वो तो गनीमत है कि राहुल गांधी की दी हुई बनी-बनाई सीट रही जो जिग्नेस निकल गए।
देश भर में कई 'अच्छे आदमी' खड़े हैं। इनमें वाम दलों के भी पर्याप्त प्रत्याशी हैं। कोई कहीं भी जा सकता है प्रचार करने। पलामू जाइए, कोडरमा जाइए, केरल जाइए, बंगाल जाइए, एक नहीं दस वामपंथियों को जितवाइए। लेकिन नहीं, जाएंगे तो बेगुसराय। इन्हें 'अच्छे आदमी' से नहीं, 'अपने आदमी' से मतलब है जिन्हें कुछ साल से जानने का दावा करने के लिए ये मां कसम खा लेंगे। अजीब हास्यास्पद है। चुनाव हो रहा है कि मोहल्ला टीम के लिए गोइयां बटोरे जा रहे हैं। कि कल संसद में मिल बैठेंगे अपन दोस्त दो-चार, गप सड़ाका करेंगे। अकेले में मन नहीं लगता। मां कसम। मुझे डर है कि जैसे ये सब मोदी को हरवाते हरवाते जितवा दिए वैसे ही कन्हैया को जितवाते जितवाते हरवा न दें।