आलोक सिह
'मनरेगा' यानी महात्मा गांधी रोजगार गारंटी कानून योजना को हम सब मोटे तौर पर मजदूरों को रोजगार देने वाली योजना के रूप में जानते हैं। लेकिन बिहार में मैं 'मनरेगा' को मजदूरों के नाम पर लूट की योजना कहना चाहूंगा। आपको यह अटपटा लग सकता है लेकिन सच्चाई यही है। आप पूछ सकते हैं कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं तो मैं ग्राउंड रियल्टी देख रहा हूं क्योंकि अभी गांव में हूं।
मनरेगा में मचे भयंकर लूट को लेकर जब मेरी बात एक ठेकेदार से हुई तो उसने कई चौंकाने वाली बात बताई। उसने बताया कि मनरेगा योजना के तहत काम पूरा करने का टेंशन नहीं बल्कि कमीशन पहुंचाने का सबसे बड़ा टेंशन होता है। जब मैं जानना चाहा कि कितना कमीशन जाता है तो उसने बताया कि अगर 1 लाख रुपये का कोई काम मनरेगा के तहत आता है तो कम से कम 30 हजार रुपये कमीशन देना होता है। यानी कमीशन का स्लैब 30% है।
मैंने पूछा कि किस-किस को कमीशन जाता है तो उसने बताया कि मनरेगा की इस लूट में पंचयात का मुखिया से लेकर, ब्लॉक के ऑफिसर, काम को सुपरविजन करने वाला इंजीनियर, जिला के ऑफिसर और कुछ हद तक मजदूर भी शामिल हैं। कमीशन के स्लैब को समझाते हुए ठेकेदार ने बताया कि जूनियर इंजीनियर जो काम का सुपरविजन करता है उसे 6% फीसदी कमीशन जाता है। इसी तरह मुखिया से लेकर अधिकारी को अलग-अलग स्लैब में कमीशन पहुंचाया जाता है। मनरेगा में प्रोजेक्ट जमीन पर नहीं बल्कि कागजों में ज्यादा पूरा करना होता है।
मेरा सवाल था कि मनरेगा के तहत काम का पैसा तो सीधे मजदूरों के बैंक खाते में जाता है तो फिर यह कमीशन और घोटला करना कैसे संभव है तो ठेकेदार ने बताया कि इसमें मजदूरों की भी मिली भगत है। पंचायत का मुखिया वैसे मजदूर को ठेके के काम में नाम देते हैं जिसके खाते में पैसा आए तो वह कुछ रकम रखकर सारा पैसा वापस कर दें। वह मजदूर गांव में हो या नहीं उससे फर्क नहीं पड़ता। अगर मजदूर की पत्नी गांव में है तो उसके पति का नाम भी दे दिया जाता है मैंने पूछा की अगर मजदूर पैसा नहीं लौटाया तो उसने बताया कि इस तरह के मामले आते हैं लेकिन बहुत कम। जो मजदूर पैसा देने में आनकानी या मना करता है उसे हम अगले काम में शामिल नहीं करते हैं। मजदूर को भी बिना काम किए कुछ पैसा मिल जाता है। यह सब पंचायत का मुखिया को सेट करना होता।