सोशल मीडिया पर वायरल खबर का पोस्टमार्टम : एक प्रोफेसर को सैलरी मिल रही है पर पढ़ाने के लिए छात्र नहीं हैं और यह 'खबर' नहीं है
पढ़ाया नहीं इसलिए सैलरी लौटाने वाले प्रोफेसर ने माफी मांग ली है। आइए, संबंधित खबर का पोस्टमॉर्टम करें और समझें कि क्या से क्या हो गया। अखाबर राजनीतिक मामलों में तो जानते-समझते और विज्ञापन के लिए, प्रचारकों की सलाह पर यह सब करते होंगे पर उसका असर आम खबरों पर भी पड़ रहा है। एक अच्छी भली खबर सनसनी बनकर रह गई। मुद्दा कहीं अलग रह गया। जो मुद्दा नहीं था वही चर्चा में है।
दैनिक भास्कर अच्छे और बड़े अखबारों में है। मुजफ्फरपुर डेटलाइन से बाईलाइन वाली यह खबर दैनिक भास्कर में ही छपी थी और फिर सोशल मीडिया में उसकी चर्चा रही। छह जुलाई को खबर छपी, सात जुलाई को पता चल गया कि खाते में पैसे नहीं है और आठ जुलाई को उनने माफी मांग ली। जाहिर है, खबर लिखने छापने वालों को अंदाजा नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं और उन्हें किन बातों की जांच या पुष्टि करनी चाहिए। मैं अंदाजा नहीं था इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि होता तो यह बहुत मामूली काम था। वैसे भी, खबर छपने वाले दिन ही जांच हो गई और खबर गलत या निराधार साबित हो गई।
खबर जिसकी थी उसकी बात बाद में - खबर लिखने और छापने वालों की जिम्मेदारी थी कि वे इसकी पुष्टि करते जो नहीं की गई थी। बात इतनी ही नहीं है। 'भास्कर खास' - बताकर प्रकाशित की गई खबर में यह भी कहा गया था कि गांधी के बताए ज्ञान और अंतरात्मा की आवाज पर प्रोफेसर ने यह कदम उठाया है। इस तथ्य की भी जांच की जानी चाहिए थी अंतरात्मा की आवाज पर कदम उठाने लायक आर्थिक स्थिति है कि नहीं और है तो कैसे-कैसी-कितनी। दरअसल इस खबर का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी था जो खबर में है ही नहीं। खबर में एक और मुद्दा हाइलाइट किया गया है, शिक्षक ऐसे ही सैलरी लेते रहे तो 5 साल में उनकी ऐकेडमिक डेथ हो जाएगी। इससे भी यह सवाल उठता है कि क्या वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे। अगर ऐसे व्यक्ति और भी हैं तो उनकी स्थिति क्या है। खबर उस पर भी होनी चाहिए।
बिहार में कालेजों में पढ़ाई, शिक्षकों की उपस्थिति आदि का मामला ऐसा नहीं है कि क्लास नहीं लिया इसलिए एक ही व्यक्ति सैलरी लौटाए। बाकी लोग क्या सोचते हैं, क्यों नहीं लौटा रहे हैं और ऐकेडमिक डेथ के लिए तैयार हैं या जानते ही नहीं हैं - यह सब खबर का मुद्दा था। अगर ट्रांसफर या क्लास में बच्चे नहीं होने की बात सुनी गई होती तो प्रोफेसर को अपना मामला प्रकाश में लाने के लिए यह सब करना ही नहीं पड़ता। जाहिर है, प्रोफेसर ने जानबूझकर या भावावेश में अखबार और अखबार वालों का उपयोग किया है और अखबार ने आसानी से अपना उपयोग होने दिया।
निश्चित रूप से यह अखबार की विश्वसनीयता का मामला है और पाठक के साथ धोखा। अखबार के रिपोर्टर, संपादक अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह अलग रहे। 23 लाख की राशि कोई मामूली नहीं है, सेविंग बैंक में कोई इतने पैसे रखता नहीं है तो पहला सवाल यही उठता था कि खाते में पैसे हैं और इसी से खबर नहीं छपती। खबर छापकर अखबार ने प्रोफेसर साहब जो चाहते थे उसमें उनकी सहायता की। माफी प्रोफेसर साब ने मांगी है अखबार को क्यों नहीं मांगना चाहिए। खाते में पैसे न हों और चेक क्लियरिंग के लिए आ जाए तो बैंक चेक राशि के अनुपात में शुल्क काटता है। एक मामले में वह 9000 पर 250 रुपए था। ऐसे में 23 लाख रुपए पर अच्छी खासी राशि होगी। इसमें जीएसटी भी है जो सरकारी राजस्व है। तकनीकी रूप से यह अपराध भी है। क्या प्रोफेसर साब को इसकी जानकारी थी?
खबर में लिखा है, डॉ. ललन ने कुलसचिव डॉ. आरके ठाकुर को चेक सौंपा तो उन्होंने लेने से इनकार किया, नौकरी छोड़ने को कहा लेकिन डॉ. ललन की जिद के आगे झुकना पड़ा। मुझे लगता है कि कुलसचिव का यह काम नहीं है, नौकरी छोड़ने की सलाह देना भी अलग ही ज्यादती है और फिर बिना पूछे कि खाते में पैसे हैं कि नहीं और चेक वे किस मद में जमा करेंगे और उसके बिना चेक लेने का कोई मतलब नहीं है जैसे सवाल कुलसचिव ने नहीं सोचे यह भी अटपटा है। चेक बैक में जमा करने की जगह अखबार में खबर देकर उन्होंने बैंक को नुकसान पहुंचाया है या प्रोफेसर साब के हजारों रुपये बचा दिए हैं।
रिपोर्टर को लिखने के लिए नहीं, मामले को समझने के लिए कुलसचिव से बात करनी चाहिए थी और एक गंभीर मुद्दे पर थी, 23 लाख रुपए का सवाल था इसलिए चलताऊ नहीं हो सकती थी। गंभीरता से बात होती तो मामला समझ में आ जाता। तब वो छपता जो खबर है। अभी तो सनसनी छपी है। अखबारों में टीआरपी के लिए ब्रेकिंग न्यूज और सनसनी फैलाने का रिवाज नहीं है। यह एक गलत परंपरा की शुरुआत हो रही है और इसे शुरू में ही कुचल दिया जाना चाहिए।
लगता नहीं है किसी का ध्यान इसपर है। लोग प्रोफेसर को ही दोषी ठहरा रहे हैं। प्रोफेसर के खिलाफ कार्रवाई विश्वविद्यालय को करने दीजिए। उसकी खबर दे दीजिएगा लेकिन उससे जरूरी है अपना घर संभालना। अपनी व्यवस्था दुरुस्त करना। अखबार का काम नहीं है कि किसी के बैंक खाते का पूरा विवरण छाप दे। ना इसकी जरूरत है। पर आज एक दूसरे अखबार ने यह काम किया है। इसमें कोई जनहित नहीं है – तब भी। जरूरत इस बात है की है कि किसी पर उंगली उठाने से पहले अखबार अपनी व्यवस्था दुरुस्त करें। अखबारों की हालत राजनीतिक खबरों के मामले में ही खराब नहीं है – पूरी व्यवस्था ही लचर है।
अखबार में सिर्फ रिपोर्टर की लिखी खबर नहीं छपती है। अखबार में छपने वाली हर चीज पर कई लोगों की नजर रहती है। रहनी चाहिए। खबर छपने से पहले ब्यूरो प्रमुख या मुख्य संवाददाता खबरों की ऐसी औपचारिक जांच करता है और तब वह डेस्क पर जाती है। डेस्क पर लोग तमाम सवालों से संतुष्ट होने पर ही खबर छापते हैं। वरना खबर रोक ली जानी चाहिए। मुझे लगता है कि यह खबर पहले ही दरवाजे पर रुक जानी चाहिए थी। और खबर छात्रों की उपस्थिति और प्रोफेसर ललन की शिकायत पर होनी चाहिए थी जो पत्रकारिता होती। अभी तो अखबार ने प्रो ललन के प्रचारक का काम किया है जो बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है। उन्हें मुश्किल में फंसा दिया सो अलग। अपनी जिम्मेदारी निभाते तो प्रो. ललन बच जाते।
इस पूरे विवाद में यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रोफेसर ललन ऐसे कॉलेज में तबादला चाहते हैं जहां वे पढ़ा सकें। यह कोई अनुचित या विशेष मांग नहीं है। अखबारों ने इसपर पहले ध्यान नहीं दिया इसलिए संभव है उन्हें यह सब करना पड़ा हो ताकि उनकी बात सुनी जाए। इसके लिए अपना गया तरीका भी कोई गलत नहीं है और खाते में पैसे न होने की आड़ में मूल मुद्दा गोल नहीं होना चाहिए। पर क्या बिहार में कोई उस मूल मुद्दे पर खबर करेगा? जनहित की पत्रकारिता तो यही होती है पर जरूरत तो सनसनी की है।