छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगल को लेकर आदिवासी समुदाय में रोष, धरना प्रदर्शन करने दिल्ली पहुंचे आदिवासी
"जंगल से निकलने वाले छोटे-छोटे बारहमासी नाले हैं उससे होने वाली खेती है जंगल कटने से छोटे-छोटे नाले ख़त्म हो जाएंगे, ये नाले आगे जाकर हसदेव नदी में मिलते हैं, वो ख़त्म हो जाएगा, तो ये वो तमाम नुकसान हैं जो सीधे तौर पर आदिवासियों को होंगे।"
हसदेव अरण्य, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा से लगा वो हरा-भरा जंगल है जिसे इस इलाक़े का फेफड़ा कहा जाता है। ये इलाक़ा सदियों से रहने वाले आदिवासियों का घर है और इसी को बचाने की गुहार लिए 'हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति' से जुड़े उमेश्वर सिंह आरमो दिल्ली पहुंचे, वे बताते हैं, "हम लोगों का इलाक़ा आदिवासी बहुल है। वहां पशुपालन, कृषि, लघु उद्योग सब होता है और जो खनन कार्य हो रहा है उसमें सारे जंगल को हटाया जाएगा, मिट्टी को पलटा जाएगा और कोयला निकाला जाएगा जिसकी वजह से जो हमारे लघु उद्योग हैं वो पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे और उसपर आश्रित हमारे लोगों पर प्रभाव पड़ेगा, हमारे जंगल में जड़ी-बूटियां हैं और बहुत से परिवार हर दिन होने वाले कार्यों में इनका इस्तेमाल करते हैं और जंगल हटने वो सब ख़त्म हो जाएगा।"
वे आगे बताते हैं कि "जंगल से निकलने वाले छोटे-छोटे बारहमासी नाले हैं उससे होने वाली खेती है जंगल कटने से छोटे-छोटे नाले ख़त्म हो जाएंगे, ये नाले आगे जाकर हसदेव नदी में मिलते हैं, वो ख़त्म हो जाएगा, तो ये वो तमाम नुकसान हैं जो सीधे तौर पर आदिवासियों को होंगे।"
हमारे ये पूछने पर कि उनका परिवार यहां कितनी पीढ़ियों से रहता आया है, उन्होंने कहा, "हमारी जानकारी के मुताबिक हम 300 सालों से उस क्षेत्र में रह रहे हैं, अगर जंगल कटता है तो विस्थापन होगा और विस्थापित होने के बाद एक आदिवासी जो जंगल से जुड़ा है उसे दोबारा वैसा ही माहौल मिलना बहुत मुश्किल है, ख़ासकर महिलाओं के लिए, जो जंगलों से जुड़े काम करती हैं वो नहीं कर पाएंगी।"
"ये लड़ाई सिर्फ हमारी नहीं है, पर्यावरण बर्बाद होगा तो सभी को भुगतना होगा"
"हम दिल्ली आए हैं हसदेव का संघर्ष साझा करने जिसके लिए हम लड़ रहे हैं। हम बताने आए हैं कि हसदेव में जो कोयला है वो पूरे देश में पाए जाने वाले कोयले का 2 प्रतिशत है, तो आप उस 2 प्रतिशत को छोड़कर वहां से कोयला निकाल लें जहां कम से कम नुकसान हो तो वो बेहतर होगा, इतना समृद्ध जंगल जिसे आप ख़त्म कर रहे हैं उससे बहुत नुकसान हो जाएगा और उससे मानव और जीव-जंतुओं का नुकसान होगा। ये लड़ाई सिर्फ हमारी नहीं है। अगर इसका ध्यान नहीं रखा गया तो आगे चलकर सबका नुकसान होगा पर्यावरण बर्बाद होगा जिसे सभी को भुगतना होगा।"
हसदेव के लिए दिल्ली में पब्लिक मीटिंग
हसदेव के लिए संघर्ष कर रहे लोग ऐसा नहीं है कि पहली बार अपनी अपील लेकर दिल्ली पहुंचे हो वो समय-समय पर दिल्ली में दस्तक देते रहे हैं। साल के शुरुआत में 2 जनवरी 2024 को 'प्राकृतिक संसाधनों की कॉरपोरेट लूट को बंद करो' की मांग को लेकर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक पब्लिक मीटिंग रखी गई जिसमें हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के उमेश्वर सिंह आरमो, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े आलोक शुक्ला, पर्यावरण कार्यकर्ता प्रफुल्ल सामंतरे, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वकील सुदीप श्रीवास्तव, सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता, दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, राजस्थान के एमएलए थावर चंद मीणा ने हिस्सा लिया।
"ये इलाक़ा संविधान की पांचवी अनुसूची में आता है"
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस और पब्लिक मीटिंग में, छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के हसदेव अरण्य के जंगलों में 21, 22 और 23 दिसंबर, 2023 को भारी पुलिस सुरक्षा के बीच हज़ारों पेड़ों की कटाई और आदिवासी प्रदर्शनकारियों की गिरफ़्तारी और 'दमन' की बात रखी गई।
मीटिंग के दौरान 'छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन' से जुड़े आलोक शुक्ला ने अपनी बात रखते हुए कहा, "हसदेव सिर्फ छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि मध्य भारत का बहुत ही समृद्ध प्राकृतिक इलाक़ा है। लगभग 1876 वर्ग किलोमीटर का ये एरिया है। जिस जंगल से निकलकर हसदेव नदी जाती है, उस पर बने मिनी माता बांगो बांध से चार जिलों की चार लाख हेक्टेयर ज़मीन सिंचित होती है। ये पूरा जंगल का इलाक़ा बहुत महत्वपूर्ण है, वन्यजीव और हाथियों के रहवास है। सबसे महत्वपूर्ण आदिवासियों की आजीविका, संस्कृति इस जंगल पर निर्भर है। पिछले 10 सालों से हसदेव के साथी उस जंगल को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि जंगल के नीचे कोयला है। हम जानते हैं कि जहां खनिज हैं उसकी परिभाषा पूरी बदल जाती है। उस इलाक़े में 22 कोल ब्लाक हैं। एक कॉरपोरेट के मुनाफे के लिए पूरे इलाक़े को तबाह करने की कोशिश की जा रही है। इससे महत्वपूर्ण है कि वो इलाक़ा संविधान की पांचवी अनुसूची का इलाक़ा है जहां पर आदिवासी इलाकों में ग्राम सभाओं को विशेष अधिकार है ( पेसा क़ानून के तहत) कि ग्राम सभाओं की सहमति के बिना कोई भी परियोजना स्थापित नहीं हो सकती चाहे वो भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया हो या वन भूमि के डायवर्ज़न की।"
"ये जंगल हमारी आजीविका, संस्कृति का स्रोत है"
आलोक शुक्ला कहते हैं, "हम जानते हैं कि जब कोलगेट हुआ था तो 204 देश के कोल ब्लॉक निरस्त हुए थे, हसदेव के भी कोल ब्लॉक निरस्त हुए और जब उनके पुन: आवंटन की प्रक्रिया हुई तो हसदेव की 20 ग्राम सभाओं ने उस समय प्रस्ताव दिए थे कि हसदेव में हम खनन नहीं चाहते। ये जंगल हमारी आजीविका, संस्कृति का स्रोत है। पर्यावरण का विनाश होगा इसलिए यहां कोल ब्लॉक के आवंटन न हो, लेकिन ग्राम सभाओं के विरोध के बावजूद वहां 7 कोल ब्लॉक के आवंटन किए गए और आवंटन करने के बाद जो कोल ब्लॉक हैं वो राज्य की कंपनियों को आवंटित हुए और राज्य सरकारों ने MDO ( माइन डेवलपर ऑपरेटर) बनाकर एक समूह को पिछले दरवाज़े से उसे मालिक बना दिया। हालत ये है कि आवंटन होने के बाद ग्राम सभाओं के सतत विरोध के बावजूद भी फ़र्ज़ी ग्राम सभाओं के आधार पर ग्राम सभाओं को दरकिनार करके स्वीकृतियां हासिल की गई। ग्राम सभा लगातार इस बात को कह रही हैं कि हमने कभी भी विधिवत कोई ग्राम सभा में सहमति नहीं दी है लेकिन हसदेव के उस जंगल में कहीं न कहीं कॉरपोरेट के दबाव के सामने राज्य और केंद्र सरकार दोनों मिलकर बिना प्रक्रिया के आगे बढ़ रही हैं।"
हज़ारों पेड़ों को काट दिया गया
शुक्ला बताते हैं, "हाल ही का जो घटना क्रम है उसमें राजस्थान को चार कोल ब्लॉक आवंटित हैं जिसके MDO एक कॉरपोरेट घराने के पास हैं उसमें एक कोल ब्लॉक है - परसा ईस्ट केते बासन। इन चार कोल ब्लॉक में लगभग साढ़े पांच हज़ार हेक्टेयर जंगल और 8 लाख के आस-पास पेड़ पूरे कटने हैं, अभी उसमें से एक कोल ब्लॉक चालू है - परसा ईस्ट केते बासन - जिसका सेकंड फेज़ आगे बढ़ा और 21, 22, 23 दिसंबर को लगभग 91 हेक्टेयर में 15 हज़ार ऑफिशियल पेड़ काटे गए लेकिन नंबर उससे ज़्यादा है। लगभग 30 हज़ार पेड़ों को काटा गया और उस प्रक्रिया में वहां राज्य सरकार की जिस तरह से जो भूमिका थी, वो दुखद है। गांव को बंधक बनाते हुए और आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हुए वहां पर पेड़ों की कटाई हुई है।"
हसदेव के लिए 300 किलोमीटर की पैदल यात्रा
"2021 में हसदेव के लोग 300 किलोमीटर पैदल चलकर रायपुर आए थे और कहा था कि हमारी ग्राम सभाओं की सहमति नहीं हुई है और जो फ़र्ज़ी आधार पर प्रक्रिया चल रही है उसको निरस्त किया जाए, छत्तीसगढ़ के गवर्नर ने पत्र लिखा और कहा कि 'हां, ये ग़लत हुआ है और इसकी जांच की जाए' और उन्होंने ये भी कहा कि परसा कोल ब्लाक में कोई भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए लेकिन इन सारी प्रक्रिया को दरकिनार करते हुए जंगल को काटने की प्रक्रिया पिछले दिनों में हुई और आने वाले दिनों में दोबारा भी होने वाली है।"
रिपोर्ट को ताक पर रखकर खनन?
आलोक शुक्ला गंभीर आरोप लगाते हैं कि भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट को ताक पर रखते हुए खनन किया जा रहा है। वह कहते हैं, "हसदेव में जब पिछली सरकार थी तो पूरे संघर्ष के दरम्यान हसदेव के बड़े इलाक़े - 2 हज़ार वर्ग किलोमीटर - को रिजर्व बनाया गया और वो इलाक़ा कहीं न कहीं पिछली सरकार के समय सुरक्षित हुआ है। लेकिन वर्तमान समय में वो भी बचेंगे कि नहीं ये भी एक संकट है, लेकिन उसके बाहर के जो चार कोल ब्लॉक हैं जिसकी प्रक्रिया अभी चल रही है, वहां पर सरकार के दो बड़े निर्णय थे। एक निर्णय ये था कि छत्तीसगढ़ की विधानसभा ने सर्वसमति से 26 जुलाई 2022 में एक प्रस्ताव किया था कि हसदेव महत्वपूर्ण पर्यावरणीय संवेदनशील इलाक़ा है। यहां कोई खनन नहीं होना चाहिए और सारे कोल ब्लॉक निरस्त किए जाएं और उसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में ये एफिडेविट भी गया था कि हसदेव में खनन राज्य के हित में नहीं है और अंतिम में एक डिटेल भारतीय वन्य जीव संस्थान जो कि केंद्र का एक संस्थान है उसने पूरे हसदेव का अध्ययन किया और रिपोर्ट में कहा कि हसदेव में खनन नहीं होना चाहिए यदि खनन होगा तो हसदेव नदी ख़त्म हो जाएगी और मानव-हाथी संघर्ष इतना व्यापक हो जाएगा कि राज्य सरकार इसको कभी संभाल नहीं पाएगी। दुखद रूप से कहना पड़ेगा कि भारतीय वन्य जीवन संस्थान की रिपोर्ट दरकिनार करके, पर्यावरणीय चिंताओ से परे जाकर, आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को कुचल कर हसदेव के विनाश की प्रक्रिया जारी है और तमाम नियमों और क़ानून की छज्जियां उड़ाई जा रही है। ये दुखद है, ये तमाम मुद्दे लेकर हम आपके सामने आए हैं ताकि पूरे देश तक ये बात जाए कि देश का महत्वपूर्ण समृद्ध इलाक़ा का कोयले की ज़रूरत के लिए नहीं कॉरपोरेट के मुनाफे के लिए विनाश हो रहा है।"
"हम लोग 670 दिनों से धरने पर बैठे हैं"
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के उमेश्वर सिंह आरमो ने भी अपनी बात रखी और कहा कि "हसदेव जहां जंगलों का विनाश किया जा रहा है, वही मेरा क्षेत्र है, मेरा गांव है, मैं वहीं से आया हूं। हमारे क्षेत्र में हम ग्राम सभा करते हैं कि हमें खदान को देना है या नहीं देना है, और प्रस्ताव करने के बाद भी सरकार उसको नहीं मान रही है और फ़र्ज़ी ग्राम सभा करवाकर खदान की स्वीकृति दिला रहे हैं। हम लोग 670 दिनों से धरना पर बैठे हैं और कह रहे हैं कि कम से कम संवैधानिक रूप से हमें हमारे जंगल को बचाने का अधिकार इसलिए हम कोई प्रस्ताव दे रहे हैं, तो उस पर अमल करो लेकिन सरकार अमल नहीं कर रही है।"
"कटाई के वक़्त गांव छावनी में तब्दील"
आरमो के मुताबिक जिस दिन जंगल में पेड़ों की कटाई शुरू की गई उस दिन पुलिस ने गांव को छावनी में तब्दील कर दिया। वे बताते हैं कि "अभी जो पेड़ कटे उसमें हमारे 7 साथियों को जो हसदेव की लड़ाई लड़ रहे हैं जिनमें दो सरपंच भी हैं, इन लोगों के घर पुलिस रात साढ़े तीन बजे जाती है और पूरे घर को घेर लेती है। क़रीब 15 से 20 पुलिसकर्मी प्रत्येक घर में आवाज़ लगाते हैं और जैसे ही वो बाहर आते हैं उन्हें उसी स्थिति में पकड़ कर ले जाते हैं और पूरे दिन थाने में बैठाकर रखते हैं और पेड़ काटे जाते हैं। ऐसी सर्दी में कईयों ने चप्पल भी नहीं पहनी थी और पुलिस उन्हें उसी हालत में ले गई, तो इस तरह से हमारे साथी जो हसदेव के लिए लड़ रहे हैं उनके साथ पुलिस प्रशासन बर्बरतापूर्वक व्यवहार कर रहा। हम 10 साल से लड़ाई लड़ रहे हैं हम आदिवासी हैं, जंगल के क्षेत्र में हम रहते हैं।"
फ़र्ज़ी FIR दर्ज करने का आरोप
आरमो पुलिस पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, "हम भी क़ानून से चलते हैं। हमारे यहां भी संवैधानिक क़ानून है। हम भी विकास को समझते हैं, लेकिन हमारे साथ बर्बरता की जाती है, पुलिस के द्वारा अन्याय किया जाता है। कई साथियों के ऊपर फ़र्ज़ी FIR करी है। हसदेव के बचाने वाले जो साथी हैं, जब कभी भी ऐसी स्थिति आती है कि पेड़ कटने हैं, तो उनके घर में पुलिस की टीम पहुंचती है और कहती है कि आपके ऊपर FIR दर्ज है आपको सीधे जेल में डालेंगे। हर समय धमकाने का काम होता रहता है।"
उजड़ जाएगा जीव-जंतुओं का घर
आरमो कहते हैं, "हम लगातार अपील कर रहे हैं कि हमारे साथ अन्याय न हो। हसदेव का जो इलाक़ा है वो जीव जंतुओं, आदिवासियों के रहवास का क्षेत्र है। हसदेव नदी का कैचमेंट एरिया (Catchment Area) है उसे ख़त्म न किया जाए। अगर हम हसदेव को नहीं बचाएंगे तो आगे जो भविष्य होगा बहुत नुकसान होने वाला है। हमारे संवैधानिक अधिकारों का पालन नहीं किया जा रहा है, पांचवी अनुसूची का पालन नहीं किया जा रहा है, आदिवासियों के ऊपर अत्याचार किया जा रहा है जीव-जंतुओं के रहवास को ख़त्म किया जा रहा है।"
NO GO एरिया में खनन कैसे? : प्रशांत भूषण
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि "यहां केंद्र सरकार, राजस्थान सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार तीनों ही इसमें शामिल हैं, क्योंकि केंद्र सरकार फॉरेस्ट क्लीयरेंस देती है, एनवायरमेंट क्लीयरेंस देती है। इसमें माइनिंग लीज राजस्थान ऊर्जा विद्युत निगम को दी गई जो कि एक राजस्थान सरकार की संस्था है और माइनिंग होनी है छत्तीसगढ़ के अंदर, तो इसमें तीनों सरकार शामिल हैं। अगर आप देखें तो माइनिंग की इजाजत देने से यहां कितने सारे कानूनों का उल्लंघन हो रहा है। सबसे पहले तो ये जो हसदेव अरण्य फोरेस्ट है उसको दो बार अलग-अलग सरकारों ने 'नो गो इनवॉयलेट' फोरेस्ट एरिया घोषित किया है और उसका आधार ये था कि जहां पर भी फोरेस्ट ऐसे हैं जिनकी क्राउन डेंनसिटी 50% से ज़्यादा हो यानि अगर आप ऊपर से देंखे तो 50% से ज़्यादा एरिया पेड़ों से या पेड़ों की छांव से ढका हुआ है तो उसको 'नो गो' घोषित किया जाता था कि यहां पर 'नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी' की अनुमति नहीं दी जाएगी। लेकिन इसके बावजूद भी केंद्र सरकार ने फोरेस्ट क्लीयरेंस दे दी। पहले भी उसको नेशनल ग्रीन ट्रब्यूनल ने रद्द कर दिया था और बोला कि इन सवालों का जवाब दीजिए कि यहां पर फोरेस्ट, वाइल्ड लाइफ और नदियों पर क्या असर पड़ेगा। ये सब देखकर फिर आप तय कीजिए और फिर बहुत सालों तक इन्होंने कुछ नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट में ये केस पेंडिंग था। उन लोगों ने NGT के खिलाफ अपील की हुई थी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट को ये बताया गया कि इन लोगों ने दो संस्थाओं से बोला कि तुम स्टडी करके बताओ। एक ICFRE (Indian Council of Forestry Research and Education) और एक Wildlife Institute of India, दोनों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट्स दी। Wildlife Institute ने तो बिल्कुल साफ कह दिया कि यहां हर तरह का नुकसान होगा और माइनिंग की इजाजत नहीं होनी चाहिए। ICFRE ने गोल-मोल कुछ बोल दिया लेकिन आख़िर में बोल दिया कि इजाजत दी जा सकती है और उसके आधार पर बग़ैर कुछ विचार किए केंद्र सरकार की फॉरेस्ट एडवाइज़री काउंसिल ने बोल दिया कि यहां खदानों के लिए इजाजत दे दी जाए।"
"शांतिपूर्वक विरोध को भी रोका जा रहा है"
इसके अलावा प्रशांत भूषण ने कहा, "जैसे आपको बताया गया कि एक तरफ तो सारे आदिवासी समाज के अधिकारों का हनन हो रहा है। ग्राम सभाएं कराई नहीं गईं, फ़र्ज़ी ग्राम सभाएं कराई गईं, दूसरी तरफ जब वे शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे तो उन्हें रोक दिया गया और लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया और वहां पुलिस वाले भेज दिए गए ताकि पेड़ काटे जा सकें।
प्रशांत भूषण ने आगे कहा कि "ये सब मामले सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसकी सुनवाई नहीं हो रही और इस बीच में ये जंगल काटे चले जा रहे हैं। इस तरह आदिवासियों के हक को छीनना, उनको शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने से रोकना ठीक नहीं है। ज़रूरी है कि सारे देश को इनके साथ खड़ा होना चाहिए। देश का पर्यावरण इस तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता।"
"हसदेव में कोयला खोदने की लागत थोड़ी कम है, कोयला ऊपर है"
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वकील सुदीप श्रीवास्तव ने कहा कि "2012 में इसके फॉरेस्ट क्लीयरेंस को मैंने NGT में चैलेंज किया था। 9 कोल फील्ड में जिन 602 कोल ब्लॉक का अध्ययन हुआ था, उसमें हसदेव अकेली ऐसी कोल फील्ड थी जो 100 फीसदी 'नो गो' थी। मतलब एक कोल फील्ड में एक से अधिक कोल ब्लॉक होते हैं तो बाकी 8 कोल फील्ड में कुछ ब्लॉक 'गो' और कुछ ब्लॉक 'नो गो' पाए गए। हसदेव एक अकेली ऐसी कोल फील्ड थी जो 100 फीसदी 'नो गो' थी। चैलेंज करने के बाद 2014 में NGT का जजमेंट आया और उन्होंने मेरी अपील को स्वीकार करते हुए माइनिंग रोक दी और आदेश दिया कि इसका अध्ययन किया जाए।"
सुदीप कहते हैं, "तभी सरकार बदली और कोई स्टडी नहीं की गई। हालांकि खनन भी बंद रहा लेकिन अब ये सब हो रहा है। हसदेव में 2% कोयला है, छत्तीसगढ़ में देश का केवल 18% कोयला है, छत्तीसगढ़ में 200 ब्लॉक और हैं लेकिन उनकी नज़र हसदेव पर है क्योंकि हसदेव में कोयला खोदने की लागत थोड़ी कम है, कोयला ऊपर है।"
"विस्थापित लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती"
पर्यावरण कार्यकर्ता प्रफुल्ल सामंतरे ने भी अपनी बात रखी। उन्होंने कहा, "देश में संविधान है, क़ानून है। आदिवासी और दलितों के लिए जहां जंगल है वहीं उनकी आजीविका है। जहां माइनिंग होती है 10 साल के बाद वहां एक नया ग़रीबी का क्षेत्र बन जाता है, ऐसे में कंपनियां मालामाल होती हैं। राजनीतिक पार्टियों को लाभ होता है लेकिन वहां का जो स्थानीय है चाहे वो आदिवासी हो, दलित हो या किसान हो वो बेघर हो जाते हैं और विस्थापित होकर वे कहां जाते हैं देश में उनका पता नहीं मिलता, न भारत सरकार के पास, न राज्य सरकारों के पास। जहां माइनिंग होती है उसका खेती पर क्या असर पड़ता है इसका आकलन नहीं होता। आजीविका पर क्या असर होता है, उसका भी अध्ययन नहीं होता, कोई डिबेट नहीं होती।"
हर किसी ने अपनी बात रखी और सबसे आख़िर में दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने एक बहुत ही अहम सवाल उठाया कि जितने भी आदिवासी बहुल राज्य हैं चाहे वो छत्तीसगढ़ हो या फिर उड़ीसा या झारखंड, यहां विकास के नाम पर जो शानदार सड़कें बनाई जा रही हैं आख़िर वो कहां जाती हैं? वो किसके लिए है, क्योंकि जिस तेज़ी से सड़क बनती हैं, उतनी ही तेज़ी से स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल आदि बनते दिखाई क्यों नहीं देते? तो आख़िर ये कैसा विकास है जो स्थानीय लोगों के संसाधनों का तो इस्तेमाल कर रहा है लेकिन उन तक नहीं पहुंच पा रहा है?
लेखिका नजमा खान साभार न्यूज क्लिक