पिछड़ी हुई हिंदी आलोचना बनाम हिंदी वैचारिकी
यह बात पहले भी कही जाती रही है कि हिंदी आलोचना की स्थिति दयनीय है। लेकिन इस आरोप का दायरा रचनात्मक साहित्य की अच्छी समीक्षाएं नहीं आने तक ही सीमित रहा है। प्रमोद रंजन अपने इस आलेख में बताते हैं कि किस प्रकार हिंदी आलोचना की अकर्मण्यता सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता तक पहुंचाने में सहायक हुई। साथ ही वे प्रस्तावित करते हैं कि ‘हिंदी आलोचना’ जैसे कम प्रासंगिक अनुशासन की जगह ‘हिंदी वैचारिकी’ के नाम से अधिक समावेशी अनुशासन को विकसित और स्वीकृत किया जाना चाहिए। इससे उस साहित्येत्तर लेखन को भी प्रतिष्ठा मिल सकेगी, जो समाज और राजनीति को दिशा में देने में सक्षम है।
प्रमोद रंजन
भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक व प्रतिक्रियावादी ताकतों को सत्ता तक पहुंचाने में हिंदी पट्टी का सबसे बड़ा योगदान है। इसका मुख्य कारण हिंदी-पट्टी में कार्यरत समाजवादी व जनपक्षधर हिरावल दस्ते का विचारहीन, अनैतिक और प्रतिक्रियावादी होते जाना है। अगर हम उपरोक्त बातों को स्वीकार करते हैं, तो कुछ रोचक निष्कर्ष निकलते हैं।
हिंदी-जनता और उसके हिरावल दस्ते को विचारहीन और प्रतिक्रियावादी बनने से रोकने की मुख्य ज़िम्मेदारी किसकी थी? निश्चित तौर पर यह ज़िम्मेदारी लेखकों और विचारकों की थी। उन्हें ही ऐसे विचारों को निरंतर उत्पादित और प्रसारित करते रहना था, जो जनता को, और विशेष तौर पर उसके हिरावल दस्ते को, प्रगतिशील मार्ग पर उन्मुख रखे। बल्कि उन्हें उस मार्ग को और प्रशस्त और बहुविकल्पी भी बनाना था।
सद्भाव, धर्म-निरपेक्षता, सामाजिक जीवन में उच्च नैतिकता जैसे मूल्य भारत की आजादी के समय बने थे, उन्हें उनमें सामाजिक समता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मूल्यों और ‘विज्ञान और तकनीक के दुष्प्रभावों की निगरानी’ जैसे नए विचारों से जोड़ना था।
बहरहाल, पहले यह विचार करें कि हिंदी में ये ‘लेखक-विचारक’ कौन हैं, जिन पर उपरोक्त ज़िम्मेदारी थी? क्या ये वे ही नहीं हैं, जिन्हें हम 'हिंदी-आलोचक' कहते हैं? हिंदी में विचारक, दार्शनिक आदि नहीं होते। ठीक वैसे ही, जैसे जीवविज्ञानी, कंप्यूटर साइंटिस्ट, मानवशास्त्री आदि नहीं होते। हिंदी में सिर्फ दो श्रेणियों में काम करने वाले लोग प्रतिष्ठित हैं। एक तो वे जो रचनात्मक लेखन करते हैं, यानी कविता, कहानी, उपन्यास वाले और दूसरे उसकी आलोचना करने वाले।
आलोचकों का मुख्य काम रचानात्मक साहित्य के कथ्य को प्रचारित-प्रसारित करना रहा है। जैसा कि रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा या नामवर सिंह करते रहे और मौज़ूदा आलोचक भी कर रहे हैं। वे ही ‘जनता’ को प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, रेणु से लेकर समकालीन लेखक का महत्त्व बताते हैं।
अगर रामचंद्र शुक्ल के समय से देखें तो पिछली लगभग एक सदी में आलोचना की जकड़बंदी इतनी कड़ी रही कि हिंदी साहित्यकार उनके सामने प्राय: चूं तक नहीं कर सकता। प्रमुख आलोचकों ने जिन साहित्यकारों से आंखें फेर लीं, उनके विचार अंधेरे में कहीं गुम हो गए। वे साहित्य-जगत के पुरोहित हैं, जो ईश्वर और भक्त के बीच की अनुलंघनीय कड़ी बन गए हैं। जाहिर है, इसके अपवाद भी रहे हैं। लेकिन अपवाद तो अपवाद होते हैं।
इस आधुनिक आलोचक की उत्पत्ति के बीज रीति-काल के दरबारों में खोजे जाने चाहिए। रीति-काल का पहला पूर्णकालिक आलोचक दरबार का कोई अधिकारी, या कोई चुक चुका कोई कवि रहा होगा। जैसे रिटायर क्रिकेटर कमेंटरी करने लगता है, वैसे ही चुक चुका कवि अपने संचित अनुभव का लाभ नए कवियों को देकर दरबार में अपनी जगह बचाए रखता होगा। उसके द्वारा बांटे गए अनुभवों में काव्य-कला के अतिरिक्त वह सारा व्यावहारिक ज्ञान भी होता होगा, जो एक कवि के दरबार में ऊपरी श्रेणी तक पहुंचने और अपनी जगह बनाए रखने के लिए ज़रूरी होता होगा। क्या वह अपनी काव्य चौर्य-कला के गुर भी नए कवियों को सिखाता होगा? उन्हें बताता होगा कि बिना मौलिकता के भी कैसे काव्य रचा जा सकता है? इतना तो तय है कि मौज़ूदा समय की तरह धीरे-धीरे उसके चेले-चपाटों का समूह भी निर्मित होता होगा, जो उसके जीवन की षष्टिपूर्ति, स्वर्ण जयंती से मिलते-जुलते आयोजन करता होगा। यह अकारण नहीं है कि रीतिकाल के लक्षण-ग्रंथों से ही आधुनिक हिंदी आलोचना आरंभ माना जाता है। तो, क्या इसलिए उसकी ही सामंती, पोंगपंथी और कोल्हू के बैल वाली प्रवृत्तियां बाद की आलोचना में भी सबल रहीं?
रचानात्मक लेखन और आलोचना, दोनों के कम प्रभावी होने का एक और कारण यह है कि हिंदी की दुनिया में श्रम के प्रति बहुत गहरी हिक़ारत का भाव है। यहां कथित प्रतिभा का बोलबाला है, जो ज़्यादातर मामलों में अभी तक जाति आधारित श्रेणीक्रम के साथ संबद्ध है। प्रतिभा के साथ श्रम के सामंजस्य को पतन माना जाता। हिंदू धर्म-व्यवस्था में इन दोनों के मिलने से वर्णसंकर जाति पैदा हाेती हैं, जिन्हें जाति वहिष्कृत कर अपेक्षाकृत निचले दर्जे में भेज दिया जाता है। इसे समझने के लिए कृषि कर्म में उतरी ब्राह्मणों की एक विशिष्ट जाति के निर्माण की कथा को याद किया जा सकता है।
इस सबके बावजूद, हिंदी के मौजूदा रचनात्मक साहित्य में तो फिर भी कुछ है। कम-से-कम वहां अनेक चीज़ों का दस्तावेज़ीकरण जारी है। हालांकि हिंदी में कोई रवींद्र नाथ ठाकुर नहीं हुआ, जिसकी बौद्धिकता की सीधी पहुंच अपनी जनता तक हो। हिंदी-पट्टी में यह कमाल कबीर जैसों ने अवश्य किया था; लेकिन वह सदियों पहले की बात है। भक्ति काव्य का निगुर्ण साहित्यकार सीधे जनता से जुड़ा होता था। आज तो, जैसा इस लेख में पहले कहा गया, लेखक का महत्व तब तक चिन्हित नहीं हो सकता, जबतक उस पर आलोचना की मुहर न हो।
इसलिए कई कारणों से, जिनमें लेखन की अलग प्रकृति भी शामिल है, रचनात्मक लेखन करने वालों को हिंदी समाज में आए वैचारिक पतन के लिए उतना जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, जितना आलोचकों को।
बहरहाल, हम मौज़ूदा दौर में लौटें। अगर आज की तस्वीर को थोड़ा और सगुण रूप से देखें कि आज के आलोचक वास्तव में कौन हैं? आप पाएंगे कि ये सबके-सब विश्वविद्यालयों से या ऐसे ही किसी संस्थान से संबद्ध हैं। चूंकि राज-सत्ता आज पहले की तुलना में अधिक विशाल और ताकतवर है, इसलिए इनके पास पिछले वालों की तुलना में अधिक संस्थागत सुविधाएं और शक्तियां हैं। जिसका उपयोग-दुरुपयोग ये करते रहे हैं। इन संस्थागत विशेषाधिकारों और सहुलियतों के कारण उनमें आम लोगों से जुड़ने की न कुव्वत रह गई, न ही उन्हें इसकी कोई आवश्यकता महसूस होती है।
अब ज़रा यह भी विचार करेंगे कि आज के इस हिंदी-आलोचक को अपने कंधे पर कितनी ज़िम्मेदारियों को उठाना होता है? हिंदी-आलोचक सिर्फ़ एक साहित्यिक-आलोचक (लिटररी क्रिटिक) नहीं होता है। उसे बहुआयामी होना होता है। एक ओर वह कविता की परिभाषा देता है, तो दूसरी ओर करुणा और प्रेम पर बात करते हुए मनोविज्ञान पर भी अपनी राय देता है। वह धर्म से लेकर इतिहास, समकालीन राजनीति सब पर अपने विचार व्यक्त करता है। वह एक ओर नवजागरण की राजनीति का सैद्धांतिकरण करता है, तो दूसरी ओर किस पार्टी को वोट दिया जाए, इसका भी संकेत करता है। इस प्रकार, हिंदी-आलोचक एक ऐसा हरफ़नमौला प्राणी होता है, जिसकी गति दिग्दिगंत तक होती है तथा किसी भी क्षेत्र को वह अपनी क्षमता से परे नहीं मानता है।
हालांकि यह एक सराहनीय कहा जानी चाहिए अगर एक बौद्धिक कई विषयों को अपने कार्यक्षेत्र के दायरे में रखता है और समसामयिक प्रसंगों पर नज़र रखता है। भारत जैसे अनुन्नत समाज के बौद्धिक का काम सिर्फ़ एक विषय का विशेषज्ञ बनने से नहीं चलेगा। उसका उत्तरदायित्व सचमुच कहीं अधिक बड़ा है। उसे जन-बुद्धिजीवी बनने की कोशिश करनी ही करनी चाहिए। लेकिन त्रासदी यह है कि अधिकांश मामलों में हिंदी-आलोचक का व्यवहार ‘जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स, मास्टर ऑफ नन’ जैसा होता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो उनमें से अधिकांश सब कुछ इतना गंभीर होकर करते हैं कि उनका किया कुछ भी किसी के पल्ले नहीं पड़ता, चारों ओर नैराश्य और मुर्दानगी फैलती है वह अलग। उनमें कुछ अखिलेश की कहानी शापग्रस्त के उस मध्यवर्गीय पात्र याद दिलाते हैं, जो मास्टर की तरह ‘झेंपा-झेंपा’ सा रहने वाला कूंपमंडूक है। तमाम क्रांतिकारी किस्म की बातें करने के बावजूद जिनके सरोकार अपनी निजी मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं तक सीमित हैं।
फिर भी कुल मिलाकर यह तो है ही कि जैसा भी है, हिंदी की दुनिया का सर्वेसर्वा आलोचक ही है। वह स्वयं भी ऐसा ही मानता है।
हम यह भी देखते हैं कि अधिकांश मामलों में यह हिंदी-आलोचक स्वयं को प्रगतिशील, समाजवादी, मार्क्सवादी आदि कहता है। तो विचारणीय यह है कि हिंदी में पिछले दशकों में ऐसा काम कैसे हुआ कि वैज्ञानिक चेतना की घोर-विरोधी, नग्न रूप से प्रतिक्रियावादीऔर घोषित रूप से सांप्रदायिक ताक़तें देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हो गईं? अब वे उन आधुनिक मूल्यों को तेज़ी से नष्ट करते हुए आगे बढ़ रही हैं, जो पिछली कुछ सदियों में बूंद-बूंद कर सृजित हुए थे और जो देश की आज़ादी के बाद एक उदार, समतामूलक, समावेशी संंविधान के साथ कमोवेश संतोषजनक रूप से फल-फूल रहे थे।
क्या हम याद कर सकते हैं कि इन मूल्यों की रक्षा के लिए हिंदी-आलोचना में कोई ज़िद, कोई पहल अंतिम बार कब दिखायी दी थी? यह एक अच्छे-ख़ासे शोध का विषय है। इस शोध से जो सामने आएगा, उसे अकादमिक रिसर्च की दुनिया में ‘शून्य परिणाम’ (Null Result) के नाम से जाना जाता है।
जबकि उन्हें ध्यान रखना था कि कोई भी चीज़ स्थिर नहीं रहती। विचार भी नहीं। ऊंचाई पर पहुंची हुई कोई चीज़ अगर ऊर्ध्वगति में नहीं रहती, तो नीचे गिरने लगती है। अगर आप विचारों को निरंतर परिमार्जित और नई-नई पहलों के माध्यम से विकसित नहीं करते रहेंगे तो वे नीचे की तरफ़ फिसलने लगेंगे, यानी उनका पतन होने लगेगा। हमने देखा कि यही हुआ भी।
याद करें कि क्या हिंदी-आलोचक खाने-पीने की आज़ादी के पक्ष में रहा? उसने कभी कहा कि गाय भी वैसा ही एक जानवर है, जैसे भैंस, सूअर और बकरी? क्या उसने कभी कहा कि हमें धर्मनिरपेक्षता से आगे धर्म-पंथ मुक्त समाज की ओर जाना है? क्या उसने कभी कहा कि जब तक धर्म और पंथ मौजूद है तब तक धर्मांतरण भी एक मौलिक अधिकार होना चाहिए?
हिंदी-आलोचकों ने कभी कहा कि किसी के लिखने-बोलने से धर्म-पंथ से जुड़ीं भेदभाव करने वाली भावनाएं अगर आहत होती हैं, तो उन्हें होने देना चाहिए? कभी कहा कि ऐसी भावनाओं को आहत करना साहित्य समेत सभी बौद्धिक विमर्शों और ज्ञान के सभी अनुशासनों के लिए एक ज़रूरी कार्य है, जिसे और तेज़ी से करने की ज़रूरत है? क्या कभी उसने सोचने जहमत उठाई कि हमारी नागरी लिपि तकनीक की दुनिया में इतनी पीछे क्यों छूट रही है और इसके क्या परिणाम होंगे? क्या उसने कभी कहा कि ‘देवनागरी’ नहीं, हमारी लिपि का नाम ‘नागरी’ है और उसमें ‘देव’ लगाने वाले लोग हमारी लिपि और भाषा का सांप्रदायिकरण कर रहे हैं। जाहिर है, ये सवाल बानगी के लिए हैं।
पिछले कुछ वर्षों से यूनिवर्सिटियों से संबंद्ध उन मुखर बुद्धिजीवियों को प्रताड़ित किया जा रहा है, जो या तो सरकार की नीतियों की विरोध करते हैं, या बढ़ती हुई धर्मांधता के खिलाफ कक्षा में या उसके बाहर लिखते-बोलते हैं। सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी तत्वों के सत्ता में होने पर यह स्वभाविक ही है।
लेकिन क्या हिंदी आलोचना ने कभी इन सवालों को उठाया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी जितनी एक पत्रकार, एक स्वतंत्र लेखक को है; उतनी ही सरकारी नौकर को भी होनी चाहिए? क्या उसने कभी सोचा कि इस विकासशील देश में नौकरी करने वाले लोग ही असली मध्य वर्ग का निर्माण करते हैं, उनकी अभिवक्ति की आजादी बहुत महत्वपूर्ण है? जब सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि हो सकता है, तो सरकारी नौकरों के लिए भी अभिव्यक्ति का अधिकार देने से कौन-सा पहाड़ टूट जाएगा? दुनिया के कई देशों में सरकारी कर्मचारियों की अभिव्यक्ति को नहीं कुचला जाता तो भारत में ऐसा प्रावधान क्यों है?
ऐसे सवालों पर पहल के लिए जैसी गहरी वैचारिक निर्मिति और मौलिकता ज़रूरत थी, वह क्यों सिरे से नदारद है? जैसा कि पहले कहा गया कि हिंदी आलोचक ही हिंदी-पट्टी का एकमात्र प्रभावशाली बुद्धजीवी है। यह उसी की ज़िम्मेदारी थी। लेकिन वह अपनी उस वैचारिक धूरी से बमुश्किल कुछ कदम आगे बढ़ सका है, जहां वह रामचंद्र शुक्ल के जमाने में था। जबकि जमाना कहां से कहां पहुंच गया और उसके विरोधियों ने इस बीच कितना लंबा सफर तय कर लिया!
चीज़ों को इस तरह देखने पर हम पाते हैं कि साहित्य और आलोचना जितनी निरीह और अप्रभावी लगती है, उतनी न पहले थी, न आज है। उसका प्रभाव होता है। सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक। इसके द्वारा कुछ ‘न’ करने का भी असर समाज और राजनीति पर होता है। इसलिए जब हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकत तत्वों को सत्ता में लाने में हिंदी आलोचना की भूमिका है, तो इस बात के पुख़्ता आधार हैं। उनके इस कृत्य में उनकी अवसरवादी-अकर्मण्यता की सबसे बड़ी भूमिका है।
यह तो बार-बार कहा ही जाता रहा है कि हिंदी में रचनात्मक साहित्य और उसकी आलोचना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसमें न मौलिक प्राकृतिक विज्ञान है, न ही समाजशास्त्र। लेकिन आप देखें कि साहित्यिक विमर्श के क्षेत्र में भी वर्षों से कोई उल्लेखनीय विचार-विमर्श नहीं हो रहा है। पिछले 60 साल से अधिक से हिंदी साहित्य ‘समकालीन’ बना हुआ है और 30 साल से अधिक से इसने अपने एक हिस्से को दलित बनाया हुआ है, वह उसे मुख्यधारा का हिस्सा मानने को तैयार नहीं है। वे नए विचारों, नए आलोड़नों की ओर पीठ किए हुए बढ़ रहे हैं। उन्होंने अपनी कल्पना में समय को रोक दिया है और एक ही जगह चक्कर काट रहे हैं। लेकिन यह नहीं देख पा रहे हैं कि हम आगे नहीं जा रहे, बल्कि किंचित पीछे ही लौट रहे हैं।
हिंदी-आलोचना भयावह दुहराव की शिकार है और, भाषा आधारित एक ऐसे पाखंड का बोलबाला है, जिसे भावी पीढ़ियां निश्चित तौर चिन्हित करेंगी और लानत भेजेंगी। क्या आप जानते हैं कि हिंदी में जो आलोचना लिखी जा रही है, उसके एक बड़े हिस्से का किसी अन्य भाषा में अनुवाद नहीं हो सकता? ऐसा इसलिए कि ऐसी आलोचनाओं का अधिकांश हिस्सा महज भषाई-पाखंड होता है। मैं एक द्विभाषी पत्रिका के संपादक के तौर पर बार-बार ऐसे अनुभवों से गुजरा हूं। हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले सुयोग्य, साहित्यिक क्षमता से लैस साथियों ने दर्जनों बार ऐसी सामग्री का अनुवाद करने से इंकार कर दिया है। वे बताते थे उन टेक्सटों में अनुवाद के लिए उतरने पर वे पाते हैं, वहां निरर्थक पद-बंधों, उपमाओं आदि की भरमार है और वास्तव में उनके भीतर कोई अर्थ नहीं है। कविता की आलोचना के मामले में तो यह भाषाई-पाखंड अपने चरम पर होता है।
हिंदी आलोचना इतनी पिछड़ती गई है कि वह कुछ नया देने की स्थिति में तो नहीं ही है, और लगता है कि उधार लेने की क़ुव्वत भी इसमें नहीं रही है।
हिंदी आलोचना मध्यवर्गीय सीमाबद्धता और प्राध्यापकीय कूंपमंडूकता की इस कदर शिकार है कि वहां से कुछ भी मौलिक आने की संभावना शून्य है।
चूंकि वह स्वयं कोई नई शुरुआत करने की स्थिति में दिखायी नहीं देती; तो ऐसे में उपाय क्या है? वस्तुत: ‘हिंदी-आलोचना’ शब्द-बंध का रूढ़ अर्थ स्वयं ही इसके दायरे को रचनात्मक साहित्य तक सीमित कर देता है। इसकी जगह ‘हिंदी-वैचारिकी’ का प्रयोग करें तो मुझे लगता है कि फर्क पड़ेगा। इससे हम साहित्य और साहित्येत्तर दोनों दुनियाओं को पर नजर रख सकेंगे, जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन, इसके लिए आवश्यक होगा कि इसे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के सर्वग्रासी देवों के चंगुल से बचाया जाए।
‘हिंदी वैचारिकी’ शब्द-बंध का प्रयोग पहले भी हाेता रहा है, लेकिन यह एक अस्पष्ट अवधारणा वाला, हाशिए का शब्द रहा है। इसका पारिभाषिक विस्तार करने और केंद्र में लाने की आवश्कता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘हिंदी आलोचना’ जैसे पिछड़ चुके अनुशासन की जगह ‘हिंदी वैचारिकी’ के नाम से अधिक समावेशी, अधिक सार्थक और अधिक प्रासंगिक अनुशासन को विकसित और स्वीकृत किया जाना चाहिए। इसी ‘हिंदी वैचारिकी’ का एक हिस्सा ‘हिंदी आलोचना’ भी रहे।
‘हिंदी वैचारिकी’ सवाल कर सकेगी कि अब तक क्यों नहीं हिंदी में उनका नाम भी उसी सम्मान से लिया जा रहा था, जो साहित्येत्तर विषयों पर काम कर थे तथा समाज और राजनीति को दिशा देने में अधिक सक्षम थे? और, यह कि हिंदी में अब तक हमने सबकुछ को इतना साहित्यमय क्यों बना रखा था?
‘हिंदी वैचारिकी’ जनता के उस तबक़े के साथ एकमेव हो सकती, जो अपने तरीक़े से प्रतिरोध कर रहा है। अपने साहित्यिक मिजाज के कारण यह ‘आलोचना’ के वश का काम नहीं है। ‘वैचारिकी’ विदेशों में हो रहे विमर्शों पर भी ईमानदारी से नज़र रख सकती और इस भ्रम से बाहर रह सकती है कि वह प्रचंड प्रतिभा या किसी दुर्लभ परंपरा की वाहक है।
वह अपने स्वभाव से ही अंतरअनुशासनिक होगी और अधिक प्रखर बौद्धिकता लिए होगी, इसलिए उन सवालों को उठा सकेगी, जिनकी चर्चा इस लेख में पहले की गई। जाहिर है यहां से वह रास्ता निकल सकता है, जिसकी हमें तलाश है।
(समयांतर के मार्च, 2024 अंक में प्रकाशित)
(प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। संप्रति, पूर्वोत्तर भारत की एक यूनिवर्सिटी में शिक्षणकार्य व स्वतंत्र लेखन करते हैं।