विश्व कविता दिवस निर्गुण सहजो बाई: अब अपनी कोई कविता नहीं, अपनी धरोहर स्त्रियों को सामने लाना

Update: 2021-03-21 13:36 GMT

निर्गुण ब्रह्म का नाम लेते ही कबीर से आरम्भ हुई यात्रा कबीर पर समाप्त हो जाती है। क्या कबीर के बाद निर्गुण भक्ति की धारा सूख गयी या फिर निरंतर बहती रही, यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर खोजना आवश्यक है। आइये आज एक ऐसी स्त्री से भेंट करते हैं, जो निर्गुण राम को उसी प्रकार गाती हैं जैसे कोई संत! वह जीवित हैं, वह जीवित हैं हमारी चेतना में। लगभग संवत १८०० में जन्मी सहजो बाई उसी प्रकार निर्गुण राम और गुरु के दोहे कहती हैं। वह साधु वृत्ति की स्त्री हैं। आइये सहजो बाई के विषय में और उनके दोहों के विषय में जानते हैं

सहजो बाई के दोहों में निर्गुण राम की उपासना है। यह भक्ति का वह स्तर है जहाँ पर कबीर पहले से ही स्थापित हो चुके हैं। निर्गुण राम का उल्लेख आने पर इतिहास मात्र कबीर की बात करता है, मात्र कबीर को ही निर्गुण राम के भक्त का पर्याय बना दिया गया है, परन्तु ऐसे में जब सहजो बाई और दया बाई की रचनाओं से हम परिचित होते हैं। ऐसी ही एक रचनाकार हैं उमा, जिनका काल यद्यपि ज्ञात नहीं हो पाया है, परन्तु मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ पुस्तक में लेखिका डॉ। सावित्री सिन्हा इनके विषय में लिखती हैं कि उन्हें योग और ज्ञान से काफी परिचय था। राम शब्द का प्रयोग उन्होंने दशरथ पुत्र राम के लिए नहीं अपितु निर्गुण ब्रह्म के लिए किया है। (मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ पुस्तक में लेखिका डॉ। सावित्री सिन्हा, पृष्ठ 47, हिंदी अनुसंधान परिषद, आत्मा राम एंड संस, दिल्ली 6)

ऐसे फाग खेले राम राय,

सूरत सुहागण सम्मुख आय,

पंचतंत्र को बन्यो है बाग़,

जामें सामंत सहेली रमत फाग"

इसी प्रकार सहजो बाई की रचनाएँ भी सहज ब्रह्म के विषय में है। गुरु को उन्होंने सबसे बढ़कर माना है। गुरु के विषय में वह लिखती हैं

सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिं,

हरि तो गुरु बिन क्यों मिलें, समझ देख मन माहिं!

प्रेम के विषय में सहजो कितनी सुन्दर बात लिखती हैं

"प्रेम दिवाने जो भये पलटि गयो सब रूप।

'सहजो' दृष्टि न आवई, कहा रंक कहा भूप॥

प्रेम दिवाने जो भये, नेम धरम गयो खोय।

'सहजो' नर नारी हंसैं, वा मन आनँद होय॥

प्रेम दिवाने जो भये, 'सहजो' डिगमिग देह।

पाँव पड़ै कितकै किती, हरि संभाल जब लेह॥

प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।

अजपा सुमिरन करत हूँ, उपजै केवल ज्ञान॥"

यह प्रेम ज्ञान के प्रति प्रेम है, यह प्रेम परम ब्रह्म के प्रति प्रेम है। यह प्रेम उतना ही सहज है जितनी सहजो बाई हैं। सहजो बाई के दोहों के रस में तो पाठक खो ही जाएंगे।

राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं।

हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही

सहजो जा घट नाम है, सो घट मंगल रूप

राम बिना धिक्कार है, सुन्दर धनिया भूप!

सहजो नौका राम है, चढ़ी के उतरौ पार,

राम सुमिरि जान्यो नहीं, ते डूबे मंझधार

कनक दान, गज दान दे, उनन्चास भू दान,

निश्चय करि सहजो कहै न हरि नाम समान!

काम क्रोध और लोभ तन, ले सुमिरै हरि नाम

मुक्ति न पावै सहजिया, नहीं रीझेंगे राम!

गुरु के विषय में भी वह स्पष्ट हैं और लिखती हैं

गुरु बिन मारग ना चलै, गुरु बिन लहै न ज्ञान।

गुरु बिन सहजो धुन्ध है, गुरु बिन पूरी हान॥

हरि किरपा जो होय तो, नाहीं होय तो नाहिं।

पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि नहिं जाहिं॥

वह भगवान तक पहुँचने के मार्ग का माध्यम गुरु को बताती हैं और कहती हैं

हरि ने पांच चोर दिये साथा। गुरु ने लइ लुटाय अनाथा॥

हरि ने कुटुँब जाल में गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी॥

हरि ने रोग भोग उरझायो। गुरु जोगी कर सबै छुटायो।

हरि ने कर्म मर्म भरमायो। गुरु ने आतम रूप लखायो॥

उनकी रचनाओं को यदि हम पढ़ते हैं तो यह स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है कि सहजो बाई में आध्यात्मिक ज्ञान है, सहजो बाई में गुरु और शिष्य परम्परा के साथ यह भी ज्ञान है कि यह गुरु ही हैं, जो अंतिम बंधन काटते हैं।

जरा स्वयं से प्रश्न कीजिएगा कि जब निर्गुण भक्ति में भी सहजो बाई जैसी स्त्रियाँ थीं, तो यह धारणाएं कैसे उत्पन्न हुईं कि स्त्री की सीमा मात्र चूल्हा चौका थी।

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