दर और दरबार: माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य में फर्क!

Update: 2019-07-22 10:09 GMT

बहुत फर्क होता है दर और दरबार में। दरवाजे पर होता है दरबान और अंदर लगता है दरबार तो कैसे कर पायेगा आम आदमी अपनी फरियाद? तजुर्बा यही कहता है कि दरबार की भीड़ प्रायोजित होती है। मेरा मानना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस बात को जानते हैं। और अगर नहीं जानते तो समझ लीजिये अभी भी वे नासमझ हैं। चुनाव के अखाड़े में एक निहायत अनजान सिंकिया पहलवान से चित्त होकर, धूल खाकर उन्होंने अपने यशस्वी पिता श्रीमंत माधवराव सिंधिया की अर्जित "अपराजेयता" को धूल धूसरित कर दिया है। और आज भी चाटुकार जमात के घेरे में रहकर अपने "महल" में दरबार ही लगा रहे हैं।


यह तरकीब "जननेता" बनने की नहीं है। मुझे अफसोस है कि "मेरे माधव" से उनके बेटे ने यह नहीं सीखा कि सच्चाई जानने के लिए दरबार लगाना नहीं, दर पर जाना होता है। मिसाल के तौर पर MITS को ही ले लें। देश का मशहूर तकनीकी शिक्षण संस्थान एक तरह से उनका खुद का है। इन दिनों गंभीर किस्म की अनियमितताओं और घोटालों का अड्डा बना हुआ है। इस बात की चर्चा ज्योतिरादित्य के दरबार में उन्ही के सामने कई बार की गई लेकिन रेलवे स्टेशन से महज़ दो मिनट की दूरी पर स्थित MITS पहुंचकर उसे देखने की जहमत ज्योतिरादित्य ने कभी नहीं ली।


ज्योतिरादित्य के चेहरे पर बरहमेश तनाव होता है, माधव सी मुग्ध कर लेनेवाली मुस्कान नहीं। ज्योतिरादित्य के भिंचे हुए होंठ निश्चय नहीं, उनकी उद्विग्नता प्रदर्शित करते हैं। ज्योतिरादित्य को चाहिए कि वे मुंह पर खरी खरी कहने और कुम्हार की तरह खोट निकालने वाले पत्रकारों से प्रत्यक्ष संवाद करें और अपने नौकरी पेशा अमले को फटकार लगाते हुए ताकीद करें कि वे उनके सामने ग्वालियर-चंबल संभाग के उन पत्रकारों की सूची रखें जो उनके (ज्योतिरादित्य) साथ उनके यशस्वी और चमत्कारी पिता माधवराव को भी जानते रहे हों और जिन्होंने उनके कैलाशवासी पिता को उनके कृतित्व की बदौलत ही "विकास के मसीहा" की संज्ञा दी हो।

और अंत में फिर कह रहा हूँ क्योंकि कहना फर्ज है मेरा कि "प्रियंका के हाल के व्यवहार से सीखें कि दर्द जानने के लिए दर पर जाना होता है।" यह भी जान लें कि मंजिलें कल्पनाओं से नहीं, कदमताल से मिलती हैं !

ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार तानसेन तिवारी की नज़र से

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