हिमालय और पतितपावनी गंगा के सानिध्य में ज्यादा वक्त गुजार रही मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमा भारती अब राजनीति की कौन सी धारा में बहेंगी और किस दिशा में जाएंगी!पिछले कुछ दिन से यह सवाल भाजपा के गलियारों में घूम रहा है।इसकी बजह यह है कि उमा को भाजपा की मध्यप्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य तक नही बनाया गया है। जम्बो कार्यसमिति में उमा का नाम न होना और उस पर उमा की कोई प्रतिक्रिया न आना चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस मुद्दे पर आगे बात करने से पहले उमा भारती की आज तक की राजनीतिक यात्रा पर नजर डालते हैं।अपने अस्थिर चित्त के लिए मशहूर उमा भारती भाजपा के युवा मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष रही थीं।अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने वालों में भी वह शामिल थीं।उन पर सीबीआई ने मुकदमा भी चलाया था। उमा अटलविहारी बाजपेयी की सरकार में मंत्री भी रही थीं।
मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले के डूंडा गांव निवासी गुलाब सिंह लोधी के घर 3 मई 1959 को जन्मी उमा ने छठी कक्षा तक पढ़ाई की है।बचपन से ही वे कथा वाचन करने लगीं थीं।उमा का दावा है कि ग्वालियर घराने की पूर्व महारानी विजयाराजे सिंधिया उन्हें राजनीति में लायी थीं।उमा अपनी माँ बेटीबाई से बहुत प्रभावित रही हैं।उनका जिक्र वे अक्सर करती रहती हैं।
चुनावी मैदान में उमा 1984 में उतरी थीं।वे खजुराहो से लोकसभा चुनाव लड़ीं थीं।लेकिन हार गयीं थीं।बाद में 1989 से 1998 तक वे लोकसभा में खजुराहो का प्रतिनिधित्व करती रहीं।1999 में भोपाल से सांसद चुनी गई थीं। बाजपेयी सरकार में मंत्री भी बनी थीं।
बाद में उमा भारती तब चर्चा में आईं जब पार्टी ने उन्हें मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बना कर मैदान में उतारा।उमा ने अपने धर्म भाई दिग्विजय सिंह के खिलाफ प्रदेशव्यापी मुहिम चलाई।नतीजा यह हुआ कि दिग्विजय का दस साल का शासन ताश के पत्ते की तरह बिखर गया।230 विधानसभा सीटों में कांग्रेस कुल 38 सीट जीत पायी।भाजपा ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया।
उमा ने अपना शपथ ग्रहण समारोह भोपाल के लाल परेड ग्राउंड में कराया !देश भर के साधु सन्यासी उन्हें आशीर्वाद देने आए।लेकिन यह आशीर्वाद स्थायी नही रहा।1994 के एक मामले में हुबली की एक अदालत ने उनका गिरफ्तारी वारंट जारी किया।पार्टी में उनके तब के समकालीन नेताओं ने आदर्श और नैतिकता का ऐसा खेल रचा कि करीब नौ महीने बाद ही ,23 अगस्त 2004 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।इस्तीफा देकर वे हुबली गयीं।जाने से पहले वे बाबू लाल गौर को अपनी गद्दी सौंप गयीं।
उमा हुबली से जब लौटीं तब तक बहुत पानी बह चुका था।उन्होंने अपनी कुर्सी वापस मांगी तो उनकी मांग नही मानी गयी।इस बीच पार्टी बैठक में उन्होने पार्टी के ही नेताओं पर गम्भीर आरोप लगाए।इसके बाद वे अलग थलग पड़ती गयीं।बाबूलाल गौर से तो मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस ले ली गयी लेकिन उस पर शिवराज सिंह बैठाए गए।उस पूरे घटनाक्रम के सूत्रधार प्रमोद महाजन थे।
बाद में नाराज उमा ने भोपाल से अयोध्या तक की पदयात्रा की।फिर कुछ समय बाद अपनी अलग पार्टी भी बनाई।चुनाव लड़ी।बुरी तरह हारीं।कई साल हाशिये पर रही।उमा ने अपने जीवन में कई कहावतों को उलटा है।लोग अपने पांव कुल्हाड़ी मारने की नजीर देते हैं लेकिन उमा भारती वह हैं जो चलती आरा मशीन को रोकने की कोशिश अपना पांव अड़ाकर करती रही हैं।जाहिर है कि इसमें नुकसान उनका ही होता आया है।
उस समय उनके चुनावक्षेत्र बड़ामलहरा में हुए उपचुनाव में शिवराज सिंह ने यह सुनिश्चित किया कि उमा को प्रदेश की राजनीति से ही बाहर कर दिया जाय।
कुछ समय उमा भाजपा से बाहर रहीं।फिर वे किसी तरह भाजपा में वापस लौटीं।लेकिन उन्हें प्रदेश से बाहर रखा गया।पहले वे उत्तरप्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ी।लेकिन जब वहां की राजनीति में उनकी दाल नही गली तो वे 2014 में झांसी से लोकसभा चुनाव लड़ीं।मोदी की पहली सरकार में मंत्री भी बनी।गंगा और हिमालय के प्रति उनकी श्रद्धा को देखते हुए मोदी ने गंगा की सफाई का जिम्मा दिया।लेकिन अस्थिर चित्त उमा जो कहती रहीं थी वह कर नही पायीं।गंगा की सफाई का काम उनसे नही हो पाया। यही नही जो काम हुआ उसमें खुला भृष्टाचार हुआ।
2019 आते आते वह खुद चुनावी राजनीति से दूर हो गयी।उन्होंने लोकसभा चुनाव भी नही लड़ा।पिछले दो साल से वह पूरी तरह खाली हैं।किसी भी तरह मध्यप्रदेश की राजनीति में जगह बनाने की कोशिश में लगी हैं।
पिछले साल उनकी सक्रियता तब सामने आई जब उन्होंने अपनी बड़ामलहरा सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीते प्रद्युम्न लोधी को इस्तीफा दिलाकर भाजपा में शामिल कराया।प्रद्युम्न ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने और शिवराज सरकार बनने के काफी दिन बाद शामिल हुये थे।शिवराज ने उन्हें एक निगम का अध्यक्ष बना कर मंत्री दर्जा भी दिया।
तब यह संदेश गया कि उमा भारती बड़ामलहरा के जरिये फिर से प्रदेश की राजनीति में लौटना चाहती हैं।
इस घटना के कुछ महीने के बाद प्रद्युम्न लोधी के करीबी रिश्तेदार और दमोह से कांग्रेस विधायक राहुल लोधी ने भी भाजपा का झंडा थाम लिया।उन्हें भी शिवराज ने मंत्री दर्जा देकर अहसान चुकाया।तब यह माना गया कि राहुल को दमोह के सांसद और केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल ने भाजपा में शामिल कराया है।
उसके साथ ही यह चर्चा भी चली क़ि उमा और प्रह्लाद मिलकर भाजपा में एक नया जातीय समीकरण बनाना चाहते हैं।इसके चलते नेतृत्व के कान खड़े हो गए।
रही बची कसर दमोह उपचुनाव के नतीजे ने पूरी कर दी।राहुल लोधी बुरी तरह चुनाव हार गए। इस हार का ठीकरा वरिष्ठ नेता जयंत मलैया के सिर फोड़ा गया। कहते हैं कि प्रहलाद पटेल के दवाब में पार्टी ने जयंत मलैया के बेटे तथा 5 अन्य पदाधिकारियों को पार्टी से निलंबित कर दिया।साथ ही 74 साल के जयंत से जवाब तलब कर लिया।इसके बाद पार्टी के भीतर काफी प्रतिक्रिया हुई।
उसकी बजह से आंतरिक समीकरण बदले।हालात यह बने कि चुनाव परिणाम आने के पांच सप्ताह के बाद घोषित हुई जम्बो प्रदेश कार्यकारिणी में नोटिस पाए जयंत मलैया का नाम तो आ गया लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती का नाम नही आया।
यहीं से यह चर्चा शुरु हुई कि अब उमा क्या करेंगी।उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी।
उधर उमा भारती मौन भले ही रही हों पर हिमालय की वादियों और गंगा की किनारों से वह ट्विटर पर चहचहाती रहीं। उमा ट्विटर पर लगातार सक्रिय रहीं। वे लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गुणगान करती रहीं।लेकिन उनकी चहचाहट पर किसी ने ध्यान नही दिया।
30 मई को प्रधानमंत्री की दूसरी पारी के दो साल पूरे होने पर उमा ने ट्विटर पर लिखा- हमारे प्रधानमंत्री स्वस्थ, दीर्घायु और प्रसन्न रहें। उनका कार्यकाल गंगा की तरह अविरल,निर्मल और प्रवाहमान रहे!यह गंगा और हिमालय से मेरी प्रार्थना है।गंगा के किनारे तपस्यारत सभी संत उनकी रक्षा करें,यह मेरी मनोकामना है।
इससे पहले भी उमा भारती लगातार ट्विटर पर चहचहाती रहीं।18 मई को उन्होंने कई ट्वीट किए। एक ट्वीट में उंन्होने लिखा- मोदी जी दुनियां के अलौकिक नेता हैं।उन्हें यह शक्ति ईश्वर ने प्रदान की है। फिर इस शक्ति के लायक उन्होंने अपने शरीर, मन और बुद्धि को बनाकर अपने स्वभाव में ढाला है। इसी दिन एक अन्य ट्वीट में उन्होंने लिखा-मोदी जी के बराबर मेहनत कोई नही कर सकता।वह ऊर्जा, ज्ञान और तपस्या के अवतार हैं।उनकी सफलता की राह में मैं हर तरह से योगदान देना चाहती हूं और देती रहूंगी।
उसी दिन उन्होंने यह भी लिखा कि जब मैंने पद छोड़ा था तब मुझे प्रधानमंत्री और तब के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से पद छोड़ने की सहमति नही मिली थी।दोनों की इच्छा थी कि मैं मंत्रिमंडल का हिस्सा बनी रहूं।
उमा ने 18 मई को ही यह भी ट्वीट किया कि वे यथासंभव पीड़ित लोगों की मदद करती हैं।लेकिन प्रचार के लिए उसको उजागर नही करती हैं। वे यह काम आत्मसंतुष्टि एवं सार्थकता के लिए करती हैं।
मोदी की शान में इतने कसीदे पढ़ने के बाद भी उमा का नाम कार्यकारिणी की सूची में न आना एक साफ संकेत देता है।वह यह कि ट्विटर पर कुछ भी लिखा जाए उस पर न मोदी का ध्यान है और न ही अमित शाह का।
कहा यह भी जा रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा ने दिल्ली के निर्देश पर ही उमा का नाम शामिल नही किया है।
राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति में सक्रिय नेता यह मानते हैं कि फिलहाल उमा के लिए किसी तरह की सद्भावना दिल्ली की तरफ से नही हैं। उमा ट्विटर पर कुछ भी लिख रही हों लेकिन अंदर की बात वे भी जानती हैं।उन्हें यह भी पता कि 2018 तक गंगा को साफ करने की घोषणा पर किस बजह से पानी फिरा था।
एक पहलू यह भी है कि शिवराज सिंह चौहान किसी भी कीमत पर यह नही चाहते हैं कि उमा भारती मध्य प्रदेश में सक्रिय हों।इसलिये अपनी ओर से वे भी पूरी पेशबंदी करे बैठे हैं।
हालांकि राजनीति में स्थायी कुछ भी नही होता है लेकिन फिलहाल इतना साफ है कि अभी उमा भारती को हिमालय की तलहटी और गंगा के किनारों पर ही चहचहाना होगा।अपने घर में उनका स्वागत होने वाला नही है।
वैसे अब उमा के पास भी ज्यादा विकल्प नही बचे हैं। अलग पार्टी का प्रयोग वे कर चुकी हैं।दुबारा वह गलती दोहराने की स्थिति में भी वह नही हैं।सबसे बड़ी बात यह है कि आज उमा के साथ कोई नही है।पिछले सालों में उनके सभी करीबी एक एक करके दूर होते गए हैं।वे अकेली पड़ चुकी हैं।ऐसे में हिमालय की गोद में रहना ही उनके लिये हितकर होगा।