इमरजेंसी लगाने से पहले इंदिरा गांधी ने किया जो हाल, मोदी ने सीएए प्रदर्शनकारियों के साथ किया है वही सलूक
सीएए के विरोध में जुटे लोगों ने तो अपने हाथ में तिरंगा उठा रखा है और वे संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री अपने सहकर्मियों की ही जबान में बोलते हुए आंदोलन को अराजक और राष्ट्रविरोधी करार दे रहे हैं.
योगेंद्र यादव
संसद में प्रधानमंत्री के भाषण के बाद से ये साफ हो गया है कि सीएए-विरोधी आंदोलन से निपटने के लिए सरकार क्या हथकंडे अपनायेगी. किसी एक हथकंडे से बात नहीं बनने वाली सो तरीका मिला-जुला अपनाया जायेगा: आधिकारिक तौर पर कुछ गोल-मोल बातें की जायेंगी, सत्तापक्ष दमन का सहारा लेगा और ध्रुवीकरण की राजनीति से काम लिया जायेगा. असल सवाल ये है कि सत्तापक्ष के इन हथकंडों का आंदोलनकारी किस स्वर में जवाब देंगे ?
मसले पर आधिकारिक तौर पर जो कुछ मीठी चाशनी लपेटकर कहा जा रहा है, उसके चक्कर में आने की जरुरत नहीं. जानते-बूझते दोतरफी बातें की जा रही हैं. राष्ट्रपति के अभिभाषण में आया कि एनआरसी का विस्तार असम के बाहर भी करने की योजना है लेकिन प्रधानमंत्री कहते हैं कि इस मसले पर अभी कोई चर्चा नहीं हुई है. गृहमंत्री ने तो पूरी क्रोनोलॉजी(कालक्रम) बता दी कि कैसे सीएए के बाद एनआरसी आयेगा और इसे 2024 तक पूरा कर लिया जायेगा लेकिन गृहमंत्री की खींची लकीर के भीतर रहकर काम करने वालों ने संसद को बताया कि एनआरसी लाने की योजना अभी तक तो नहीं बनी है.
इस बीच एनपीआर अमल में आ गया है और ध्यान रहे कि एनपीआर आधिकारिक तौर पर एनआरसी की ओर बढ़ा पहला कदम है. प्रकाश जावेडकर लोगों को बता रहे हैं कि पुरखों और विरासत के बारे में पूछे गये नये सवाल वैकल्पिक हैं लेकिन प्रधानमंत्री का कहना है कि ये सवाल लोक-कल्याण की योजनाओं को लागू करने के एतबार से जरुरी हैं. और जाहिर है, इनमें से कोई भी स्पष्टीकरण अभी तक किसी भी आधिकारिक अधिसूचना में दर्ज नहीं हो पाया है.
एनआरसी, एनपीआर और सीएए को समझने-समझाने के लिए अब हजार तरह की बातें कही जा रही हैं और व्याख्याओं के इसी घटाटोप में सत्तापक्ष ने अपने लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मौका ताड़ा है. दिल्ली के चुनाव-प्रचार में जो कुछ सामने आया है उससे झलक मिल जाती है कि आगे क्या दृश्य देखने को मिलेंगे. बीजेपी को खूब पता है कि अगले साल पश्चिम बंगाल और 2022 में यूपी के विधानसभा चुनावों को जीतने की उम्मीद हिन्दू और मुसलमानों के बीच चौड़ी खाई खोदे बगैर नहीं पाली जा सकती. बीजेपी को ये भी पता है कि हिन्दीपट्टी के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जुगत लगाकर विपक्षी दलों के खेमे से कुछ दलित और ओबीसी वोट अपनी तरफ खींचा जा सकता है. और, यकीन मानिए कि बीजेपी इस रास्ते पर चलने का मन बना चुकी है.
जहां तक सीएए-विरोधी आंदोलन का सवाल है, बेशक ये आजादी के बाद के वक्त में हुए सबसे बड़े जन-आंदोलन के रुप में उभरा है लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी बातों से जता दिया कि सत्तापक्ष इस आंदोलन को जायज नहीं मानता, ये नहीं समझता कि ये आंदोलन देश के नागरिकों के उस तबके का है जो अपनी बात कहने को आतुर है और जिससे बात किया जाना जरुरी है.
सीएए के विरोध में जुटे लोगों ने तो अपने हाथ में तिरंगा उठा रखा है और वे संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री अपने सहकर्मियों की ही जबान में बोलते हुए आंदोलन को अराजक और राष्ट्रविरोधी करार दे रहे हैं, कह रहे हैं इस आंदोलन को विपक्षी दलों ने हवा दी है. संयोग देखिए कि इंदिरा गांधी ने भी आपात्काल की घोषणा से तुरंत पहले 1974 के जेपी आंदोलन के बारे में ऐसा ही कहा था.
प्रधानमंत्री की बातों से संकेत के तौर पर झांक रहा है कि दिल्ली के चुनावों के बाद सरकार दमन के रास्ते पर चल सकती है. बहुत संभव है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में आयोजित 'शाहीन-बाग' पर सख्ती बरती जाये और मौजूदा आंदोलन के विभिन्न नेताओं को एक साथ हिरासत में ले लिया जाये. जिन राज्यों मे विपक्षी दलों की सरकार है वहां प्रदर्शनकारियों के साथ खास जोर-जबर्दस्ती तो नहीं होगी लेकिन ये भी नहीं कह सकते कि ऐसे राज्यों में प्रदर्शनकारियों के साथ कोई दोस्ताना बरताव होगा.
यों अभी तक विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों में सीएए विरोधी आंदोलन के साथ सरकार ने उदासीनता का रुख अपनाया है. सो, आंदोलन को बड़े राजनीतिक दलों पर निर्भर हुए बगैर अपनी खुद के साधनों और तौर-तरीकों पर भरोसा करना होगा.
हालात की मांग है कि प्रदर्शनकारी अपनी नई रणनीति बनायें जैसा कि मैं अपने इस कॉलम में पहले भी लिख चुका हूं , सीएए-विरोधी आंदोलन अब समान नागरिकता के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के रुप में अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है. सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी मुहिम में लगे 100 संगठनों के महामंच 'हम भारत के लोग' ने चार फरवरी के दिन आह्वान किया था कि एनपीआर का बहिष्कार किया जाये. इस मंच की तरफ से 22 फरवरी से 23 मार्च यानि पूरे एक माह तक की जाने वाली गतिविधियों की एक योजना बनायी गई है. पाठकों को स्मरण होगा कि मौलाना आजाद की पुण्यतिथि 22 फरवरी को पड़ती है और 23 मार्च का दिन भगतसिंह के शहादत दिवस के रुप में मनाया जाता है.
चूंकि आंदोलन अब अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है सो इसकी रणनीति, प्राथमिकता और तात्कालिक लक्ष्य में बदलाव की जरुरत है. ये सोचते हुए कि सरकार अपनी तरफ से बातों को भटकाने की कोशिश में लगी है, प्रदर्शनकारियों को अपना संदेश बड़े साफ लफ्जों में सुनाने की जरुरत है. ये काम प्राथमिकता के तौर पर अगले दो माह तक होना चाहिए. इस दिशा में पहला कदम है, एनपीआर के बहिष्कार का स्पष्ट ऐलान. सीएए स्वभावतया लोगों के बीच भेदभाव बढ़ाने और फूट डालने वाला है- ये बात बेशक कही जाये लेकिन ज्यादा जोर अब एनपीआर तथा एनसीआर की आलोचना पर रहे.
आम नागरिक के लिए एनपीआर और एनसीआर को समझना और उसकी आलोचना से अपने को जोड़ पाना कहीं ज्यादा आसान है. सीएए-एनआरसी तथा एनपीआर की चपेट में आये लोगों या फिर ऐसे लोग जो इन कानूनों के खतरे से आगाह हैं और इनके विरोध के लिए दिये जा रहे तर्कों से सहमत हैं, उनसे अब ध्यान हटाकर नजर में उन लोगों को रखना होगा जो अब भी इस बात से खास आगाह नहीं कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर का उनपर भी असर हो सकता है.
ऐसे लोगों में हर तबके के गरीब, आदिवासी तथा घुमन्तू समुदाय के सदस्य शामिल हैं. जनता-जनार्दन का ये हिस्सा अपनी जिन्दगी गुजार देता है लेकिन उसका हाल-अहवाल उन सरकारी कागज-पत्रों में तो दर्ज नहीं ही होता जो ये साबित करने का प्रमाणपत्र होते हैं कि अलां और फलां व्यक्ति भी इसी मुल्क के वासी हैं.
दूसरी बात, चूंकि कोशिश सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हो रही है और धारणा ये बनायी जा रही है कि सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं, सो अब जोर इस बनती हुई धारणा को तोड़ने पर होना चाहिए. ऐसा दो तरीकों से किया जा सकता है. एक तरीका है असम में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों से ज्यादा से ज्यादा जुड़ाव बनाना, पूर्वोत्तर के राज्यों में चल रहे आंदोलन से अपने को जोड़ना क्योंकि देश के इस इलाके में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों में ज्यादातर तादाद गैर-मुस्लिम की है.
दूसरा तरीका है उन लोगों से संवाद स्थापित करना जो प्रदर्शनकारियों से सहमत नहीं और जो नहीं मानते कि नागरिकता को लेकर जो नये किस्म का शासकीय सरंजाम तैयार किया जा रहा है उससे उन्हें कोई खतरा है. दरअसल, संविधान की रक्षा का संघर्ष सिर्फ चंद समुदायों तक तो सीमित नहीं रखा जा सकता ना !
तीसरी बात, आंदोलन को अपना सकारात्मक अजेंडा तैयार करना होगा, उसे एनपीआर-एनआरसी तथा सीएए के विरोध के स्वर से आगे बढ़ते हुए अपनी तरफ से अब एक सकारात्मक कार्यसूची बनानी होगी. हाल के सर्वेक्षण बताते हैं कि सीएए लाने के तर्क से सहमत लोग तक मानते हैं कि ये मुद्दा बेरोजगारी और व्यापक आर्थिक संकट की स्थिति से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए लाया गया है. मैंने सुझाव है कि दो छोरों को एक साथ जोड़ने का एक तरीका है कि बेरोजगारों की एक राष्ट्रीय पंजी यानि नेशनल रजिस्टर ऑफ द अन्एम्पलॉय़ड तैयार कि जाये.
चौथी बात, विरोध-प्रदर्शन के स्वरुप और स्थान में बदलाव की जरुरत है. अब जोर इस बात पर होना चाहिए कि विरोध-प्रदर्शन महानगरों और बड़े शहरों तक केंद्रित ना रहकर छोटे शहरों और गांवों तक पहुंचे. शहरों में होने वाली रैलियां अब मुहल्लों में होने वाली बैठकों का रुप ले लें. लोगों के पास पहुंचकर, उनके दरवाजे तक जाकर अब आंदोलन की बातों को कहने पर जोर देना होगा. जहां तक विरोध-प्रदर्शन के स्वरुप का सवाल है, एक उत्तरप्रदेश को छोड़ दें तो देश में बाकी जगहों पर विशेष शक्ति-प्रदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती.
अब जोर शाहीन बाग सरीखे विरोध-प्रदर्शन पर दिया जाना चाहिए जो लोगों के बीच कहीं ज्यादा हमदर्दी जगा सकता है और संवाद को भी बढ़ावा दे सकता है. राष्ट्रीय एकता के भाव को जगाने-जताने के लिए विभिन्न समुदाय के लोगों के बीच सहभोज और विभिन्न धर्म-समुदाय के परिवारों के बीच संवाद को बढ़ावा देना भी जरुरी है.
पांचवीं बात, आंदोलन में तालमेल बैठाना जरुरी है. बेशक आंदोलन अपने स्वभाव में स्वत:स्फूर्त है और आंदोलन के इस चरित्र को बरकरार रखा जाना चाहिए लेकिन अगल-अलग हिस्सों मे चल रहे विरोध-प्रदर्शनों में उठ रही मांगों के बीच तालमेल बैठाना, आंदोलनी गतिविधियों में समन्वय करना और आंदोलन में शामिल विभिन्न संगठनों के बीच सहकार कायम करना भी अब जरुरी हो चला है. सत्तापक्ष ने दुष्प्रचार की महामुहिम ही चला रखी है तो ऐसे में दुष्प्रचार की काट के लिए कोई ना कोई उपाय तो सोचना होगा.
इस सिलसिले की आखिरी बात, सरकार चाहे दमन पर उतारु हो लेकिन इसका सामना पूरे अनुशासन का पालन करते हुए अहिंसा के रास्ते होना चाहिए. प्रदर्शनकारियों ने अभी तक गजब के संयम और समझदारी का परिचय दिया है लेकिन अगले चरण में होने वाले दमन का सामना करने में ये शायद पर्याप्त साबित ना हो. सो, जो स्वयंसेवक पहली बार किसी सार्वजनिक धरना-प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं उन्हें अनुशासन और प्रशिक्षण के बेहतर पाठ सिखाने की जरुरत होगी.
दो माह से चल रहा समान नागरिकता का आंदोलन हमारे गणराज्य के इतिहास का एक निर्णायक क्षण है. वक्त के इस मुकाम पर पहुंचकर ये आंदोलन अपनी संभावनाओं को साकार करते हुए 'भारत' के विचार को नया जीवन दे सकता है, सच्चे अर्थों में 'भारत जोड़ो आंदोलन' बन सकता है !
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)