पुलवामा आतंकी हमला: बस अब बहुत हो गया सहते-सहते, अब कुछ करना होगा -ज्ञानेन्द्र रावत

आज से पांच साल पहले संप्रग सरकार के दौरान वर्तमान केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अगस्त 2013 में ऐसे ही एक हमले के दौरान कहा था कि केन्द्र सरकार बताये कि अभी और कितने भारतीय बहादुर सैनिकों की जरूरत पड़ेगी। यही नहीं गिरिराज सिंह ने कहा था कि अगर आज देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होते तो हम लाहौर तक पहुंच गए होते।

Update: 2019-02-21 14:36 GMT


आज देश बीते दिनों जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए पाक समर्थित जैश-ए-मुहम्मद के आतंकियों के हमले में सीआरपीएफ के 43 जवानों की शहादत से स्तब्ध है, दुखी है, आक्रोशित है। गम और गुस्से से भरे समूचे देश में सर्वत्र यही आवाज उठ रही है कि इस कायराना कारनामे का मुंहतोड़ जबाव दिया जाये। अपने सपूतों के बलिदान से गौरवान्वित परिवारों की एक ही मांग है कि अब ऐसा करने वालों को ऐसा सबक सिखाया जाये कि भविष्य में किसी मां की गोद, किसी पत्नी का सुहाग न उजड़े और न किसी बेटे-बेटी के उपर से पिता का साया हमेशा-हमेशा के लिए उठे। अपने सपूतों को अंतिम विदाई देते वक्त भी मौजूद हजारों नम आंखों में बस एक ही ख्वाहिश थी कि हमारी सेना ऐसा जबाव दे कि पाकिस्तान और उसके दम पर पलने वाले आतंकियों की पुश्तें तक याद रखें।


वैसे हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं कि -''हम किसी को छेड़ते नहीं हैं और यदि हमें छेड़ा जाता है तो हम छोड़ते भी नहीं हैं। दिवालिया होने के कगार पर खड़ा पाकिस्तान आतंक का पर्याय बन गया है। ऐसी हरकत करने वालों को न माफ करेंगे, न भूलेंगे। आतंकी संगठनों, उनके सरपरस्तों ने जो गुनाह किया है, वे चाहे कितनी भी छिपने की कोशिश करें, उन्हें सजा जरूर दी जायेगी। मैं बहादुर सैनिकों और उनको जन्म देने वाली माताओं को नमन करता हूं। अपनों को खोने वाले हर परिवार को मैं आश्वासन देना चाहता हूॅं कि उनके हर आंसू का हम हिसाब लेंगे। इसकी पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी होगी। वह कह रहे हैं कि आतंक के सौदागरों के खात्मे के लिए सेना को कार्यवाही करने, समय और जगह चुनने की खुली छूट है। आतंकियों ने बहुत बड़ी गलती की है, इसकी उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। भारत को अस्थिर करने का पाकिस्तान का सपना कभी पूरा नहीं होगा।''


गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं कि- ''हमारे जवानों का बलिदान बेकार नहीं जायेगा। हमले का कड़ा जबाव दिया जायेगा।'' वित्तमंत्री अरुण जेटली भी सिंहनाद करने में पीछे नहीं हैं। वह कहते हैं कि -''आतंकियों को न भूलने वाला सबक देंगे।'' असलियत यह है कि ऐसा होना भी चाहिए। देश सर्वोपरि है, उसकी रक्षा के लिए जो भी किया जाये वह कम है।


आज समूचा देश इस कार्यवाही का मुॅंहतोड़ जबाव देने के लिए एकजुट है। विपक्षी दल भी कंधे से कंधा मिलाकर सरकार के साथ हैं। यह राष्ट्र् की एकता और अखंडता का सवाल है। इस बारे में मतभेद होना भी नहीं चाहिए। इस हमले का मुॅंहतोड़ जबाव देना समय की मांग है। जहां तक बयानबाजी का सवाल है, जो इस हमले के बाद देश की सत्ता पर काबिज नेतृत्व द्वारा दिये जा रहे हैं, इन पर आखिर भरोसा कैसे किया जाये। जबकि देश में इस तरह के बयान दिया जाना हर हमले के बाद सरकार में बैठे महामहिमों द्वारा रस्म अदायगी बन कर रह गया है। एक सिर के बदले दस सिर लायेंगे, शहादत का बदला जरूर लिया जायेगा, हम चुप नहीं बैठेंगे, अन्दर घुसकर मारेंगे, यह भी एक जुमला बनकर रह गया है।


यहां इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि आज से पांच साल पहले संप्रग सरकार के दौरान वर्तमान केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अगस्त 2013 में ऐसे ही एक हमले के दौरान कहा था कि केन्द्र सरकार बताये कि अभी और कितने भारतीय बहादुर सैनिकों की जरूरत पड़ेगी। यही नहीं गिरिराज सिंह ने कहा था कि अगर आज देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी होते तो हम लाहौर तक पहुंच गए होते। ऐसे बयानों की और बयानवीरों की सूची बहुत लम्बी है। किस-किस की चर्चा करें। अब तो बात आज की है।


आज नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। आज देश टकटकी लगाए उनकी ओर देख रहा है कि आखिर वह क्षण कब आयेगा जब हमारे वीर सपूतों के बलिदान का बदला लिया जायेगा और कब देश की रक्षा की खातिर अपना सर्वस्व बलिदान देने वाले शहीदों के रक्तरंजित शवों को देख उनकी मांओं, पत्नियों, बहनों, परिजनों और देशवासियों के आंसुओं की बहती धार थमेगी और उनके हृदय को शांति मिलेगी। अब जरूरत इसकी है कि-'' क्षमा दया अब छोड़ो भाषा बोलो फौलादों की, खाल खींच लो आतंकवाद की नाजायज औलादों की। भूल यदि होती है तो भूल सुधारी जाती है, और कुत्ते यदि पागल हो जाये ंतो गोली मारी जाती है।।'' आज देश यही चाह रहा है।


जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, इतिहास गवाह है कि उसने 1965,1971, कारगिल युद्ध और सर्जिकल स्ट्र्ाइक से कोई सबक नहीं सीखा। उसके बारे में हमारे थल सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत का कथन एकदम सटीक और सही है। उनका मानना है कि इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पाकिस्तान की जमीनी हकीकत में कोई बदलाव नहीं आया है। वह ज्यों की त्यों है। जहां तक अलगाववादियों से बातचीत किये जाने का सवाल है, उनसे बातचीत तभी संभव है जब वह बंदूकें एक तरफ किनारे रखें और पाकिस्तान से मदद लेना बंद कर दें। बात सिर्फ तभी होगी जब हिंसा बंद होगी।


विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार की मानें तो असलियत यह है कि पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को शह दिया जाना बराबर जारी है और तो और उसके मंत्री अंर्तराष्ट्र्ीय स्तर पर आतंकवादियों के साथ मंच साझा करते हैं। जो लोग बातचीत के जरिये मसला हल करने की बात करते हैं, पाकिस्तान के साथ वार्ता तभी संभव है जबकि पहले पाकिस्तान मुंबई और पठानकोट आतंकी हमले में शामिल आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही करे। होता यह है कि बातचीत के बाद मामला भुला दिया जाता है। सच तो यह है कि अगर पाकिस्तान असलियत में भारत के साथ दोस्ताना सम्बंध बनाने के हक में है तो इस तरह की आतंकी गतिविधियों को अंजाम नहीं दिया जा रहा होता। पाकिस्तान वही कर रहा है जो हमेशा से होता आया है। उसके रवैये में बदलाव की उम्मीद बेमानी है।


गौरतलब है कि अक्सर पाकिस्तान के बचाव में चीन आड़े आता रहा है। सुरक्षा परिषद में चीन का रवैया इसका ज्वलंत प्रमाण है। सच यह भी है कि अमरीका के बाद अब चीन पाकिस्तान का सबसे बड़ा मददगार और संरक्षक है। उसके द्वारा पाक के लिए युद्धपोत का निर्माण और जमीन से अंतरिक्ष तक मार करने वाली घातक सेना का गठन कम चिंतनीय नहीं है। यह भी कि हम चीन के मुकाबले काफी पीछे हैं। चीन के रवैये से अमरीका भी कम चिंतित नहीं है। उसका 'एशिया रिएश्योरेंस इनीशियेटिव एक्ट' चीन से निपटने की रणनीति का ही एक हिस्सा है। यह कानून चीन के बढ़ते प्रभुत्व को कम करने की दिशा में जापान, भारत और आस्ट्र्ेलिया जैसी प्रमुख क्षेत्रीय ताकतों से सहयोग को बढ़ाने में अहम् भूमिका निबाहेगा। इसकी धारा 204 में स्पष्ट है कि अमरीका खासतौर से भारत के साथ राजनयिक, आर्थिक और सुरक्षा मामलों में सम्बंधों को और प्रगाढ़ बनायेगा। लेकिन चीन की बढ़ती ताकत, हिन्द महासागर में अपने मित्र पाकिस्तान के जरिये अपनी मौजूदगी से भारत को घेरने की रणनीति, तमाम छोटे-मोटे बंदरगाहों को खरीदकर भारत को चारो तरफ घेरने की कोशिश, जनवरी की शुरूआत में राष्ट्र्पति शी जिनपिंग द्वारा सीएमसी के शीर्ष अधिकारियों की बैठक में पीएलए को देश को अभूतपूर्च जोखिम और चुनौतियों का सामना करने के लिए युद्ध के लिए तैयार रहने का निर्देश यह साबित करते हैं कि मोदी जी चाहे कितना चीन के प्रति दोस्ताना रुख अपनाएं, चीन आज भी बदला नहीं है।


ऐसी स्थिति में अमरीकी सहयोग महत्वपूर्ण जरूर है लेकिन यह कटु सत्य है कि अमरीका हमारा कभी भी सामरिक सहयोगी नहीं रहा है। अमरीकी नीतियां उसकी जरूरतों के हिसाब से बदलती हैं, वह किस सीमा तक भारत का साथ निभा पायेगा। यह कहा नहीं जा सकता। उसके संबल की भी सीमायें हैं। रूस जरूर भरोसेमंद है। इसका इतिहास गवाह है। उसपर आंख बंदकर विश्वास किया जा सकता है। फिर हमारी सेना की वीरता, साहस, पराक्रम और शौर्य से समूची दुनिया भलीभांति परिचित है। खासकर पाकिस्तान को गलतफहमी में तो कदापि नहीं रहना चाहिए। 1971 इसका जीता-जागता सबूत है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलता जब किसी देश के 92 हजार सैनिकों ने किसी देश के समक्ष आत्म समर्पण किया हो। इसलिए भारत को अपनी क्षमता खुद अर्जित करनी होगी, अमरीका के भरोसे रहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। फिर भी मौजूदा समय में पाकिस्तान के खिलाफ अमरीका और इजराइल समेत अन्य 25 प्रमुख देशों का भारत को समर्थन अच्छी खबर है।

यहां अहम् सवाल यह है कि आखिर इस हमले के पीछे देश की खुफिया एजेंसियों द्वारा दी गई पूर्व सूचनाओं को नजरअंदाज क्यों किया गया। जबकि खुफिया एजेंसियों द्वारा इसके बारे में तकरीब एक सप्ताह पहले सचेत कर दिया गया था। इसे दरगुजर नहीं किया जा सकता कि यह हमला खुफिया सूचनाओं को नजरअंदाज किये जाने का ही नतीजा है जिसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ा है। आखिर ऐसा बार-बार क्यों होता है। इसका जबाव किसी के पास नहीं है। यह देश के गृह और रक्षा विभाग की कार्य प्रणाली पर सवालिया निशान लगाता है। और इसकी नाकामी में अहम यह भी है कि-'' यूं ही बुझ गए चिराग कई घरों के, गद्दारों के बीच कोई अपना जरूर रहा होगा।'' इसलिए यह सच है कि अब उस स्थिति में जब विश्व जनमत आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में हमारे साथ खड़ा है। हमें आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान के खिलाफ कदम उठाना ही होगा। असल में अब सहते-सहते बहुत हो गया, भारत को पाकिस्तान को करारा जबाव देना ही होगा। इसके सिवाय कोई चारा नहीं है।   

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