126 साल पहले शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने किया था भारत का प्रतिनिधित्व, जिसमें हिंदू धर्म के लिए कही ये बात
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है।
नई दिल्ली। गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर ने कहा था कि अगर भारत को समझना हो तो स्वामी विवेकानंद को पढ़ना पड़ेगा. 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ. इस सम्मेलन में भारत से स्वामी विवेकानंद भी शामिल हुए. अंग्रेजों के गुलाम देश भारत के बारे में पश्चिमी देशों को बेहद कम जानकारी थी. (तब गूगल नहीं था) स्वामी विवेकानंद के उस संबोधन ने भारत और हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कुछ ऐसे किया कि आज 126 साल बीत जाने के बाद भी हम उसकी चर्चा कर रहे हैं. दुनिया के संभवत: सबसे ज्यादा पसंद किए गए और प्रभावी भाषणों में स्वामी विवेकानंद का यह भाषण शीर्ष पर विराजमान है।
11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद का पूरा भाषण पढ़िए.
"अमेरिका के बहनो और भाइयो, आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है. मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं. मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है. मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था. और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।
भाइयों, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिन्हें मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज़ करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है - 'रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम... नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव...' इसका अर्थ है - जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, जो देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, परंतु सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता से लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिंकजों में जकड़े हुए हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है. कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं. अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कईं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है. मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
बतादे कि विवेकानंद के शिष्यों ने उनकी शिकागो यात्रा के सारे इंतजाम कर लिए थे। शिष्यों ने अपनी गुरू की यात्रा के लिए चंदा कर धन जुटा लिया था। हालांकि, स्वामी विवेकानंद ने शिष्यों का जुटाया हुआ धन लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने शिष्यों से कहा कि वह ये सारा धन गरीबों में बांट दें। बताया जाता है कि इसके बाद विवेकानंद की अमेरिका यात्रा का पूरा खर्च राजपूताना के खेतड़ी नरेश ने उठाया था। कहा ये भी जाता है कि खेतड़ी नरेश ने ही धर्म सम्मेलन में जाने के लिए नरेंद्र को विवेकानंद का नाम दिया था। हालांकि, कुछ लोगों का ये भी मानना है कि नरेंद्र को विवेकानंद का नाम उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने दिया था।
स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था। इसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की। विवेकानंद ने 31 मई 1893 को मुंबई से अपनी विदेश यात्रा शुरू की। मुंबई से वह जापान पहुंचे। जापान में नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो का उन्होंने दौरा किया। इसके बाद वह चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो शहर में पहुंचे थे।