बेलगाम नौकरशाही और सिसकता लोकतंत्र
एक वाक्य बीते दो-तीन सदी से हमारी जेहन में पैवस्त है- “क्यों माने तुम्हारी बात? कहीं के कलेक्टर हो क्या?”
एक वाक्य बीते दो-तीन सदी से हमारी जेहन में पैवस्त है- "क्यों माने तुम्हारी बात? कहीं के कलेक्टर हो क्या?"
दरअसल, अंग्रेजी शासनकाल में कलेक्टर अपने जिले का वह तानाशाह होता था, जो जैसे चाहे जनता को हांक सकता था. लेकिन आजादी के बाद देश के नागरिकों को कई सारे संवैधानिक अधिकार तो मिले लेकिन कलेक्टर का रूतबा औऱ मानसिकता दोनों ही दो-तीन सदी पुरानी ही रही. लिहाजा जब-तब ऐसे प्रकरण हमारे सामने आ जाते हैं, जिसमें देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ती हुई दिखती है और पूरी नौकरशाही सहित सत्ता उसके बचाव में आ जाती है और मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है और बेचारी जनता "महान लोकतंत्र" की तख्ती हाथों में लिए सिसकती हुई दिखती है.
हाल में दो प्रकरण सामने आएं है और ये दोनों प्रकरण नौकरशाही के प्रति आम जनता में गुस्से का संचार तो कर ही रहे हैं, नौकरशाह जमात को भी आत्ममंथन करने के लिए सदा दे रहे हैं. पहला वाकया त्रिपुरा का है, जहां एक कलेक्टर की रौब से न केवल एक परिवार बल्कि 25 अन्य लोग सार्वजनिक तौर पर अपमानित हुए. इस प्रकरण का एक वीडियो वायरल हुआ तब जा कर देश भर से इसके खिलाफ आवाज उठी. वीडियो एक विवाह समारोह का है. वर है, वधु है, विवाह की वेदी है, मेहमान हैं, और विवाह संस्कार सम्पन्न कराने वाले पुरोहित भी हैं. विवाह की प्रक्रिया चल रही है. लोग इस कोरोना काल के आफत में भी जैसे-तैसे यह मांगलिक कार्य सम्पन्न करा ही रहे हैं.
अचानक फिल्मी अंदाज में कलेक्टर साहब का मैरेज हाल में आगमन होता है और वे धमकाते हैं और कहते हैं सबको लॉक अप में ले चलो. जब उन्हें अनुमति पत्र दिखाया जाता है तो, वे उसे फाड़ देते हैं और सबसे कहते हैं कि बंद करो यह सब और बाहर निकलो. फिर वे मेहमानों को पीटते हैं, वर को उसके मुकुट सहित खींचते हैं, पीटते हैं, और उनके इस बदतमीजी से बेचारे पंडित जी भी नहीं बचते हैं और वे भी पिट जाते हैं. जब कलेक्टर का हाथ उठ गया तो सिपाही तो धुनने ही लगेंगे. और कहाँ तो यह शादी हो रही थी, पर अब सब को हवालात में बंद होने की नौबत आ गयी. सवाल उठता है कि क्या एक कलेक्टर का ऐसा व्यवहार कानून की दृष्टि से उचित है ? सरकार ने मामले को तूल पकड़ता देख, इस पर कार्यवाही करते हुए उनकी कलेक्ट्री छीन ली तथा निलंबित भी किया
कलेक्टर को धारा 144 सीआरपीसी में या, अन्य निरोधात्मक प्राविधानों में, निषेधाज्ञा जारी करने का अधिकार है , किंतु एक कलेक्टर या मैजिस्ट्रेट को इस प्रकार की डंडेबाजी नहीं करनी चाहिए. कानून व्यवस्था के बड़े मामलों में ऐसी हरकतें थोड़ी बहुत चल भी जाती हैं, पर ऐसे निजी समारोह में यह सब बिल्कुल ही नहीं किया जाना चाहिए. अगर विवाह समारोह वाले चाहे तो अपने नुकसान की भरपाई के लिये अदालत में दावा भी ठोंक सकते हैं, और यदि ऐसा दावा वे ठोकते भी हैं तो यह कलेक्टर साहब के लिये एक निजी मुकदमा होगा.
दूसरा वाकया है छत्तीसगढ़ के सूरजपुर का. जिले के कलेक्टर रणवीर शर्मा ने कोरोना लॉकडाउन के दौरान अपनी प्रशासनिक हनक का बेजा इस्तेमाल करते हुए एक बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार किया कि पूरे देश में उनके व्यवहार का आलोचना हो रही है. सूरजपुर में कोरोना लॉकडाउन को लागू कराने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी लेकिन कलेक्टर होने की हनक में वो अपना आपा खो बैठे और काम से बाजार आए एक बच्चे का पहले तो मोबाइल लेकर सड़क पर पटक दिया. इसके बाद उसे थप्पड़ मारा और पुलिस वाले से डंडे भी पड़वाए. लेकिन कलेक्टर साहब की किस्मत ही खराब थी कि ये पूरा वाकया मोबाइल में कैद हो गया. थोड़ी ही देर में सोशल मीडिया में ये वीडियो वायरल भी हो गया. ट्विटर पर कलेक्टर और सस्पेंड रणवीर सिंह आईएएस ट्रेंड करने लगा. ऐसे में छत्तीसगढ़ सरकार के भी कान खड़े हो गए. हर कोई कलेक्टर साहब के खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए जाने की मांग करने लगा.
बात बिगड़ती देख कलेक्टर साहब ने देर रात माफी मांगते हुए वीडियो भी जारी कर दिया. प्रशासनिक ताकत की हनक में किए कारनामे की सोशल मीडिया पर तस्वीरें और वीडियो वायरल हुए तो कलेक्टर साहब लॉकडाउन की दुहाई देते हुए विक्टिम कार्ड खेलने लगे. हालांकि उनका माफीनामा कम, आरोप पत्र ज्यादा नजर आया. जिसमें वो लड़के की गलतियां गिनाते और इस बात की सफाई देते दिखे कि जिसे उन्होंने मारा था वो नाबालिग नहीं है. जैसे ही डीएम साहब ने अपना माफीनामा जारी किया वो एक बार फिर ट्विटर पर ट्रोल हो गए. इस बार अपोलॉजी उनके वीडियो के साथ ट्रेंड करने लगा. .
कलेक्टर साहब को दूसरी बार ट्रोल इसलिए भी किया गया क्योंकि उन्होंने अपने माफीनामे में यह कह रहे हैं कि उन्होंने जिसे थप्पड़ मारा वो नाबालिग नहीं है. ऐसे में लोग उनसे पूछ रहे हैं कि अगर वो बालिग भी है तो क्या उसका मोबाइल छीनकर फेंक दोगे? क्या आपको थप्पड़ मारने का हक है? इसके बाद डंडे से पिटवाने का क्या? ध्यान रहे, असाधारण परिस्थितियों से परे यूं जनता को डंडा, थप्पड़ मारने का अधिकार ना तो कलेक्टर को है, ना एसपी को है ना पुलिस को है, यहां तक कि देश के प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति भी अपने देश के नागरिक को यूं नहीं पीट सकते।
इन दोनों प्रकरणों के बारे में देश को जानकारी सोशल मीडिया से मिली. भला हो आज के इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया ने जनता को एक ताकत दी है और ऐसे बेहुतेरे नौकरशाहों के हनक, सनक, व्याप्त अहंकार, जिद औऱ बदतमीजी इस सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हुई है.
वैसे देश में बददिमाग नौकरशाहों के जुल्मों-सितम,सनक के दास्तानों की लंबी फेहरिस्त है. यह परम शक्तिशाली होते हैं, चाहे ये कुछ भी कर लें, अमूमन तो इनके खिलाफ आमतौर पर कोई खड़े होने की हिम्मत नहीं करता और यदि कभी कभार फंस भी गए तो येन केन प्रकारेण बच ही जाते हैं. प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया, उनकी ट्रैनिंग, अकादमी,उनके अधीन सरकारी अमला और हम सब मिलकर, साल दो साल के भीतर ही उनके दिमाग में यह कील ठोंककर बिठा देते हैं कि प्रभु आप अब आम जनता से ऊपर, विलक्षण माननीय महापुरुष हैं, अब आप प्रशासनिक सेवा में है अर्थात जनता पर शासन करने का वैधानिक अधिकार आपके हाथों में सिमट गया है, यह अपने चयन के साक्षात्कार के पहले सवाल का अपना जवाब ही भूल जाते हैं ,जब इन्होंने साक्षात्कार मंडल को बड़ी शिद्दत और होशियारी से समझाया था चीन के दिलों में जनता की सेवा का सागर हिलोरे ले रहा है और जनता की सेवा करने के लिए बेताब हैं. सिविल सेवा अर्थात लोक सेवा को देश के प्रशासन का इस्पाती ढांचा कहा जाता है. पर 'लोक सेवा' का कौन सा अर्थ लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी मसूरी के सिलेबस में पढ़ाया जाता है , असल सिलेबस और उसका उद्देश्य क्या है या इसे फिर से समझने और पुन:परिभाषित करने की जरूरत है.
कोरोना से देश को बचाने के नाम पर कहीं कर्फ्यू लगा है तो कहीं धारा 144, और कहीं इन सारी धाराओं से ऊपर अधिकारियों और पुलिस का साझा लाठी का तंत्र हावी है.और यह मैं पूरी जिम्मेदारी से अपनी आंखों देखी वारदातों के आधार पर कह रहा हूं. ऐसा नहीं है कि सारे अधिकारी तथा सारी पुलिस बुरी ही है , इनमें अच्छे लोग भी हैं, पर एक तो यह संख्या में कम हैं, दूसरा ऐसे लोग प्रायः ऐसे निर्णायक मौकों पर बतसंख्यक साथियों के विरोध में खड़े होने के बजाय चुप रह जाना ज्यादा श्रेयकर समझते हैं.
दक्षिण भारत में ऐसी फिल्मों की भरमार है जिनमें आईएएस, आईपीएस थानेदार जैसे अधिकारी रॉबिनहुड बंन कर सारे नियम कानूनों को डंडे और जूतों की नोक पर रखकर सड़कों तथा गलियों में न्याय करते दिखाई देते हैं. इस नई अराजक परंपरा का मुग्ध समाज द्वारा महिमा मंडन व प्रशासन द्वारा अनुसरण समाज के लिए बेहद घातक है. यह रास्ता सामाजिक अराजकता की ओर ले जाता है। संपूर्ण घटनाक्रम में एक अच्छी बात है या कहीं जाएगी कि, इस घटना की गंभीरता तथा इसके निहितार्थों को समझते हुए, छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इस पर तत्काल कार्यवाही करते हुए नौकरशाही को एक संदेश दिया. निश्चित रूप से यह काबिले तारीफ है. किंतु ऐसे मामलों में ऐसे अधिकारियों को इनकी शक्तिशाली लॉबी के सुरक्षा चक्र से बाहर निकाल कर, निष्पक्ष जांच कर कठोर सजा भी दी जानी चाहिए. इस प्रकरण में आईएएस लॉबी ने भी समझदारी का परिचय देते हुए इस घटना की निंदा की है उम्मीद की जाती है कि अंदरखाने ऐसे अधिकारियों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए. कुछ लोगों ने इस अधिकारी को ब्राह्मण जाति से जोड़ते हुए भूपेश बघेल पर ब्राह्मण विरोधी होने का भी निशाना साधा है. यह संकीर्ण मानसिकता और घटिया राजनीति मात्र है. इस से परहेज किया जाना चाहिए.
महीनों महीनों से चल रहे लॉकडाउन के चलते लोगों का काम धंधा, मजदूरी, व्यवसाय, खेती का काम सब कुछ ठप्प पड़ा है. आज वक्त की जरूरत है कि प्रशासन जनता के घावों पर मरहम लगाए, और अगर मरहम नहीं लगा सकती तो कम से कम नमक छिड़कने से बाज आए . क्योंकि साहब यह जनता है, और इतिहास गवाह है कि इसके सब्र का इंतिहान लेना कभी-कभी महंगा भी पड़ जाता है.
डॉ राजाराम त्रिपाठी
राष्ट्रीय संयोजक: अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)