भाजपा ही नहीं कांग्रेस की भी उडी हैं नींद, क्या शिवपाल की चाभी से लग सकता है सपा बसपा की खुशियों पर ताला?
वहीं कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन के साथ कुछ सीटों पर रणनीतिक तौर पर दोस्ताना संघर्ष का रास्ता भी निकाल सकती है। यानी जिन सीटों पर कांग्रेस मजबूत स्थिति में होगी वहां सपा-बसपा गठबंधन ऐसा उम्मीदवार उतारेगा जो बीजेपी के वोट काटकर कांग्रेस की जीत आसान करें।
उत्तर प्रदेश में बुआ बबुआ (सपा - बसपा) गठबंधन के एलान के बाद भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस की नींद उड़ी हुई है। पहले कांग्रेस को उम्मीद थी कि वह इस गठबंधन का हिस्सा होगी। लेकिन शनिवार को मायावती और अखिलेश यादव ने सयुंक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस करके भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पर भी बराबर निशाना साधा। इससे घबराई कांग्रेस ने रविवार को बेतुका जवाब देते हुए अपने दम पर अकेले यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। इससे पहले कांग्रेसी नेता दावा कर रहे थे कि कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन में शामिल होने से छूट गई पार्टियों को लेकर एक अलग मोर्चा बनाकर चुनाव में उतरेगी। उत्तर प्रदेश के प्रभारी कांग्रेस महासचिव ग़ुलाम नबी आज़ाद ने अपने दम पर राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर के अपनी पार्टी के तमाम नेताओं के दावों की हवा निकाल दी।
राहुल गाँधी के निर्देश पर हुआ यह एलान
सबसे पहले बात करते हैं कि आखिर कांग्रेस को यह एलान क्यों करना पड़ा। शनिवार को मायावती और अखिलेश यादव की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद कांग्रेस के उत्तर प्रदेश से जुड़े सभी नेताओं की एक अहम बैठक हुई। इस बैठक में उत्तर प्रदेश के प्रभारी कांग्रेस महासचिव ग़ुलाम नबी आज़ाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर उत्तर प्रदेश विधायक दल के नेता समेत उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी और संजय सिंह मौजूद थे। इस बैठक में प्रदेश के मौजूदा सियासी हालात और सपा-बसपा गठबंधन के बाद कांग्रेस की रणनीति पर चर्चा हो रही थी। सूत्रों के मुताबिक़, इसी बैठक के बीच ग़ुलाम नबी आज़ाद की कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से बातचीत हुई। और उसी बातचीत में यह तय हुआ कि आज़ाद ख़ुद लखनऊ जाकर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करें। साथ ही यह भी तय हुआ कि सपा-बसपा गठबंधन के ख़िलाफ़ बहुत ज्यादा तीखे है तेवर नहीं दिखाई जाएं और छोटी पार्टियों को साथ आने का रास्ता भी खुला रखा जाए। इसीलिए ग़ुलाम नबी आजाद ने 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि जो पाटियाँ बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस के साथ आना चाहती हैं, उनका स्वागत है।
यूपी में बीजेपी विरोधी खेंमें का द्रोम्दर मुसलिम वोटों पर टिका दरअसल कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने का दाम इसलिए भर रही है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि लोकसभा के लिए होने वाले चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर में मुस्लिम वोटों का बड़ा तबका सपा-बसपा गठबंधन के बजाय उसके साथ आ जाएगा। ऐसा उसे इसलिए लगता है कि हाल ही में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को हराने के बाद देश भर के मुस्लिम समुदाय में यह संदेश गया है कि मोदी से सिर्फ कांग्रेस लड़ सकती है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ही वोट देना चाहिए। कुछ मुस्लिम संगठन पर्दे के पीछे इस तरह की मुहिम चला रहे हैं।
कांग्रेस के डाटा एनालिसिस विभाग ने फीडबैक दिया है कि यूपी में मुसलमानों के बड़े तबके का रुझान कांग्रेस की तरफ है। ऐसी स्थिति में अगर कांग्रेस अपने बलबूते मजबूत उम्मीदवार उतार कर चुनाव लड़ती है तो समुदाय के बड़े हिस्से का वोट उसे मिल सकता है।
ज़मीनी हकीक़त कुछ और है
कांग्रेस भले ही उत्तर प्रदेश में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रही हो लेकिन जमीनी हकीक़त यह है कि उसकी हैसियत 60 से ज्यादा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की है ही नहीं। बहुत सी सीटों पर तो उसे ढूंढे भी उम्मीदवार नहीं मिल पा रहे। लखनऊ में विशेष रूप से प्रेस कॉन्फ्रेंस करने आए आज़ाद जब कांग्रेस के सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे थे तब वह शायद यह बात भूल गए कि पिछले 5 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे रहे हैं।
1998 के बाद से 2014 तक कांग्रेस 60 से 70 सीटों पर ही चुनाव लड़ती रही है। 1998 में तो कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला था और 2009 में कांग्रेस ने आम चुनाव में 21 सीटें जीती थी। बाद में उपचुनाव में एक सीट जीतकर वो 22 सीटों के साथ समाजवादी पार्टी के साथ प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। तब 2009 में उस का वोट प्रतिशत सबसे अधिक 18.5 था। 2004 में कांग्रेस 12% वोटों के साथ 9 सीटें जीत पाई थी जबकि इससे पहले 1999 में रालोद के साथ गठबंधन करके कांग्रेस ने 14.72% वोट हासिल किए थे और 10 सीटें जीती थी।
पिछले चुनाव में थी सबसे ख़स्ता हालत
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की भारत 1998 के बाद सबसे ख़स्ता रही है पिछले चुनाव में कांग्रेस कुल 66 सीटों पर ही लोकसभा का चुनाव लड़ा था। कुल 7.5% वोटों के साथ कांग्रेस ने महज़ दो लोकसभा सीटें जीत पाई थी। रायबरेली से सोनिया गांधी तो 3,52,713 वोटों से चुनाव जीती थी। अमेठी में राहुल गांधी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से सिर्फ 1,07,903 वोटों से जीत पाए थे। इनके अलावा 6 सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी लेकिन इन सभी सीट हार जीत का बड़ा अंतर था। सबसे कम अंतर सहारनपुर सीट पर था। यहां इमरान मसूद 65 हजार वोटों से हारे थे। उसके बाद कुशीनगर लोकसभा सीट पर पूर्व मंत्री आरपीएन सिंह 85,540 वोट से हारे थे।
सबसे ज्यादा वोटों से हारे थे गाजियाबाद से राज बब्बर उन्हें विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह के मुकाबले 567676 से हार का सामना करना पड़ा था। बाराबंकी से पी एल पुनिया 2,11,000 वोटों से हारे थे तो कानपुर से श्री प्रकाश जयसवाल 2,22,000 वोटों से चुनाव हारे थे। वहींं लखनऊ से गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सामने रीता बहुगुणा 2,72,000 वोटों से चुनाव हारी थींं। कांग्रेस के करीब 50 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी।
सपा-बसपा से दोस्ताना संघर्ष
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की इतनी ज्यादा खस्ता हालत के बाद बावजूद अगर वह 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का दम भर रही है तो इसके पीछे कोई ना कोई रणनीति जरूर है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने संकेत दिए हैं कि आख़िरी समय पर कांग्रेस कुछ छोटे दलों के साथ गठबंधन कर सकती है। वहीं कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन के साथ कुछ सीटों पर रणनीतिक तौर पर दोस्ताना संघर्ष का रास्ता भी निकाल सकती है।
वहीं कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन के साथ कुछ सीटों पर रणनीतिक तौर पर दोस्ताना संघर्ष का रास्ता भी निकाल सकती है। यानी जिन सीटों पर कांग्रेस मजबूत स्थिति में होगी वहां सपा-बसपा गठबंधन ऐसा उम्मीदवार उतारेगा जो बीजेपी के वोट काटकर कांग्रेस की जीत आसान करें। ठीक इसी तरह जिन सीटों पर गठबंधन का उम्मीदवार मजबूत होगा वहां कांग्रेस ऐसे उम्मीदवार उतारेगी जो बीजेपी के ज्यादा से ज्यादा वोट काटकर गठबंधन के उम्मीदवार की जीत का रास्ता आसान कर दे। दोस्ताना संघर्ष 10-15 सीटों पर ही मुमकिन है। सपा-बसपा गठबंधन हर हालत में 50-60 सीटें जीतना चाहता है।
शिवपाल से गठबंधन पर संशय
कांग्रेस में शिवपाल यादव की पार्टी प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी के साथ किसी भी तरह के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठबंधन को लेकर पार्टी में संशय बना हुआ है। दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक सूत्री कार्यक्रम पर चल रहे हैं कि किसी भी तरह बीजेपी को हराया जाए। इस मक़सद को हासिल करने के लिए जो भी रणनीति बनाई जा सकती है उसे अमली जामा पहना जाए। उनकी नज़र चुनाव के बाद की परिस्थितियों पर है। इन परिस्थितियों में वे सपा-बसपा गठबंधन से समर्थन मिलने की उम्मीद लगाए बैठे हैं।
अगर चुनाव में कांग्रेस शिवपाल यादव के साथ किसी भी तरह का गठबंधन या तालमेल करती है तो अखिलेश यादव सरकार बनाने के लिए समर्थन देने में आनाकानी कर सकते हैं। लिहाज़ा पार्टी के बड़े धड़े का मानना है कि शिवपाल यादव से कांग्रेस को दूरी बनाकर रखनी चाहिए। शिवपाल यादव अगर समाजवादी पार्टी का कुछ नुक़सान अपने गढ़ में कर सकते हैं तो कांग्रेस को उसका फ़ायदा उठाना चाहिए।
कुल मिलाकर फ़िलहाल ऐसा लगता है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का दम भर कर अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरना चाहती हैं। इसीलिए फरवरी के महीने में उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की 12 रैलियों का कार्यक्रम रखा गया है। एन चुनाव के मौके पर परिस्थितियों को भाँप कर वह कुछ छोटी पार्टियों के साथ औपचारिक गठबंधन के अलावा सपा-बसपा गठबंधन केसाद भी कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष का रास्ता निकाल कर ही मैदान में उतरेगी।
हालांकि शिवपाल यादव ने यह भी कह रहे है कि हम प्रदेश में तीसरा विकल्प बनकर चुनाव लड़ेंगे और इस गठबंधन नहीं ठगबंधन से ज्यादा सीटें हासिल करेंगें। सोमवार को उनकी पार्टी को चुनाव चिन्ह चाभी मिल गया है। उन्होंने कहा कि लोकसभा का ताला अब चाभी द्वारा खोला जाएगा। हम इस चुनाव में किंगमेकर बनकर उभरेंगे। इससे भी कांग्रेस को कुछ नई उर्जा मिलाने की उम्मीद है। फिलहाल यूपी के हालतों से जितना बीजेपी भयभीत है उतना है कांग्रेस भी डरी हुई है। लोकसभा का पहला द्वार यूपी के रास्ते ही खुलता है।