अरविंद सिंह
आज पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखरजी पुण्यतिथि है। आज ही के दिन यानि 8 जुलाई 2007 को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में उनका निधन हो गया था। 1983-84 के दौरान उनसे मेरा परिचय हुआ था और तबसे लगातार बना रहा। हालांकि उनसे भावनात्मक लगाव इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान हुआ था लेकिन उनके बारे में वास्तव में जानने समझने का मौका मित्र कृपाशंकर चौबे से मिला। फिर संसद में उनको बहुत करीब से देखा समझा। तमाम मौकों पर उनके साथ देश के बहुत से हिस्सों में गया भी और काफी कुछ लिखा पढ़ा भी। संसद के गलियारों से गुजरते समय देखने वालों को स्वाभाविक हैरत होती थी कि जिस व्यक्ति के पास संगठन या सांसद नाम के हों उसका इतना सम्मान कैसे है।
ऐसा नहीं है कि चंद्रशेखरजी का राजनीतिक जीवन आरोपों से मुक्त था। उनके करीब रहने वाले तमाम लोगों पर सवाल लगते थे। उनके विचारों पर भी लगते थे लेकिन चंद्रशेखर ने कभी परदे की पीछे की राजनीति नहीं की। अच्छे हों या बुरे जो उनके साथ थे वे सामने थे। बागी बलिया का उनका तेवर जीवन भर कायम रहा। वे कांग्रेस और बीजेपी दोनों की राजनीति के विऱोधी थे और नयी आर्थिक नीति के बारे में उनके विचार कभी बदले नहीं। वे चिट्ठियां भी खूब लिखते थे और उसमें खरी खरी बातें लिखते थे। मेरे पास भी उनके हाथ से लिखी कई चिट्ठियां हैं। कभी मौका लगा तो साझा करूंगा।
चंद्रशेखरजी 1962 में प्रजा सोशलिस्ट पाटी से राज्यसभा सदस्य बने तो अपने पहले ही भाषण में पंडित जवाहर लाल नेहरू का मन मोह लिया। उनकी चंद्रशेखरजी से मुलाकात नहीं थी, लेकिन भाषण सुना तो पंडितजी ने बगल में बैठे राजा दिनेश सिंह से पूछ लिया कि ये दाढी वाला नौजवान कौन है ? नेहरूजी की किसी के बारे में अनायास पूछने की आदत नहीं थी। उन्होंने जान लिया था कि आने वाले समय में यह नौजवान नेतृत्वकारी भूमिका में होगा।
संसद में प्रवेश के साथ वे हमेशा आम आदमी के प्रवक्ता और देश की एक मजबूत आवाज बने रहे। उनकी राजनीतिक शक्ति भले सीमित रही हो लेकिन बुनियादी सवालों पर उऩकी आवाज दूर तक जाती थी। उनके कहे शब्दों के मायने होते थे। हर शब्द नाप-तौल कर बोलते थे। चंद्रशेखरजी बोलना आरंभ करते तो जैसे सन्नाटा पसर जाता था। हर कोई उऩकी कही बातों को आत्मसात करने की कोशिश करता था।वे संसदीय गरिमा के प्रतीक थे। उनकी संसदीय पारी लंबी और चार दशकों से अधिक समय की रही।
चंद्रशेखरजी संसद के दोनों सदनों में सदस्य रहे। इस दौरान अपने भाषणों और कार्यकलापों से संसदीय गरिमा को विस्तार दिया। उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार की स्थापना के बाद वे आरंभिक व्यक्ति थे जिनको इससे नवाजा गया। समय के साथ बहुत बड़े-बड़े राजनेताओं के विचार बदलते रहे हैं लेकिन चंद्रशेखरजी अपनी कही बातों पर कायम रहे। धारा के खिलाफ खड़े रह कर वे वह सब कहने का साहस रखते थे जिससे उनका नुकसान भी होता है तो होता रहे। समाजवादी धारा के अपने साथियों के मदद के प्रति वे हमेशा तत्पर रहे।
वे मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र को हम तभी सुचारू रुप से चला सकते हैं जब आपसी विचार विमर्श हो। और एक-दूसरे के विचारों को यथासंभव समाहित कर हम उसे आगे बढाएं। चंद्रशेखरजी ने ही संसद में पहली बार औद्योगिक घरानों के एकाधिकार के खिलाफ 1966 में आवाज उठायी। हालांकि तब वे कांग्रेस में आ चुके थे। इस मसले पर काफी हंगामा हुआ और हजारिका आयोग बैठा। राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण में भी उनकी भूमिका रही। चंद्रशेखरजी के राजनीतिक आदर्श महान नायक आचार्य नरेंद्र देव थे।
1972 में उनका खुला टकराव उस दौर की परमशक्तिशाली नेत्री और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से हुआ। यह उनका ही बूता था कि इंदिराजी का खुला विरोध करके भी वे शिमला में कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति और कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव में विजयी रही। एक दौर वो भी आया जब उन्होंने उन्होंने जेल का वरण किया लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति को तिलांजलि नहीं दी। चंद्रशेखऱजी ने देश के करीब सभी हिस्सों को बहुत करीब से देखा था। उनकी भारत यात्रा ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। 1983 में उन्होंने पैदल 4260 किमी की भारत यात्रा की थी तो तमाम हिस्सों की जमीनी हकीकत को करीब से देखा। 1945 से 2007 तक का चंद्रशेखरजी का राजनीतिक जीवन बताता है कि वे ताउम्र आम आदमी के प्रवक्ता बने रहे।
वे देश के उन चंद नेताओं में थे जिन्होंने भूमंडलीकरण और नयी आर्थिक नीति के दुष्प्रभावों पर सबसे पहले आवाज उठायी। पूर्व केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय को जेल हुई तो उनके पक्ष में खड़े होने वाले वे पहले नेता थे। चंद्रशेखरजी प्रेस की आजादी के प्रबल पक्षधर थे। वे कहते भी थे कि मेरा पहला वक्तव्य 1954 में लखनऊ में प्रकाशित हुआ था। तबसे अब तक कोई बता दे कि हमने अपने किसी भी विषय में प्रकाशित खबर का खंडन किया हो। मैं सही मायनों में पत्रकारों की आजादी में विश्वास करता हूं।
चंद्रशेखर जी संवाद के पक्षधर थे। उन्होंने इसी सूत्र से तमाम अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने की कोशिश की। मैने चंद्रशेखरजी की राजनीति को 1983-84 से काफी नजदीक से देखा। उनके साथ कई बार दौरों पर जाने का मौका भी मिला। कई बार बलिया और और भुवनेश्वरी आश्रम में भी गया। कई समारोहों को भी देखा। मीडिया उनके प्रति पूर्वाग्रही था लेकिन उसकी चंद्रशेखरजी ने कभी परवाह नहीं की। उनका राजनीतिक कृत्य मीडिया को केंद्र में रख कर होता ही नहीं था। वे अपने तरीके के अनूठे राजनेता थे। और आज के दौर में उनके विचार बहुत अधिक प्रासंगिक हैं और अंधेरे में दिशा देने का काम करते हैं।