राजस्थान के सबसे ऊंचे पोलिंग बूथ शेरगांव पर कैसा है माहौल? इस चुनाव में कोई उम्मीदवार उनके गांव में नहीं आया
How is the atmosphere at Rajasthan's highest polling booth Shergaon? No candidate came to his village in this election,
राजस्थान में 200 में से 199 विधानसभा सीटों के लिए सुबह सात बजे से मतदान शुरू हो गया है. राज्य के करीब पांच करोड़ वोटर करीब पचास हज़ार मतदान केंद्रों पर वोट डालेंगे. इन पचास हज़ार से ज़्यादा मतदान केंद्रों में एक पोलिंग बूथ बेहद ख़ास है, जिसे पहली बार बनाया गया है. यह बूथ सिरोही ज़िले के शेरगांव में बनाया गया है, जहां 118 लोग मतदान करेंगे. शेरगांव में पहुंचना काफ़ी मुश्किल भरा है और उससे भी मुश्किल यहां का जीवन है.
कहां है ये जगह
उदयपुर से करीब साढ़े तीन घंटे का सफर तय कर कार से हम लोग पहले हम सिरोही ज़िले के माउंट आबू शहर पहुंचे, फिर यहां से करीब 15 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत माला के गुरु शिखर प्वांइट तक आए. माउंट आबू के गुरु शिखर प्वाइंट की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 1800 मीटर है. यह राजस्थान का सबसे ऊंचा प्वाइंट है. यहां से राज्य के सबसे ऊंचे पोलिंग बूथ का सफ़र शुरू होता है. इस प्वाइंट से शेरगांव पोलिंग बूथ करीब 18 किलोमीटर दूर है, जहां न तो कोई कार जाती है और न कोई मोटरसाइकिल. यहां पहुंचने के लिए पहाड़ों को पार करते हुए पैदल ही पहुंचा जा सकता है. यहां पहुंचने में हमें करीब आठ घंटे लगे. 24 नवंबर की दोपहर 12 बजे हमने माउंट आबू के गुरु शिखर प्वाइंट से शेरगांव पोलिंग बूथ के लिए अपनी यात्रा शुरू की. अरावली पहाड़ियों के बीच पगडंडियों का सहारा लेते हुए हम करीब आठ बजे शेरगांव पहुंचे.
इससे पहले कहां होता था मतदान
अब से पहले शेरगांव के लोग अपना वोट डालने उतरज पोलिंग बूथ जाते थे, जो यहां से दस किलोमीटर नीचे है. 24 नवंबर, रात के करीब नौ बजे हैं और हम शेरगांव में बाबू सिंह के घर हैं. चारों तरफ़ अरावली पहाड़ियों से घिरे इस घर में एक बड़ा सा कमरा है, जो मिट्टी से बना हुआ है. घर में दो कच्चे चूल्हे हैं, जिन पर परिवार लकड़ी जलाकर खाना बनाता है, इसके अलावा दीवारों पर गिनती के बर्तन और एक सोलर लाइट टंगी हुई है. इस गांव में बिजली, पानी की व्यवस्था, मेडिकल की सुविधा, स्कूल, गैस चूल्हा, टॉयलेट जैसी बेसिक ज़रूरत की कोई भी सुविधा मौजूद नहीं है और लोगों का कहना है कि इस चुनाव में कोई नेता भी उनसे मिलने नहीं पहुंचा.
शेरगांव के रहने वाले बाबू के परिवार ने आज तक दिल्ली नहीं देखा और देखने का कोई सपना भी नज़र नहीं आता. बाबू के सात बच्चे हैं, जिसमें से तीन लड़कियों की उन्होंने शादी कर दी है और दो लड़कियां और एक लड़का फिलहाल घर में उनके साथ है, इसके अलावा उनकी पत्नी शाम से घर के काम में लगी हुई हैं. एक ऐसा घर जिसके दरवाज़े दो अलग-अलग राज्यों में खुलते हैं
क्या चाहते हैं शेरगांव के लोग
मीडिया से बातचीत में वे कहते हैं, "पहली बार हमारे गांव में पोलिंग बूथ बना है. हमें बहुत खुशी है, इससे पहले कुछ घंटे चलकर उतरज वोट देने जाना पड़ता था, ऐसे में बहुत लोग तो वोट देने जाते ही नहीं थे." हर चुनाव में शेरगांव के बाबू सिंह और यहां रहने वाले दूसरे परिवार वोट तो देते हैं, लेकिन बदलाव के नाम पर यहां शून्यता है. बाबू सिंह कहते हैं, "सरकार बस बिजली और छोटी मोटी सड़क की व्यवस्था कर दे, उससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए, कोई बीमार पड़ जाता है या जब किसी महिला को बच्चा होता है तो बीस लोग उसे एक खटिया पर उठाकर यहां से माउंट आबू लेकर जाते हैं."
स्कूल न होने की वजह से बाबू सिंह के परिवार के ज्यादातर बच्चे अनपढ़ रह गए. वे कहते हैं, "अगर यहां स्कूल होता तो हम जरूर अपने बच्चों को पढ़ाते, लेकिन क्या करें, हम यहां से छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकते, न इतना पैसा है और न शहर में रहने के लिए घर."
मतदान केंद्र के बाहर लोग
बाबू सिंह की पत्नी दिल्ली देखने के सवाल पर कहती हैं, "दिल्ली देखने चली जाऊंगी तो घर का काम कौन करेगा. घर पर गाय भैंसे हैं, बच्चे हैं सबका ध्यान रखना है." इससे ज्यादा वे कुछ बात नहीं कर पाती हैं. उनकी बेटी कहती है कि वो कभी स्कूल गई ही नहीं. शेरगांव में करीब 35 घर हैं, जिसमें 118 मतदाता हैं, जिसमें 68 पुरुष और 50 महिला वोटर हैं. ये सभी परिवार राजपूत जाति से हैं, जो पीढ़ियों से इस गांव में रह रहे हैं. सरकारी योजनाओं के नाम पर राशन के अलावा इन परिवारों के पास कुछ नहीं पहुंचा है. यह राशन भी गांव वालों को ओरिया ग्राम पंचायत से लाना पड़ता है, जो करीब बीस किलोमीटर नीचे है.
शेरगांव के रहने वाले उमेद सिंह की उम्र क़रीब 65 साल है. उन्होंने शेरगांव में बने पोलिंग बूथ में सबसे पहला वोट डाला है. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "गांव में डाकखाना, स्कूल, बिजली और यहां तक की पीने का पानी तक नहीं है. हमें दो किलोमीटर दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है."
वो कहते हैं, "सरकार ने करीब पंद्रह साल पहले खंबे लगाए थे, ताकि उन पर सोलर पैनल लगाए जा सकें, लेकिन आज तक नहीं लगे, ये खंबे लगे हैं, इसका मतलब है कि यहां व्यवस्था की जा सकती है, बैटरी, सोलर पैनल लग जाता तो गांव में रोशनी आती."
उमेद सिंह कहते हैं, "बीमार आदमी को इलाज के लिए खटिया पर उठाकर शहर लेकर जाना पड़ता है, अस्पताल लेकर जाने में आठ-दस घंटे लग जाते हैं." वो कहते हैं, "इस चुनाव में कोई उम्मीदवार उनके गांव में नहीं आया, अगर आता तो वे उसे अपनी पेंशन लगवाने के लिए कहते." शेरगांव के रहने वाले लाल सिंह की उम्र 30 साल है. उन्होंने क्लास सात तक पढ़ाई की है।
वे कहते हैं, "रोज़गार गांव में नहीं है. गाय भैंस है जिनसे घर का खर्चा चलता है. शहर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है, इसलिए काम करने के लिए हर रोज शहर नहीं जा सकते, अगर एक अच्छा रास्ता मिल जाए तो शहर जाकर नौकरी कर लें." स्कूल के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं, "छह सात साल पहले पांचवीं तक एक स्कूल था, जो बंद पड़ा है. मुख्य समस्या टीचर की है, कोई नहीं आता, इसलिए हम पढ़ नहीं पाए, इसलिए अब हमारे परिवार के बच्चों के सामने भी संकट है.