मनीष सिंह
इसका मतबल ये की हम जो सांस लेते है, उसमे नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% जाती। बाकी दीगर गैसें जिसमे कार्बन डाई ऑक्साइड भी है। यह सब अंदर जाता है, शरीर ऑक्सीजन खींच लेता है, बाकी त्याग देता है। साथ मे शरीर के कोशिकाओं के श्वसन से पैदा कार्बनडाइऑक्साइड भी।
याने ली गयी हवा में ऑक्सीजन ज्यादा, कार्बन डाइआक्साइड कम होती है। छोड़ी गई हवा में इस का उल्टा होता है। इसका मतलब ये की 100% प्योर ऑक्सीजन हम इस्तेमाल नही करते। करेंगे तो खुदे ऑक्सीडाइज हो जाएंगे।
तो जो ऑक्सीजन हस्पतालों में सप्लाई होती है, वह असल मे कार्बोजन होती है। इसमे 1.5% से लेकर और अधिक तक कार्बनडाइऑक्साइड होती है। इसमे ऑक्सीजन का पार्शियल प्रेशर, सांस द्वारा छोड़ी गई हवा से 5% ही ज्यादा होता है। आप फिल्मो में जो मुंह से मुंह लगाकर सांस देते देखते हैं, उससे लोगों की जान बचते देखते है, इसलिए कि छोड़ी गई हवा में भी पर्याप्त ऑक्सीजन होती है।
मने टरबाइन से प्योर ऑक्सीजन निकाल के करोगे क्या। बुढ़ऊ सनकी तो था, पागल हो गया है। कोई गर्लफ्रैंड या बीवी होती , तो कहीं हवा ख़िला लाती और टाइम टाइम हवा निकाल कर कंट्रोल में रखती। पर नई, हमको तो पगला पलामू गब्बरसिंग चईये था।
अब टिम्बर का पेड़ खोजो, और चढ़ के आक्सीजन सूँघो, ऑक्सीजन।