एक प्यार भरी कहानी हमीरपुर से, सुनिए क्या है हिन्दू मुसलमान का खेल, क्यों गया ये मुसलमान गया में पिंडदान करने!

Update: 2022-04-28 12:46 GMT

अशोक शुक्ला 

हवाओं में नफ़रत का जहर घुले कोई नौ महीने हो चले थे। साल था 1993 का। महीना सितंबर का। तारीख भूल गया हूं पर इतना याद है कि पितृ पक्ष चल रहा था। मैं अपनी ससुराल, हमीरपुर में दोपहर के भोजन के बाद बाहर चबूतरे पर बैठा था। बगल में मेरे ससुर स्वर्गीय अखिलेश्वर मिश्र बैठे थे।

तभी मेरी नज़र सामने राह से गुजरते एक वृद्ध साधू बाबा पर पड़ी। भगवा लुंगी और भगवा रंग का लंबा कुर्ता। दरअसल, भगवा रंग इतना आकर्षक होता है कि आप दूसरी ओर नज़र फिरा भी नहीं सकते। लेकिन, साधु बाबा की तरफ आकर्षित होने का एक और कारण था। उनकी दाढ़ी। मुसलमानों वाली। ऊपर के ओंठ पर से मूछें नदारद।

मुझे अटपटा लगा। मैंने पापा जी, यानी अपने ससुर से पूछा तो वे ठहाका मारकर हंस पड़े। बोले, "अरे, ये मौदहा के xxx चच्चा हैं। अपने परिचित हैं। तुम्हारी मुलाकात करवाता हूं।"

"अरे, चच्चा रामराम" पापा जी ने उन्हें नाम लेकर पुकारा, "इस जईफी में कहां की घुमक्कड़ी हो रही है? पानी तो पीते जाइए।"

पापा जी राम मंदिर के प्रबल समर्थक थे। लेकिन मुसलमानों के प्रति वे हमेशा मित्रवत थे। पूरे जनपद में उन्हें हजारों लोग प्रेम करते थे। उनमें सैकड़ों मुसलमान भी थे।

चच्चा घर से थोड़ा आगे निकल गए थे। आवाज़ सुनकर वे लौट आए। "रामराम मिसिर जी, क्या हालचाल हैं।"

"चच्चा, बस आपसे आशीर्वाद लेने का मन हो गया था।"

आसन और पानी देने के बाद पापा जी फिर पूछा, "कहीं दूर से आ रहे हैं...थके दिख रहे हैं..."

"हां, बेटा। बहुत दूर से आ रहा हूं। गया जी से.."

गया के साथ सम्मानसूचक 'जी' सुनकर मैं चौंक पड़ा।

" गया जी माने बिहार वाला गया?...वहां क्या काम था?"

74-75 साल का वृद्ध मेरे आश्चर्य को समझ रहा था। वे मुस्कुराने लगे। बोले, "अब क्या बताएं बच्चा, मैं तो मुसलमान हूं। लेकिन मेरे पुरखे तो हिंदू ही थे न। अभी पितृ पक्ष आया तो यह बात मुझे खटक गई।"

"क्या खटक गई?"

"मैंने सोचा कि मैं तो कयामत का इंतजार कर सकता हूं लेकिन हिंदू पुरखे क्या करेंगे?...आखिर उनकी आत्मा की शांति के लिए भी तो कुछ करना चाहिए। और मैं गया जी जाकर पिंडदान और तर्पण कर आया।"

मैं भौंचक्का। मेरे ससुर मुस्कुराते हुए बोले, "आश्चर्य न करो। मौदहा तहसील में 12 गांव के मुसलमान और वहां के हिंदू ऐसे ही हैं। धर्म को लेकर लट्ठ नहीं चलाते और मिलजुल कर रहते हैं।"

चच्चा ने कहा, "दरअसल,बात यह है कि हम सब मूलतः क्षत्रिय हैं। गांव में जो हिंदू हैं वे भी हमारे पुरखों की संतानें हैं। मेरे कुछ खानदानी भाई हिंदू हैं तो कुछ मुसलमान। बस धर्म अलग हुआ है, भाईपन तो हम चाहें तो भी खत्म नहीं कर सकते। हमारे यहां शादी आदि उत्सवों में दूसरे धर्म का होने के बाद भी भाई को भाई का सम्मान दिया जाता है।"

चच्चा बोले जा रहे थे और मैं मुंह बाए सुन रहा था। वे बोले, "मैं तो घर के बाहर पेड़ के नीचे रखे सालिगराम और कुछ दूसरी मूर्तियों पर पानी भी डाल देता हूं। क्या करूं, मेरे घर के पास कोई हिंदू है ही नहीं तो यह काम मुझे ही करना पड़ता है। कभी कभी घर के बाहर तुलसा जी दिख जाती हैं तो उन्हें भी जल दे देता हूं।"

उनके जाने के बाद मेरे ससुर मौदहा के इन विशिष्ट 12 गांवों के बारे में बताते रहे। कहते हैं कि कुछ लोग यहां से किसी कारणवश पंजाब गए थे। वहां मिल गए बाबा फरीद। वे उनके मुरीद हो गए और कालांतर में मुसलमान। लेकिन उनके वे भाई जो पंजाब नहीं गए थे, हिंदू ही बने रहे।

एक बार मैं इन गांवों पर डिटेल्ड रिपोर्ट करने गया था लेकिन अपरिहार्य कारणों से मुझे मौदहा पहुंच कर लौटना पड़ा था। कुछ लोगों से सुना है कि ऐसे ही हिंदू मुसलमानों के कुछ गांव समधन, फर्रुखाबाद में और कुछ मथुरा में भी हैं। अगर आप पत्रकार हैं तो इन पर अवश्य रिपोर्ट बनाएं। वैसे यह भी हो सकता है कि ये गांव अब बदल चुके हैं। मेरी यह कहानी तो लगभग तीन दशक पुरानी है।

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