आदर्श गांव और स्मार्ट सिटी के बीच बिखरा भारतीय समाज
गांव की उपेक्षा मजबूत राष्ट्र में बाधक, गांव और शहर एवं शिक्षा
प्रयागराज: आजकल सरकारी नीतियों या आमचर्चा में दो शब्द आदर्श गाँव और स्मार्ट सिटी बहुत प्रचलित हैं। गाँव का विकास या ग्रामीण विकास जो कि एक सरकारी मुहावरा बन चुका है जो आज से नहीं लगभग सौ वर्ष पहले अँग्रेजों के शासनकाल से ही शुरू हो चुका था। जब हम उस गाँव को खोजते हैं जिसका विकास हो रहा है या हो चुका है, तो हम पाएँगे कि ये वे गाँव हैं जो शहर से जुड़ रहे हैं। ये गाँव,गाँव की दुर्गमता या रूढ़िवादिता से ऊपर उठ रहे होते हैं। सड़क मनुष्य की एक बुनियादी आवश्यकता है, लेकिन हमारे दिमाग में ये है कि सड़क शहर में पाई जाती है और जहाँ ये सड़क नहीं है, वो गाँव है। जिस दिन गाँव में वो सड़क बन जाएगी तो उस दिन वह गाँव विकसित कहलाएगा। इसलिए गाँव के सारे विकास के पीछे ये दृष्टि काम करती है। शिक्षा गाँव की प्रतिभा को शहर ले जाती है, आपको बहुत-से ऐसे गाँव मिलेंगे जहाँ अब केवल पिछली पीढ़ी रह गई है क्योंकि युवा वर्ग या उनके बच्चे अब शहरों में रहने लगे हैं। यह भी सही है कि उन्होंने अपने गाँव में पक्के मकान बनवा दिए हैं लेकिन उन गाँवों में जीवन नहीं बचा है। आदर्श गाँव वह गाँव होगा जो शहर जैसा दिखता होगा या जो शहर के लक्षणों से मेल खाता होगा,जबकि ये आदर्श गाँव या शहर के लक्षण नहीं हैं। आदर्श के नाम पर नीति नियंता केवल सब्जबाग दिखाने एवं लोगों को दिग्भ्रमित करने के माहिर खिलाड़ी बन चुके है। जहाँ तक स्मार्ट सिटी का सवाल उठाया है,यह समय की आधुनिकता से उपजा हुआ जुमला है ,आजकल कैशलेस आर्थिक की बात हो रही है। इसका उद्देश्य अपने देश को वैसा दिखाना है जैसा अमेरिका या ब्रिटेन दिखाई देता है। जिस तरह हम औपनिवेशिक काल में जीते थे,आज भी वैसे ही हैं।
हमारी अपनी कल्पनाशक्ति समाप्त हो चुकी है और हम उन्हीं की कल्पना पर जीवित हैं। हम सोचते हैं कि हमारा बच्चा अगर अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल में पढ़ेगा तो वह इस ग्लोबल बाजार में खपने लायक आधा तो तैयार हो ही जाएगा। अगर आप वैश्वीकरण के जरिए समझें,जिसमें एक अन्तर्राष्ट्रीय बाजार है, फिर उसके भीतर एक राष्ट्रीय बाजार है और उसके भीतर कई स्थानीय बाजार हैं तो जितनी दूर तक हम अपने बच्चे को समायोजित कर सकते हैं, उसकी शिक्षा उतनी ही सफल होगी। ऐसे स्कूल किसी भी मायने में अन्तर्राष्ट्रीय नहीं कहे जा सकते। भारत में लगभग ऐसे 500 स्कूल हैं जो सही में अन्तर्राष्ट्रीय हैं। वे जिनेवा या ब्रिटेन की संस्थाओं से जुड़े हुए हैं, उनका पाठ्यक्रम अलग है, परीक्षा व मूल्यांकन के तरीके अलग हैं लेकिन जिन स्कूलों की बात आजकल हो रही है, उनमें ऐसा कुछ नहीं है। ये बस शिक्षा की एक नई पैकेजिंग है जो बिक रही है। शहरीकरण के इस दौर में कई अन्तर्राष्ट्रीय या ग्लोबल कहे जाने वाले स्कूलों की बाढ़-सी आ गई है। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्कूल के नाम से प्रचलित स्कूल केवल व्यापारिक स्कूल हैं। ये स्कूल सिर्फ नाम का दोहन करके अधिक फीस लेना जानते हैं I भारत के नवधनिक वर्ग जिसमें गाँव का भी एक नवधनिक तबका है, खासकर उत्तर प्रदेश ,मध्यप्रदेश के इलाकों के गाँव इस तबके में शामिल हैं। इस वर्ग को इन स्कूलों का नाम आकर्षित करता है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय या ग्लोबल का अर्थ ही हमें पश्चिम के करीब ले जाता है। पश्चिम का भी एक रूढ़िवादिता बना हुआ है जिसका आशय मुख्यत: अमेरिका या यूरोप है। इनके भौतिक प्रतीक चौड़ी-सपाट सड़कें, जमीन के नीचे से बिजली के तार या नोएडा में बना फॉर्मूला नम्बर-1 कार रेस का स्टेडियम आदि विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
दूसरी तरफ हम अपने गाँव में शॉपिंग मॉल,पिज्जा-बर्गर और अन्य सुविधाओं के लिए लालायित रहते है।आज भारत का बहुत बड़ा शिक्षित वर्ग है जो इस प्रकार से बँटे हुए दिमाग से जीता है। उसी वर्ग में इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे शामिल पाए जाते है। अँग्रेजी का प्रश्न वहीं बना हुआ है, जहाँ वह पहले था। मैकाले शिक्षा सबसे पहले हमारे मानस में हीनता का भाव उत्पन्न करती है। भारत में हैसियत और ताकत की भाषा मानी गयी है। अँग्रेजी औपनिवेशिक शक्ति की भाषा है और आज की यह आधुनिक दुनिया इन्हीं औपनिवेशिक भाषाओं से बनी है। अगर आप अन्य औपनिवेशिक भाषाओं का विचार करेंगे, इन्हीं निष्कर्षों पर पहुँच जाएँगे। जैसे अफ्रीका में फ्रेंच,दक्षिण अमेरिका में स्पेनिश और पुर्तगाली उपनिवेश, दक्षिण पूर्वी एशिया के डच,स्पेनिश या अँग्रेज उपनिवेश, इन सभी में आधुनिक दुनिया का जन्म हुआ है। जिन क्षेत्रों में इन शक्तियों ने शासन किया, जो कि एक बहुत बड़ी जनसंख्या को समाए हुए हैं, उस जनसंख्या में ये भाषाएँ निरन्तर हीनता का भावना पैदा करती हैं।
आज भारत में एक तबका आपको ऐसा मिलेगा जो 19वीं सदी से अँग्रेजी भाषा के सम्पर्क में है और एक बहुत बड़ा तबका ऐसा भी मिलेगा,जहाँ गाँव में पहली पीढ़ी में इस भाषा का प्रयोग हो रहा है। इन दोनों के बीच में आपको हर स्तर पर अँग्रेजी प्रयोग करने वाले परिवार मिल जाएँगे। जो वर्ग इस भाषा को एक लम्बे समय से प्रयोग में ला रहा है, वह एक अभिजात वर्ग है। इसके अलावा अँग्रेजी आज इंटरनेट की भाषा बन चुकी है। जितने भी ऐप हैं, उनकी शर्तें इसी भाषा में होती हैं।
स्मार्ट सिटी का यह मुद्दा पश्चिमी राष्ट्रों की संस्थाओं की देन है। आप इसे उन स्कूलों से जोड़कर समझ सकते हैं, जो स्वयं को आइएसओ से प्रमाणित बताते हैं। जिन्हें यह प्रमाणपत्र किन्हीं खास ज़रूरतों को पूरा करने के आधार पर दिया जाता है। आर्थिक रूप में आज भी जीवित ये राष्ट्र निश्चित करते हैं कि आइएसओ की यह मोहर हम किसे दें। जिसे पाने के लिए बाकी सभी राष्ट्र लालायित हो उठते हैं। ये स्मार्ट शब्द हमें उस औपनिवेशिक परम्परा का ध्यान दिलाता है जिसके अनुसार मानकों को रचना उनका काम है और मानकों के लिए संघर्ष या पाना हमारा काम है। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। फाइव स्टार होटल में नौकर की कमीज जिसमें मालिक ने एक रंग कमीज और पैंट सिलवा ली है और अब जो भी नौकर बनेगा,उसे वह कमीज और पैंट पहननी पड़ेगी। इसीलिए वह मालिक,नौकर इसी आधार पर चुनता है कि जो इस कमीज के आकार में फिट हो जाए,वह नौकरी के काबिल समझा जाता है।आप समझ सकते हैं कि यहाँ भी साँचा और आदर्श कोई और तय करेगा,जिनमें हमें फिट होकर दिखाना है। तो यह नौकर की कमीज है जिसके लिए शिक्षा हमें तैयार करती है और उस कमीज को पहनने के बाद हम नौकर कहलाने के लायक हो जाएँगे। ब्रिटिश शासन में ऐसा ही था जिसमें भारतीय और अंग्रेज पहचान की खाई थी। इस विश्व रचना को ध्यान में रखते हुए अगर हम भारतीय गाँव को समझने का प्रयत्न करें तो उसकी लाचारी और उस पर ढहते कहर हमारी समझ में आ सकते हैं।
शिक्षा में जो प्रवृत्तियाँ चली आ रही हैं, उनमें शिक्षित होने का मतलब गाँव को परम्पराओं का शिकार समझना या गाँव को हेय दृष्टि से देखना है। यह शिक्षा यही सिखाती है कि गाँव पिछड़ेपन का प्रतीक है। असल में शिक्षा पाने की प्रक्रिया ही ऐसी है जो गाँव से निकलने की माँग करती है। पहले के समय में गाँव में स्कूल नहीं थे। अब गाँव में स्कूल तो हैं लेकिन थोड़ा भी आगे पढ़ने के लिए गाँव छोड़ना पड़ता है। एक अफ्रीकी लेखक कमारा लये ने अपनी रचनाओं में किया है कि गाँव को छोड़े बगैर आदमी शिक्षित नहीं हो सकता। गाँव में आप एक सीमा तक ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, अगर उससे आगे आपको जाना है तो आपको स्कूल छोड़ना पड़ेगा। अगर आप अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं तो आगे की पढ़ाई और नौकरी के लिए शहर जाना पड़ेगा। यदि आप पढ़ाई में अच्छे नहीं हैं तो आप गाँव में रहकर खेतों में या किसी दुकान पर ही काम करेंगे।
अलग-अलग राज्यों की किताबों में गाँव के मकान को अभी भी पिछड़ेपन का और शहर के मकान एवं उसके बाहर खड़ी कार को अगड़ेपन का प्रतीक माना जा रहा है। हमारे यहाँ चौथी और पांचवी कक्षा की किताबों में पढ़ाया जाता है कि शहर का उल्टा मतलब विलोम गांव है। गाँव शिक्षा की दृष्टि से, रख-रखाव की दृष्टि से, पानी या बिजली की हर प्रकार की दृष्टि से उपेक्षित रहा है। इस बात की पुष्टि सरकारी आँकड़े भी करते हैं और बताते हैं कि सभी बुनियादी एवं मूलभूत जरूरतें गाँव के स्तर पर आकर लड़खड़ाने लगती हैं। सत्तर साल बाद भी कई गांव में शुद्ध पेयजल पानी नहीं मिल रहा है न ही सड़कें है। न ही आधुनिक तकनीक के अस्पताल है,न ही शिक्षा का केंद्र है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी कहते थे दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक सिर्फ 15 पैसा पहुँचता है।
आज के प्रधानमंत्री मोदी कहते है कि गांव में सीधे खाते में पैसा पहुँच रहा है,तब क्यों बुनियादी मूलभूत सुविधाएं नहीं है। अगर आप किसी आयोग का विश्लेषण करे गाँव का जिक्र केवल दो या तीन बार होता है और वो किसी निश्चित सन्दर्भ में ही होता है जैसे गरीब लोग,अनुसूचित जाति और जनजाति, कृषि की शिक्षा,महिला आदि। लेकिन कहीं भी गाँव को एक समाज के रूप में जगह नहीं मिली है। आपको यह हालात हर स्तर पर मिल सकते हैं जैसे योजनाओं के निर्माण,बिजली की उपलब्धता, स्वास्थ्य,मकान की उपलब्धता या बहुत ही नीचे की बुनियादी जरूरत का मुद्दा भी जाँच सकते हैं। जैसे शिक्षक की नियुक्ति,यह नियुक्ति शिक्षक के लिए एक मकान की माँग करती है।
जबकि पिछले कुछ 30 वर्षों में महिलाओं की बतौर शिक्षिका नियुक्ति बड़े पैमाने पर हुई है। इसी उदाहरण का अगर आप विश्लेषण करें तो आप पाएँगे कि एक महिला शिक्षिका किसी गांव के कस्बे या शहर से बस में गाँव के स्कूल में पहुँचती है। जहाँ स्कूल आठ बजे खुलता है, वह शिक्षिका बसों के कारण साढ़े आठ या नौ या दस बजे बजे स्कूल पहुँचती है। लौटते समय उस बस का समय अगर 2 बजे का है, जबकि स्कूल तीन बजे तक चलता है,तो इसमें कोई हैरानी नहीं अगर वह शिक्षिका 2 बजे वापिस लौट जाती है। अगर सरकार ने स्कूल के साथ कोई क्वार्टर की योजना नहीं बनाई है।तो यह ग्रामीण शिक्षा कहाँ पर कभी किसी ने सोचा है। मैंने शंकरगढ़ विकास खण्ड के विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को पदयात्रा के दौरान नजदीक से दुर्दशा को देखा है। शिक्षा के दस्तावेजों में अगर आप ढूँढ़ें तो आपको 1956 में ऐसी आखिरी रिपोर्ट मिलेगी जो शिक्षक की नियुक्ति के साथ मकान की बातें कहीं है।
दूसरे उदाहरण के तौर पर अगर चुनाव के समय गाँव का अध्ययन करें तो आप पाएँगे कि स्थाई शिक्षकों या शिक्षिकाओं को कई ट्रेनिंग से मतदाता सूची एवं सर्वे आदि से वोट की गिनती तक कम-से-कम 15-20 दिनों के लिए स्कूल से अलग रहना पड़ता है। यह सारा काम करने के बाद वे अपने बच्चों को उपलब्ध हो पाते हैं। यह स्थिति और विकट हो जाती है अगर चुनाव परीक्षा के दिनों में होते हैं। यह काफी सूक्ष्म स्तर के मुद्दे हैं जिनका कभी बड़े स्तर की योजनाओं में जिक्र तक नहीं होता। यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि गाँव नियोजन के परिदृश्य में हाशिए पर है। अगर यह कहा जाता है कि गाँव में पढ़ाई नहीं होती तो कोई बड़ी हैरानी नहीं है। सवाल यह है कि वहाँ आपने कौन-सी अच्छी योजना बनाई है। आशय यह है कि गाँव में लगातार अवसरों की कमी रही है।
गाँव एक प्रकार के नहीं हैं। कुछ गाँव खेती पर निर्भर हैं तो कुछ जंगलों पर निर्भर हैं। किसी गाँव में तालाब है तो किसी में नहीं है। हर गाँव में एक किलोमीटर का रास्ता एक समान नहीं होता,आपको परिक्रमा करना होगा कि वह गाँव पहाड़ों में है या पथरीला में या किसी नदी के तटीय क्षेत्र में है। आप विभिन्न गाँवों के लिए एक समान योजना नहीं बना सकते। अगर एक लड़की जलाऊ लकड़ी लेने के लिए या पानी लेने के लिए जंगल में जाती है या दूसरे गाँव में जाती है तो आप कैसे स्कूल के समय को तय करेंगे।यह बात अँग्रेजों के समय में जानी जाती थी कि गाँव की व्यवस्था को आपको ऋतुओं, प्राकृतिक संसाधनों या उपलब्धता के आधार पर समायोजित करना होगा, तभी कोई स्कूल ठीक से चल सकता है। औपनिवेशिक काल से गाँव को उपेक्षा की दृष्टि से देखने की समस्या हमें कभी गाँव को वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं देखने देती।
गाँव का अध्यापक, जूनियर डॉक्टर,उपजिलाधिकारी, तहसीलदार,बीडीओ आदि इन्हीं दुविधा में ही जीते हैं जबकि शहरों में रहते है और अवसर पाते ही गाँव से अपना तबादला करवा लेते हैं। गांव के तहसीलों और ब्लाकों में क्वार्टर बने है मगर रहता कोई नहीं है। यह एक प्रकार का दुष्चक्र है, जिसका पुनरुत्पादन होता रहता है। यह औपनिवेशिक काल से आज तक लगातार हो रहा है। इसमें कोई व्यवधान तब तक नहीं आ सकता, जब तक गाँव को केन्द्र नहीं बनाया जाता और इसके बिना योजनाएँ सफल नहीं हो सकतीं।क्योंकि आज हम जिस गाँव की चर्चा करते हैं वह औपनिवेशिक युग से गुजरा हुआ एक गाँव है, जिसमें गाँव या तो टूट गया है या शहर में समा गया है। मुझे लगता है कि जो कुछ गाँधी ने गाँव के प्रति महसूस किया था, उस सन्दर्भ में गाँव को समझने में हम असक्षम हैं। अर्थात् ऐतिहासिकता के दर्पण में गाँधी के दर्शन को देखना आज हमारे लिए बहुत मुश्किल है। क्योंकि न तो हमारे पास उस तरह का कोई अनुसंधान है और न ही उस सोच का कोई दार्शनिक विश्लेषण हुआ है। गाँधी के उस गाँवत्व को आज नहीं समझा जा सकता क्योंकि आज हम गाँव को केवल शहर के विलोम के रूप में ही देखते हैं। हम नहीं सोच पाते कि गाँव का जीवन कृषि,प्रकृति या दस्तकारी के क्रियाकलापों में जिया जा सकता है।
नितिन द्विवेदी प्रयागराज l