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यूसुफ़ अंसारी
कांग्रेस नेता और राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आज़ाद ने यह कह कर भारतीय राजनीति में तूफान मचा दिया है कि अब हिंदू भाई उन्हें अपने कार्यक्रमों में बुलाने से डरने लगे हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में वहा के छात्रों से मुखातिब आज़ाद ने कहा कि पहले उन्हें अपने कार्यकर्मों में बुलाने वालों में 95 फीसदी हिंदू हुआ करते थे. अब सिर्फ 20 फीसदी हिंदू ही उन्हें बुलाते हैं. पिछले चार साल में यह बदलाव देश के राजनीतिक माहौल में आया है.
आज़ाद के इस बयान पर बीजेपी ने तीखी प्रतिक्रिया दी है. बीजेपी ने इस बयान को हिंदुओं का अपमान करने वाला करार दिया है. बीजेपी इसे लेकर कांग्रेस पर हमालावर हो गई है. कांग्रेस प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा है कि ऐसा बयान देकर आज़ाद ने हिंदुओ को नीचा दिखाने की कोशिश की है. बीजेपी को ऐसे ही मुद्दों का तलाश रहती है जिससे हिंदु-मुस्लिम ध्रुवीकरण हो और उस चुनावों मे इसका फायदा पहुंचे. देश में पाच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. इनमें से तीन में बीजेपी की सरकारें हैं. राजस्थान और मध्य प्रदेश में मुसलमान करीब 10 फीसदी हैं, इन राज्यों में बीजेपी आज़ाद के इस बयान को बड़ा मुद्दा बनाकर ध्रुवीकरण कर सकती है.
आज़ाद कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं. राज्यसभा में वो विपक्ष के नेता भी हैं. उन्होंने बात तो सही कही है लेकिन ग़लत समय पर कही है. लेकिन उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी कि इस संवेदनशील मुद्दे पर उन्होंने ज़ुबान खोली. खुलकर बोले. समाज को आइना दिखाया. हो सकता है कि उनका ये बयान राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में कांग्रेस के लिए चुनावों में नुकसान का सबब बन जाए. जैसे पिछले साल गुजरात चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी ने यह कह कर बाज़ी पलट दी थी कि पाकिस्तान अहमद पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाना चाहता है. बीजेपी ने जमकर प्रचार किया था कि अगर कांग्रेस गुजरात में जीती तो अहमद पटेल मुख्यमंत्री बनेगें.
दरअसल तेज़ी से बदलते भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत नित नए आयाम ले रही है. इसकी शुरुआत कब हुई यह तो रिसर्च का विषय है. लेकिन यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि जब से बीजेपी ने हिंदुत्व को खुले रूप से अपने एजेंडे में शामिल किया है तब से राजनीतिक बाकी राजनीतिक पार्टियों में मुस्लिम नेताओं की अहमियत कम होती गई. साल 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में आने के बाद तो राजनीतिक दलों के लिए उनके मुस्लिम नेता बोझ बन गए है. सिर्फ कांग्रेस ही क्यों मुसलमानों के दम पर राजनीति करने वाली सपा, बसपा, राजद, जदयू और रालोद जैसी पार्टियों ने अपने मुस्लिम चेहरों पर या ता नकाब डाल दिया है या उन्हें पूरी तरह ग़ायब ही कर दिया है.
गुलाम नबी आज़ाद का बयान कांग्रेस के भीतर मुसलमानों को लेकर चल रही अजीब सी कसमसाहट की वजह से बाहर आया है. दरअसल कांग्रेस अपनी विचारधारा की दिशा तय नहीं कर पा रही. कांग्रेस की बुनियाद उसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र रहा है. कांग्रेस में एक बड़ा तबका है जो यह मानता है कि कांग्रेस को अपने इस बुनियादी चरित्र पर क़ायम रहकर ही राजनीति करनी चाहिए. तात्कालिक परिस्थियियों के हिसाब से कभी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का राह पर चलती है. दो कदम चलकर उसे फिर अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का याद आती है. इससे देश भर में कांग्रेस का वोटर उसे दूर हो गया है.
गुजरात के विधानसभा चुनाव में अहमद पटेल को छोड़कर कोई दूसरा मुस्लिम नेता क्यों नहीं दिखता. इस लिए नहीं दिखता क्योंकि कांग्रेस आलाकमान को डर रहता है कि ज्यादा मुस्लिम चेहरे दिखेंगे तो कांग्रेस को नुकसान होगा. इस बार कर्नाटक के चुनाव में भी कांग्रेस ने मुस्लिम नेताओं को दूर रखा था. चुनावी नतीजे आने के बाद वहां सरकार बनाने के लिए गुलाम नबी आज़ाद के बड़ी ज़िम्मेदारी ज़रूर दी गई. राजस्थान, मध्य प्रेदश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं को अलग रखा गया है. ज़ाहिर है कांग्रेस उन्हें यहां नहीं भेजकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की गुंजाइश को कम करना चाहती है.
कांग्रेस में टिकटों के बंटवारें में भी इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि कहीं मुसलमानों को ज़्यादा टिकट देने से उसका हिंदु वोट बैंक न खिसक जाए. गुजरात के पिछले तीन चुनाव के आंकड़े देखिए कांग्रेस 6-7 से ज्यादा टिकट मुसलमानों को नहीं देती. इसी तरह राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों का आंकड़ा दहाई के अंक को नहीं छूता. इन राज्यों में मुसलमानों की आबादी 10 फीसदी है. इस हिसाब से देखें तो कांग्रेस को इन राज्यों में कम से कम 15-20 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने चाहिएं. लेकिन हिंदु जनाधार खिसकने का डर कांग्रेस को ऐसा करन से रोकता है.
ऐसा नहीं है कि मुसलमानों का डर दिखाकर सिर्फ बीजेपी ही राजनीति फायदा उठाती है. इस खेल का जनक तो कांग्रेस हा रही है. अब भी कांग्रेस मौका मिलने पर ऐसा करने से नहीं चूकती. साल 2011 में असम के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने अनौपचारिक रूप से यही प्रचार किया था कि अगर हिंदुओं ने उस वोट नहीं दिया तो बदरुद्दीन अजमल राज्य के मुख्यमंत्री बन जाएंगे. तब असम के मुखंयमंत्री तरुण गोगोई ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलकर ही अपनी सत्ता बचाई थी. ये खुली सच्चाई है. अब तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद को पीएम नरेंद्र मोदी से बेहतर हिंदु साबित करने पर ही तुले हुए हैं.
दरअसल साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने राजनीति में धर्म का तड़का कुछ इस तरह लगाया था कि उसकी खुशबू राजनीतिक माहौल में रच बस गई है. पीएम बनने बाद मोदी ने देश विदेश के प्रसिद्ध मंदिरों में जाकर सार्वजनिक रूप से विशेष पूजा करके देश के बहुंसख्यंक समाज में एक मज़बूत हिंदू नेता की छवि बना ली है. इसकी काट कांग्रेस और बाक़ी पार्टियां ढूंढ ही नहीं पा रहीं. इसकी प्रतिक्रिया में राहुल गांधी ने भी मंदिर-मंदिर चक्कर लगा कर खुद को मोदी से बेहतर हिंदु साबित करने में जुटे हैं. वहीं अखिलेश और मुलायम कभी कृष्ण को राम से बड़ा भगवान बताकर उनकी मूर्ती लगवाने की बात करते हैं तो कभी विष्णु भगवान की मूर्ती लगवाने का ऐलान करते है.
देश का राजनीतिक माहौल में जब धर्म का ऐसा तड़का लग गया हो तो ऐसे में मुसलमानों का चिंता के लिए भला किसके वक्त बचा है. मुलायम यिंह यादव 2009 के लोकसभा चुनाव में हर रोज दाढ़ी वाले मुसलमानों के साथ टीवी चैनलों के कैमरों के सामने थे. साल 2012 के विधानसभा चुनावों के दौरान पूरे यूपी में मुलायम, अखिलेश और शिवपाल की दले हरे चैक के रूमाल और सिर मुस्लिम टोपी वाले पोस्टर लगे थे. वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने एक भी लंबी दाढ़ी और टोपी वाले मुसलमान को अपने आसपास भी नहीं फटकने दिया. सपा के जन्म से ही उसका चेहरा रहे आज़म खान आज पार्टी में कहां हैं..?
लगभग सभी राजनीतिक दलों में मुस्लिम नेताओं का हालात आज़म खान और गुलाम नबी आज़ाद की तरह होती जा रही है. मयावती ने कभी बसपा में पार्टी की रीढ़ माने जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी को एक झटके से पार्टी से निकाल फेंका था. मुसलमानों के वोटों पर राजनीति करने वाले राजद, जदयू ने भी मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए अपने मुस्लिम नेताओं को चुपचाप पिछली कतार में बैठा दिया है. ऐसा लगता है कि कभी मुसलमानों के वोट हासिल करने का ज़रिया रहे ये नेता उनके लिए आज बोझ बन गए है. आज इस बोझ को कोई ढोना नहीं चाहता.
ग़ुलाम नबी आज़ाद ने जब यह मुद्दा छेड़ ही दिया है तो इस पर उनसे कुछ सवाल भी बनते हैं. ये सवाल आज़ाद को खुद से और अपनी पार्टी के बड़े नेताओं से भी पूछना चाहि कि अगर देश में इस हद तक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पहुंच गया है कि मुस्लिम नेताओं की मौजूगी भर से पार्टी के हिंदू वोटर खिसक जाते हैं तो फिर इसका ज़िम्मेदार कौन है? कांग्रेस अभी भी वैचारिक भटकाव के दौर से गुज़र रही है. इस भटकाव से निकलने की उसमे छटपटाहत नहीं दिखती. कांग्रेस इसे अपने लिए ख़तरा नहीं मानती. कांग्रेस का सारा ज़ोर अपनी खोई हुई सत्ता को फिर से पाने पर है. अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा दोबारा हासिल करने की न तो उसमे इच्छा नज़र आती है और न हीं इच्छा शक्ति.
अगर संघ परिवार और बीजेपी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी सांप्रदायिक सोच को देश के बड़े तबक़े के बीच ले जाने में कामयाब हुए हैं तो फिर करीब पांच दशकों तक केंद्र की सत्ता में और कई दशक राज्यों की सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस ऐसा माहौल क्यों नहीं पैदा कर पाई जिसमें समाज का कोई तबका किसी दूसरे के मुक़ाबले खुद को कमतर या असुरक्षित महसूस न करे. इसकी ज़िम्मेदारी तो किसी न किसी को लेनी होगी. लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस पर इसकी ज़िम्मेदारी ज्यादा आती है.