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आनंद मोहन सहाय एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने 25 वर्ष की उम्र में ही अपनी मातृभूमि को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराने के लिये विदेश चल पड़े एवं जापान सहित अन्य दक्षिण-पुर्व एशियायी एवं निकटवर्ती यूरोपीय देशों में रह रहे भारतीयों को वतन की आजादी के लिये संगठित किया जो आगे चलकर आजाद हिन्द फौज के निर्माण का आधार बना।
10 सितम्बर 1898 को भागलपुर जिले के नाथनगर थानान्तर्गत पुरानीसराय ग्राम में लालमोहन सहाय के घर में आनंद मोहन सहाय का जन्म हुआ। प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने अपने घर में ही प्राप्त की। बचपन से ही सहाय जी के दिल में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नफरत थी। सन् 1916 में जब वे टीएनजे काॅलेजिएट हाई स्कूल के छात्र थे तो अपने कक्षा में ईसाई शिक्षक के समक्ष ' वन्दे मातरम' की आवाज लगायी। इस वजह से उन्हें कक्षा में कड़ा दंड दिया गया, क्योंकि व्रिटिशकाल में 'वन्दे मातरम'का उच्चारण ही अपराध माना जाता था। स्कूली शिक्षा के दौरान ही वे ढाका के क्रांतिकारी संगठन 'अनुशीलन समिति के संपर्क में आये एवं क्रांतिकारी गतिविधि में भाग लेना आरंभ किया।
महात्मा गांधी के आह्वान पर 1920 में अपनी डॅाक्टरी पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। महात्मा गाधी एवं डाॅ राजेन्द्र प्रसाद के संरक्षण में असहयोग आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। 1921से1923 तक डाॅ राजेन्द्र प्रसाद के निजी सचिव रहे और उनके तथा महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिये देशव्यापी दौरा किया। कुछ दिनों तक वे महात्मा गांधी के सावरमती आश्रम में भी रहे।1922 के गया के कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस से उनकी पहली मुलाकात हुई, जहां कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देशवंधु चितरंजन दास के निजी सचिव के रूप में वे मौजूद थे।
लिहाजा उनके आवभगत की जिम्मेदारी उन्ही को सौंपी गयी। इस प्रकार दो अपरिचितों नेताजी सुभाष चंद्र बोस को एक दूजे को जानने और करीब आने का मौका मिला। मई 1923 में श्री सहाय जापान चले गये। वहां 31माह लगातार रहकर गोरों के खिलाफ मोर्चावंदी की। अनेक योजनाओं का प्रारूप तैयार किया। इसी दौरान नागासाकी में गुलाम नागरिकों का सम्मेलन हुआ, जिसमें विदेशी हुकूमत के खिलाफ तमाम युवकों को तैयार करने का फैसला लिया गया, जो गुलामी केे अंधेरे में सर्द आहें भर रहे थे। सम्मेलन की योजना को दूसरे मुल्कों तक पहुॅचाने का जिम्मा श्री सहाय को दिया गया, क्योंकि उनके पास पासपोर्ट उपलव्ध था। वहरहाल, अन्तर्राष्ट्रृीय व्यापारी के वेष में वे चीन, मलाया, इन्डोनेशिया, कोलम्बो आदि देशों को नागासाकी सम्मेलन का संदेश देते हुए दिसम्बर 1926 में बतन हिन्दुस्तान आ गये।
उस वक्त भारत में गुवाहाटी में कांग्रेस का सम्मेलन हो रहा था। लेकिन श्री सहाय चाहकर भी उसमें शामिल नहीं हुए कि तुरंत विभिन्न देशों की यात्रा करते हुए यहां आने और फिर कंाग्रेस की सभा में शिरकत करने से अंग्रेजों को शक हो जाता। लिहाजा अलग- थलग ही रहकर कांगेस के फैसले का इंतजार करने लगे। वह पुनः जापान जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि इसी दौरान अप्रैल 1927 में देशबंधु चितरंजन दास की भगिनी सतीसेन से उनकी शादी हो गयी, जिससे जापान यात्रा के कार्यक्रम में कुछ माह के लिये व्यवधान पड़ गया।
सितम्बर 1927 में जब वह सपत्नीक जापान जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी उन्हें सूचना मिली कि मांडले ;वर्मा द्ध जेल में कैद सुभाषबाबू सख्त बीमार पड़ जाने से उन्हें उनके घर कोलकाता भेज दिया गया है, मगर किसी से मिलने की इजाजत उन्हें नहीं दी गयी है। इस सूचना पर श्री सहाय विचलित हो उटे और नेताजी से मिलने सपत्नीक कोेलकाता पहुॅंच गये। पर्ची भेजते ही सुभाष बाबू ने उन्हें उपर बुला लिया। बातचीत के दौरान सुभाष बाबू ने एक ही बात कही-''हम पश्चिमी देशों से अपनी आजादी की कतई कोई उम्मीद नहीं कर सकते हैं। भविष्य में एकमात्र जापान से ही ऐसी उम्मीद बंधती है। इसलिये आप जापान में ही कोशिश कीजिए।''
उन्होंने नेताजी से विदा ली और सपरिवार जापान पहुंच गये। यह सितम्बर 1927 की बात है। थोडे दिनों के प्रवासोपरंत सन् 1928 में जापान में कांगेस की शाखा शुरू की, जिसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से स्वीकृति प्राप्त की। सन् 1930 में 'व्यायस आॅफ एशिया' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन उन्होंने शुरू किया, जिसके संपादक और प्रकाशक वे स्वयं थे। यह पहली पत्रिका थी जिसमें एक ही विषय को अंग्रेजी के साथ-साथ जापानी भाषा में भी प्रकाशित किया जाता था।
इससे जहां पत्रिका को देखते ही देखते ख्याति प्राप्त हो गयी, वहीं श्री सहाय को 'अपनी बात ' कहने और दूर-दराज तक पहुॅचाने में भी मदद मिली। बाबजूद इसके वे गांव- गांव घूमते रहे। मंदिरों-विश्वविद्यालयों में गुप्त मिटिंग करते रहे,बुद्धिष्टों को आंदोलन के लिये उकसाते रहे और सारी गतिविघियों की सूचना बड़े ही गोपनीय ढंग से सुभाष बाबू को पहुॅंचाते रहे, इस संदेश प्रेषण में नरगा नाथनगर के दो भाईयों मीर और मुर्तुजा का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ, ये दोनो जहाज में खलासी का काम करते थे।इन दो भाईयों की देशभक्ति इतिहास में जगह पाने से वचित रह गयी।
तब तक गोरों की घेरावंदी कुछ ज्यादा तंग हो चुकी थी और सुभाष बाबू के लिये उस घेरे से निकलकर भागना नामुमकिन नही तो मुश्किल जरूर था। यह मौका उन्हें 1933 में मिला। पठान का भेष बदलकर वह काबूल भाग गये और वहीं जापान एम्बेसी के जरिये जापान जाने का संदेश भिजवाया। लेकिन अपना भेद खुल जाने के भय से जापानियों ने उनके प्रस्ताव केो अमान्य कर दिया। मजबूर होकर सुभाष बाबू जर्मनी चले गये और जर्मन एम्बेसी के जरिये टोक्यो खबर भेजी। श्री सहाय चाहकर भी असहाय बने रहे। एक ही मंजिल के दो राही दो विभिन्न मुल्कों में आजादी का अलख तो जगाते रहे, मगर चाहकर भी एक जगह जमा नहीं हो पाये।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम सुनते ही देशवासियों के मन में एक रोमांचकारी बीरपुरूष की छवि उभरकर आती है। भारत से रहस्यमय ढंग से जर्मनी महानिष्क्रमण फिर दक्षिण पूर्व एशिया आकर ' आजाद हिन्द फौज सरकार और फौज के गठन से नेताजी को बीर सैनिक के रूप में प्रतिष्टित किया किन्तु उनका व्यक्तित्व सीमावद्ध नहीं था। जुलाई 1940 में हालवेल स्मारक विरोध सत्याग्रह में बंगाल सरकार ने उन्हें उनके ही घर नजरबंद कर दिया। जनबरी 1941में भाग निकले और पेशावर, काबूल और मास्को होते हुए वर्लिन पहुॅंचे। वर्लिन में हिटलर से मुलाकत हुई, उन्होंनेे हिटलर से भारत की स्वतंत्रता के बारे में बात की।
सुभाषबाबू ने जनवरी 1942 में जनवरी में 'स्वतंत्र भारत' स्वयंसेवक दल की स्थापना की जिसमें अधिकतर सैनिक भारतीय युद्धवंदी थे। वे वर्लिन से से नियमित रूप से अपना भाषण प्रसारित करते थे,जिससे भारत में विशेष उत्साह की लहर फैली।1942 में जब अंग्रेजी, फ्रंासीसी और डच साम्राज्यवाद पूर्वी एशिया में जापानी ब्लित्जकीग के मुकाबले चूर-चूर हो गया तो नेताजी को लगा जैसे स्वाधीनता समर में कुदने का समय आ गया। जर्मन तथा जापनी नेताओं के सहयोग से वे 1943 के आरंभ में जर्मनी से रवाना हो गये और हम्बर्ग से पेनांग तक पनडुब्बी में बैठकर तीन माह की कठिन यात्रा के बाद वे टेकियो पहुॅंच गये। दो दिन बाद 4 जुुलाई को उन्हें रासबिहारी बोस नें दक्षिण पूर्व एशिया में चलाये जानेवाले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व सौंप दिया।
सिंगापुर में 4 जुलाई 1943 को ' आजाद हिन्द फौज' का विधिवत गठन हुआ था। भारत की अस्थायी सरकार का गठन भी वहीं हुआ जिसके अध्यक्ष वे बनाये गये। दिसम्बर में अंडमान और निकोवार द्वीप समूह स्वतंत्र करा लिये गये। जनवरी 1944 में आजाद हिन्द फौज ने वर्मा की सीमा को पारकर 18 मार्च 1944 को भारत की धरती पर कदम रखा। स्वतंत्र कराये गये द्वीप अंडमान और निकोवार का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा गया। सैनिकों ने जब अपनी जन्मभूमि पर कदम रखा तो असीम प्रसन्नता से प्रेम विह्वल होकर भारत की मिट्टी को चूमा। बहादूर आजाद हिन्द की सेना कोहिमा और इम्फाल की ओर बढ़ी।
जयहिन्द और नेताजी जिन्दावाद के गगनभेदी नारों के साथ स्वतंत्र भारत का झंडा वहां फहराया गया। आजादी का यह अनोखा दृश्य उन बीर जबानों के लिये उमंग से भर देने के लिये काफी था परन्तु इसी समय हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी बमवर्षक विमानों ने परमाणु बम गिराकर विश्व में जो दहशत भर दी वह अविस्मरणीय है। परमाणु बम ने जापानी सैनिकों को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया और इसी के साथ आजाद हिन्द फौज का सपना भी चकनाचूर हो गया और उन्हें पीछे हटना पड़ा। जब गोरी हुकूमत के खिलाफ हिन्दुस्तान का जर्रा- जर्रा आग उगल रहा था, वहीं आजाद हिन्द फौज केेह तीस हजार जवानों को प्रशिक्षित कर नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने 1943 में बाहर से हमला कर गोरों को शिकस्त देने की कोशिश कर रहे थे।
उधर जापान ने लड़ाई की सारी तैयारी पूरी कर ली और 8 सितम्बर 1941को उसने लड़ाई का ऐलान भी कर दिया। हमला सिंगापुर और पर्ल हार्बर पर भी हुआ, जहां अंग्रेेजों ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। 1 मार्च 1942 को टोक्यो में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें भारत, मलाया, थाइलैंड से मुख्य प्रतिनिधियों को बुलाया गया। सर्वसम्मति से रासबिहारी बोस को नेता बनाया गया। लेकिन श्री सहाय ने उस सम्मेलन का बहिष्कार किया, क्योकि वे सुभाषबाबू को नेता बनाना चाहते थे, जो तब जमर्नी में थे।
जून 1942 में भारतीयों का एक सम्मेलन बैंकाक में हुआ, जिसमें शिरकत करने का आग्रह श्री रास बिहारी बोस ने उनसे किया। वह उस आग्रह को ठुकरा नहीं पाये, इस बात से बेखबर कि बैंकाक सम्मेलन में ही वर्षों की साध पूरी होने वाली है। सम्मेलन में नेताजी को जमर्नी से बुलाने और नेता बनाने संबंधी प्रस्ताव भी पारित हुआ, मगर जापानियों ने उन्हें बुलाने की पहल फिर भी नहीं की। नजीजा यह हुआ कि बड़ी मशक्कत से तैयार की गयी आजाद हिन्द फौज टूट गयी, क्योंकि रास विहारी बोस उसे ठोस नेतृत्व नहीं दे सके।
आजाद हिन्द फौज का टूटना तब बड़ी घटना थी, जिसने जापानियों को झकझोर कर रख दिया और वहरहाल, नेताजी को जमर्नी से बुलाने के लिये रजामंद हो गये। इसी बीच 9 अगस्त 1942 को भारत में ' भारत छोड़ो आंदोलन' का श्रीगणेश हुआ। वास्तव में अंग्रेजों को शिकस्त देने का वह बड़ा माकूल मौका था। उस वक्त नेताजी सिंगापुर आ गये होते तो अंग्रेजों पर हमला सुनिश्चित था और तब शायद जो आजादी भारत ने 1947 में हासिल की, उसकी तिथि 1942 होती। मगर जापानियों की नजरअंदाजी के चलते वैसा नहीं हो पाया।
4 अगस्त 1943 को सुभाष बाबू सिंगापुर पहुंचे और आंदोलन का नेतृत्व स्वीकारते हुए आजाद हिन्द फौज को पुनव्र्यवस्थित किया। 29 अक्टूबर 1943 को 'प्रोविजनल गवर्नमेंट आॅफ आजाद हिन्द' कायम किया। मंत्री परिषद में श्री सहाय सेक्रेटरी जनरल बने। मंत्री परिषद की पहली ही बैठक में व्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ जंग का ऐलान किया गया। इसी बीच अंडमान और निकोवार द्वीप समूहों पर दखल जमा चुका था। ऐसे में श्री सहाय ने अपनी भटकती हुई सरकार को अपना भूखंड दिलाने की एक और कोशिश की। जापानियों से उन्होंने कहा कि-' दोनो द्वीप समूह तो भारत केे ही हैं इसलिये हमें दे दिये जांय, ताकि आजाद हिन्द अपने भूगोल पर काम कर सके।' जापानी इस पेशकश पर सोच में पड़ गये,क्योंकि अंडमान निकोवार द्वीप समूह हाथ से निकल जाने के बाद उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी। काफी सोच-विचार के बाद एक समझौता हुआ, जिसके मुताविक सुरक्षा व्यवस्था तो जापानियों के हाथ रही, मगर नागरिक प्रशासन आजाद हिन्द सरकार के जिम्में आ गया।
समझौते पर अमल करते हुए नेताजीह के संग श्री सहाय ने सिंगापुर से अंडमान के लिये उड़ान भरी और शाम होते-होते वहां पहुॅंच गये। अगलें ही दिन यानी 30 सितम्बर 1943 को अपना झंडा गाड़कर उन्होंने जश्ने आजादी मनायी। लेकिन लड़ाई का असली लक्ष्य कोसों दूर था। इसलिये 31दिसम्बर की सुबह ये पुनः बैंकाक चले गये और वहां से रंगून। जब आजाद हिन्द सरकार का हेडक्वाटर रंगून गया तो भारत की सरहद वर्मा 30 हजार प्रशिक्षित फौजें उतारी गयीं।
रंगून में कर्नल चटर्जी, दोस्त मोेहम्मद खान और आनंद मोहन सहाय की एक जांबाज टीम बनी। गौरतलब है कि इम्फाल से तीन किलोमीटर दूर चमेाल तक फौजें पहुॅंच चुकी थी। श्री सहाय तब फौज के साथ चल रहे थे। मौत से कुछ साल पहले श्री सहाय ने बताया था-'' हमारी फौजें तब व्रिटिश फौज को घेर चुकी थी लेकिन बरसात आ गयी थी और नदियों में बाढ़ आ जाने से रास्ता बंद हो जाने तथा दुशमनों से घिर जाने का खतरा था। इसलिये न चाहते हुए भी हमें रंगून से वापस लौट आना पड़ा।' इस प्रकार विजय द्वार पर पहुॅंचकर भी आजाद हिन्द फौज विजयोत्सव नहीं मना सकी। पच्चीस सालों तक विदेशों में घूम-घूमकर गोरों की नींद उड़ा दी थी। वे थक चुके थे।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस का विछोह उन्हें साल रहा था और इधर मुल्क में जंगे-आजादी आखिरी दौर में थी। 1947 में देश आजाद हुआ और स्वदेशी सरकार बनी तो श्री सहाय के पुराने अनुभवों के आधार पर उन्हें विदेश सेवा में शामिलकर लिया गया। इस दौरान वे वेस्टइंडीज, मारीशस आदि देशों में रहे। 1954 में कौंसिल जनरल के रूप में उन्हें हनोई भेजा गया। 1956 में राजदूत बनकर बैंकाक गये।1960 की पहली जनवरी को उन्होंने स्वेच्छा से विदेश सेवा से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद लड़कियों के लिये उच्च वि़द्यालय और महाविद्यालय के निर्माण कार्य में लग गये। नाथनगर बालिका उच्चविद्याालय और सुंदरवती महिला काॅलेज उनकी सेवा के उदाहरण हैं। 13फरवरी1991 को उन्होंने इस माटी को अलविदा किया।
(कुमार कृष्णन)