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5 नवंबरः जन्मदिन, अर्जुन सिंह और छत्तीसगढ़
अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ का सबसे बडा़ इलाका, राजनीतिक क्षेत्र और सांस्कृतिक घटक अधिक उपेक्षित रहा। भौगोलिक दूरी के कारण भोपाल में बैठे प्रशासक जाने अनजाने उसकी अनदेखी करते रहे। उन्हें अनुभव तथा अहसास रहा होगा कि छत्तीसगढ़ी दब्बू, सीधे, संकोचशील, गैर हमलावर और शासन विरोधी नहीं हो सकते। मध्यप्रदेश के निर्माण (1 नवंबर 1956) के पहले से छत्तीसगढ़ की राजनीतिक अहमियत रही है। गृहमंत्री रहे द्वारिका प्रसाद मिश्र कसडोल उपचुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बने। इसी बीच अर्जुन सिंह का मिश्र से संपर्क हुआ। अर्जुन सिंह को मिश्र का शिष्य कहा जाने लगा। अर्जुन सिंह ने गुरु की शैली का राजनीति में परिष्कार और पुनराविष्कार जारी रखा। 1972 के चुनाव के बाद अर्जुन सिंह लगातार शीर्ष नेता के रूप में उभरने का कोशिश करते रहे।
चतुर अर्जुन सिंह ने आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के नेताओं से संबंध मजबूत करना शुरू किया। बिसाहूदास महंत, वेदराम, गणेशराम अनंत, राजा नरेशचंद्र सिंह, झुमुकलाल भेड़िया, डाॅ. टुमनलाल, वासुदेव चंद्राकर, भंवरसिंह पोर्ते, देवेन्द्र कुमारी देवी, कोमाखान ज़मींदार भानुप्रताप सिंह, रामचंद्रसिंह देव, रानी पद्मावती देवी, मानकूराम सोढ़ी वगैरह से अर्जुन सिंह ने संपर्क बनाने कोशिश की। यह राजनीतिक शातिर चाल होने के साथ सामाजिक अभियांत्रिकी का छत्तीसगढ़ में प्रयोग था।
आदिवासी, दलित तथा पिछड़े वर्ग के छत्तीसगढी नेताओं ने मुहिम का स्वागत किया। धीरे धीरे शुक्ल बंधुओं के प्रभामंडल से दूर होते उनकी निष्ठा अर्जुन सिंह के प्रति परवान चढ़ती गई। इन्हीं दिनों फौज़दारी मुकदमा दायर हो जाने के कारण अजीत जोगी को कलेक्टरी छोड़नी पड़ी। अर्जुन सिंह के कारण उन्हें राज्यसभा की सदस्यता मिल गई। गंगा पोटाई, सत्यनारायण शर्मा, बंशीलाल धृतलहरे, बैजनाथ चंद्राकर, चरणदास महंत, राधेश्याम शर्मा, शिवेन्द्र बहादुर सिंह, रश्मि सिंह, केसरीमल जैन, पवन दीवान, बलराम सिंह ठाकुर, सुरेन्द्र बहादुर सिंह, पुष्पा देवी सिंह, कमला देवी सिंह वगैरह भी उनके संपर्क में आए।
विद्याचरण शुक्ल को अपने बड़े भाई के कारण राज्य की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही। श्यामाचरण शुक्ल विवादहीन थे लेकिन राजनीति में नित नई हो रही तिकड़मों और नवीन गतिविधियों की जानकारी नहीं होती थी। फिर भी कई विधायक थे जिन्होंने अपने इलाके में पकड़ बनाए रखी। लक्ष्मण प्रसाद वैद्य (बेमेतरा), देवीप्रसाद चैबे (साजा), हीरालाल सोनबोईर (बालोद), केजूराम (पाटन), शिवप्रसाद शर्मा (पामगढ़), भवानीलाल वर्मा (चंद्रपुर), प्यारेलाल कंवर (रामपुर), रामपुकार सिंह (पत्थलगांव), रामचंद्रसिंह देव (बैकुंठपुर) आदि ऐसे रहे हैं। 1980 का चुनाव आते आते अर्जुन सिंह का विकास क्लाइमैक्स पर आ लगा। विद्याचरण शुक्ल की शाह कमीशन में घोषित वफादारी के बावजूद अर्जुन सिंह के कारण इन्दिरा गांधी शुक्ल बंधुओं से छिटकती चली गईं।
1980 के विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत के कारण शुक्ल बंधुओं ने आदिवासी कार्ड खेला और मध्यभारत से वरिष्ठतम आदिवासी नेता शिवभानु सोलंकी को समर्थन दिया। गुप्त मतदान में अफवाहों के अनुसार आश्चर्यजनक ढंग से सोलंकी को 121, अर्जुन सिंह को 81 और कमलनाथ को 41 वोट मिलना पर्यवेक्षक प्रणब मुखर्जी द्वारा बताया गया। कमलनाथ के अपने वोट अर्जुन सिंह को अंतरित करने से अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए।
अर्जुन सिंह ने चाणक्य शैली में शुक्ल समर्थकों को कांटा समझकर जड़ों से उखाड़ने का काम शुरू किया। खरसिया उपचुनाव में लगा शायद अर्जुन सिंह जनसंघ के उम्मीदवार दिलीप सिंह जूदेव के मुकाबले जीत नहीं पाएं। नन्दकुमार पटेल अपना गृह निर्वाचन क्षेत्र होने के कारण अर्जुन सिंह की आंखों का तारा बन गए। सांस्कृतिक समझ के अर्जुन सिंह ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी प्रतीक योद्वा वीर नारायण सिंह के नाम बस्तर में विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा भी की। गुरु घासीदास का यश भी राजनीतिक दृष्टि से भुनाने में कसर नहीं छोड़ी।
छत्तीसगढ़ के वंचित वर्ग के नेताओं को अर्जुन सिंह में मसीहा नज़र आने लगा। सहकारी आंदोलन में बैजनाथ चंद्राकर (बिलासपुर), गुरमुख सिंह होरा, सत्यनारायण शर्मा और राधेश्याम शर्मा (सभी रायपुर) और वासुदेव चंद्राकर (दुर्ग) आदि बड़े क्षत्रप बनकर उभरे। मोतीलाल वोरा ने भी अर्जुन मंत्रिमंडल में जगह मिलने के साथ ही उड़ती चिड़िया के पंख गिने और अर्जुन सिंह समेत सबको धता बताकर आश्चर्यजनक ढंग से 1985 के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बना दिए गए। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को पंजाब का गवर्नर बनाकर भेज दिया।
छत्तीसगढ़ बनने के पहले से ही नरसिंह राव से युद्वरत अर्जुन सिंह के अधिकांश समर्थक नेता दिग्विजय सिंह के खेमे में चले गए। दलित आदिवासी और पिछड़े वर्ग के नेताओें को अर्जुन सिंह ने एकजुट तो कर दिया था। झुमकलाल भेंडिया, गंगा पोटाई, मानकूराम सोढ़ी, अजीत जोगी, बिसाहूराम यादव, जीवनलाल साव, राधेश्याम शर्मा जैसे कई नेता रहे हैं जो अर्जुन सिंह की तरह दिग्विजय सिंह से अंदरूनी तौर पर नहीं जुड़ पाए। अर्जुन सिंह ने कार्यकर्ताओं के स्तर पर बहुत अधिक यात्राएं नहीं कीं। अर्जुन सिंह ने यदि किसी अनुयायी को पद देने का आश्वासन दे दिया तो वे उसे सुनिश्चित ही करते थे। यह उनका करतब था।