संपादकीय

संघ के स्वयंसेवकों में विरोधाभासी विचार

संघ के स्वयंसेवकों में विरोधाभासी विचार
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स्वयंसेवकों को कल बद्री नारायण जी की पुस्तक रिपब्लिक आफ हिन्दूत्व पर राम माधव जी के विचार और मुस्लिम मंच से भागवत जी के डीएनए हिन्दू होने और हिन्दू नहीं होने वाले विचार को समझने का प्रयास करना चाहिए।

ऐसा लगता है कि बंच आफ थॉट का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार अब नेपथ्य में जा रहा है! संघ के वरिष्ठ प्रचारकों के लिए वर्तमान परिस्थितियों में यह अप्रासंगिक होता जा रहा है! स्वयंसेवकों को कल बद्री नारायण जी की पुस्तक रिपब्लिक आफ हिन्दूत्व पर राम माधव जी के विचार और मुस्लिम मंच से भागवत जी के डीएनए हिन्दू होने और हिन्दू नहीं होने वाले विचार को समझने का प्रयास करना चाहिए। राम माधव के यह विचार कि "जो आज नेशनलिस्ट है, कल एंटीनेशनल भी हो सकता है" और बीफ खाना कुछ लोगों की धार्मिक रीति रिवाजों का हिस्सा है, एक स्पष्ट संदेश उन स्वयंसेवकों के लिए है जो सत्ता और पद की लालच में संघ के दरबार में शरणागत हुए वामपंथियों का खुला विरोध कर रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि यह वामपंथी आगंतुक, संघ के वरिष्ठ प्रचारकों को खुश रखने का पूरा इंतजाम कर रहे हैं।

वरिष्ठ प्रचारकों को पद के बदले उच्च अकादमिक संस्थानों में उनके पसंद के हिसाब से सेमिनार एवं कान्फ्रेंस आयोजित कर उन्हें उनके विचारों को रखने का अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं, साथ ही अपने पुस्तकों का विमोचन करवा रहे हैं। हालांकि ऐसे तमाम अवसर विद्वान स्वयंसेवकों के द्वारा पहले से ही इन प्रचारकों को मिलता रहा है लेकिन वामपंथियों से अपने विचारों पर मुहर लगाने की बहुप्रतीक्षित लालसा ने उन्हें इतना अति उत्साही बना दिया है कि वह भी अब कांग्रेसी सेक्युलरिज्म की भाषा एवं विचारों का शिकार होते जा रहे हैं। यदि आप पिछले कुछ वर्षों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ साथ अन्य वरिष्ठ प्रचारकों के अलग अलग मंचों से दिये गये उद्बोधनों का विश्लेषण करे तो वह एक दूसरे से विरोधाभासी रहे है।

संघ के स्वयंसेवकों के समक्ष सबसे बड़ा संकट इस बात का खड़ा हो गया है कि वह किस वरिष्ठ प्रचारक के विचारों का अनुसरण करें? संघ के प्रचारकों की भाषा मंचों के अनुसार लगातार बदलते जा रही है । प्रचारक स्वयं एक मंच पर जो उद्बोधन देते हैं अगले ही दिन स्वयं ही दूसरे मंच से उसका खंडन कर देते हैं। इसका साफ़ साफ़ मतलब यह है कि संघ का वर्तमान नेतृत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल सिद्धांत के इतर राजनीतिक सिद्धांत को महत्व देने लगा है और जहाँ राजनीतिक विषय स्थान ले लेता है वहाँ विचारों की स्थिरता संभव नहीं है।

डा. रविन्द्र प्रताप सिंह, पूर्व शोध सहायक

गिरि विकास अध्ययन संस्थान, लखनऊ


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