संपादकीय

दिवाली : पुरानी यादें, प्रेम भाईचारे की जगमग रोशनी !!

Shiv Kumar Mishra
25 Oct 2022 7:47 AM GMT
दिवाली :  पुरानी यादें, प्रेम भाईचारे की जगमग रोशनी !!
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वह दिन वापस आएंगे। मेल जोल के, प्यार मोहब्बत के। शक और नफरत का अधेंरे हटेगा। दिवाली फिर रोशन होगी। भाईचारे के प्रकाश से।

शकील अख्तर

त्यौहारों पर पुरानी यादें आ ही जाती हैं। खासतौर पर दिवाली पर। बहुत अच्छी, खुशनुमा, रोशनी भरी हुई। पहले सबसे बड़ा त्यौहार यही हुआ करता था। जो सब मनाते थे। किसी तरह का कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। आतिशबाजी जब चलती थी तो किसी को पता नहीं होता था कि यह हिन्दु के घर से चल रही है या मुसलमान, ईसाई के घर से।

अब तो इस तरह का माहौल बना दिया गया है कि जैसे हिन्दुओं को दिवाली पर पटाखे चलाने से रोका जा रहा है और बाकी सब लोगों को साल भर इसे चलाने की छूट मिलती है। अतिशबाजी तो होती ही दिवाली पर है। बाकी तो शादी ब्याह को छोड़कर और कभी चलती ही नहीं है। लेकिन अब प्रदुषण के बहुत बढ़ने से सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा रखी है। इसका हिन्दु मुसलमान से कोई ताल्लुक ही नहीं है। मुसलमान भी आतिशबाजी अपने हिन्दु भाइयों के साथ चलाता था। वह भी अब नहीं चला पा रहा है। लेकिन टीवी के एंकरों से लेकर हिन्दु मुसलमान में नफरत फैलाने वाले राजनीतिक लोग इस तरह माहौल बना रहे हैं कि जैसे यह हिन्दु विरोधी कदम हो और उससे ज्यादा यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं जैसे यह मुसलमानों के हित में हो।

बहुत खतरनाक राजनीति है। राहुल गांधी ने अभी कहा कर्नाटक में भारत जोड़ो यात्रा की अभूतपूर्व सफलता के बाद कि यह भाई भाई में दरार डाल रहे हैं। और उसके लिए भारत के सबसे बड़े और प्यारे त्यौहार दिवाली को भी नहीं बख्श रहे। कैसी राजनीति कर दी है कि विभाजन और नफरत के बिना चल ही नहीं सकती! झूठ का पेट्रोल डाले जाना इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत है! सच अवरोधक बन जाता है!

तो हमें ऐसे में एक सच्चा किस्सा बहुत याद आ रहा है। पुराने दोस्त सब जानते हैं कि दिवाली, होली, ईद सब त्यौहार हमारे यहां खूब धूम से मनते थे। क्या दिन होते थे वह। जब हिन्दु मुसलमान का कोई सवाल ही नहीं होता था। जयपुर में होली पर सुबह से हमारे यहां भीड़ लग जाती थी। और भारी हुड़दंग, खाने पीने के बाद हमारे घर से ही जुलूस निकलता था। पूरे शहर में धमा चौकड़ी मचाने के बाद देर रात फिर वापस आता था। खाने पीने के समापन दौर के लिए। और जो जाने की अवस्था में नहीं होते थे वहीं सो जाने के लिए।

लेकिन अभी जो सुनाने जा रहे हैं वह दिवाली का किस्सा है। बिहार का एक मुहावरा हमें बहुत अच्छा लगा खुरपी के ब्याह में हंसिए के गीत! दिवाली का मौका है तो दिवाली की ही बात सुनिए।

पूरे साठ साल पुरानी। दिवाली की रात। उन दिनों चीन की बनी लड़ियां नहीं होती थीं। बिजली होती थी खूब। कोई यह नहीं कहे कि बिजली भी 2014 के बाद आई है। तो बिजली से अन्दर का घर रोशन होता था। बरमादे और बाहर मिट्टी के दिए होते थे। और पटाखे खूब बहुत सारे होते थे। पापा के साथ बाजार लेने जाते थे और दुकानदार जो सबसे अच्छे होते थे मंहगे होते वह झोले में भर देता था। घर आकर पापा जो खतरनाक बम होते थे। उन दिनों सुतली बम सबसे तेज आवाज वाला आया था, उसके पैकेट और राकेट अलग निकलाकर रख देते थे कि यह हमारे साथ चलाना। अकेले नहीं। उधर बहनें जैसे ही मम्मी को खबर देती थी कि बड़े वाले बम और राकेट आ गए हैं तो मम्मी की आवाज आती थी कि हां जैसे यह आपकी बहुत बात मानेंगे। खाली फुलझड़ी और छोटे पटाखे कहा था दिलाने को। यह सब क्यों ले आए? अब कहीं जाना नहीं। साथ में चलवाना।

मगर उधर निकले पापा अपने दोस्तों के साथ। इधर बड़ी बहन आतिशबाजी का झोला उटाकर अपनी सहलियों के साथ। हम क्या करें? बड़े बम और राकेट बचे रखे हैं। हमने एक सुतली बम निकाला। पापा की सिगरेट का एक खाली डिब्बा उठाया। उन दिनों टिन के डिब्बे में सिगरेट आती थीं। बाहर जाकर बम के उपर टिन का डिब्बा रखा और बहन चिल्लाईं क्या कर रहे हो? मगर इतनी देर में हमने बम में आग लगा दी। भड़ाक की आवाज आई। जोरदार धमाका। और जब तक हमारी समझ में कुछ आता लडकियों का आवाजें खून खून।

बम चला टिन का डिब्बा फटा और सीधे हमारी नाक पर। हम हाथ से खून साफ कर रहे और सोच रहे कि इसे छुपाए कैसे। मगर इतनी देर में तो अंदर खबर पहुंच गई और सब हमें गालियां देते हुए बाहर। खाली अब्बा थे। दादा साहब, जिनकी उस समय आंख बनी थी ( मोतिया बिन्द का आपरेशन, उन दिनों बड़ा आपरेशन माना जाता था।) जो पापा को गालियां दे रहे थे। कहां हैं? चला गया दोस्तों के साथ। कहां है हमारी छड़ी? उन दिनों आंख पर पट्टी बंधी होने के कारण दादा ने बहुत सुंदर सुंदर छड़ियां मंगाकर रखी हुई थीं।

पास में ही कहीं पापा बैठे थे। खबर मिली तो भागते हुए आए। हमें गोद में उठाया। पापा कभी डांटते भी नहीं थे। मारने की बात तो दूर। हालांकि हम बहुत शैतान थे। हमने पूछा ज्यादा लगी है? पापा ने कहा आंख खुल रही है। हमने कहा नहीं। पापा ने रुमाल से आंख साफ करते हुए कहा फिर अस्पताल चलो।

छोटे से थे। मगर डाक्टर जानते थे। कई बार खेलते में चोटें खाकर जाते रहते थे। इस बार क्या हो गया? डाक्टर ने पापा को देखकर पूछा। लेकिन पापा के जवाब देने से पहले खून से भरा हमारा चेहरा देखकर वह भी घबरा गया। खून पोंछा गया। नाक में टांके लगाए। और शुक्र अदा किया गया कि आंख बच गई।

आज जब पहली बार यह घटना लिख रहे हैं तो लग रहा है कि कहीं कोई यह न पूछे कि आप भी दिवाली मनाते थे? माहौल इतना खराब कर दिया गया है कि अब तो यह डर भी लगता है कि कोई यह न कह दे कि आप ( वैसे ट्रोल आजकल आप कम ही कहते हैं, तुम या तू ही कहते हैं) दिवाली मनाते क्यों थे?

पहले रामलीला समिति, गणेशोत्सव समिति या किसी भी धार्मिक उत्सव की कमेटी में मुसलमान खूब पदाधिकारी होते थे। अध्यक्ष तक। खूब काम करते थे। चंदा तो अभी अयोध्या में राम मंदिर बनने के लिए भी तमाम मुसलमानों ने दिया। इसी तरह ईद मिलन समारोह, दरगाह कमेटी, मोहल्ले की मस्जिद की मरम्मत के लिए बनी कमेटी में हिन्दु भाई होते थे। खूब चंदा देते थे।

कहीं कोई भेदभाव नहीं था। ईद पर भाजपा के, संघ के कितने ही नेता घर पर आते थे। कई के लिए तो उस दिन स्पेशल वेज खाना भी बनता था। एक हमारे दोस्त थे पंडित जी। हमारे सबसे प्रिय दोस्तों में। बिक्के महाराज। वे मम्मी से कहते थे सबके लिए नान वेज के इतने सारे आइटम! हमारे लिए वेज में बस दो! मम्मी समझ जाती थीं। वे कहती थीं कि और भी बन सकते हैं। मगर तुम्हारी वह आंवरिया हम नहीं बना सकते। बिक्के फौरन अपनी धोती ( वह हमेशा धोती पहनता था) कसकर आंवरिया की तैयारी में लग जाते थे। आंवरिया हमारे बुंदेलखंड की बड़ी विशेष डिश होती है। यह सूखे आंवले से बनती है। बड़ी मेहनत, कलाकारी से। तो वह भी बनती थी।

आज सब याद आ रहा है। न अब्बा हैं। जिनके बिना दतिया का दशहरा पूरा नहीं होता था। महाराज (दतिया के राजा) भूखे पड़े ( भेंसे) को बल्लम मारकर छोड़ते थे। और वह बेतहाशा भागता था। उस पर पहला हाथ मोहम्मद हादी खां साहब ( हमारे दादा साहब, उससे पहले परदादा) का ही पड़ता था। पड़े के रस्सी खुलते ही सब बड़े घुड़सवार तलवार लिए उसके पीछे होते थे। दूर दूर से लोग यह दशहरा देखने आते थे। पड़ा अगर भीड़ में घूस जाता था तो बहुत लोग घायल हो जाते थे। कुचल जाते थे। तो उससे पहले उसे मारना होता था। वह महाराज की तरफ से दशहरे की बलि कहलाती थी।

एक वह जमाना था। जहां कोई हिन्दु मुसलमान नहीं था। त्यौहार सबके थे। आज के यह दिन देखकर पुरानी बातें याद आ गईं। बहुत को याद आती होंगी। मगर माहौल में एक डर है कि लोग चुप हैं। मगर कब तक?

वह दिन वापस आएंगे। मेल जोल के, प्यार मोहब्बत के। शक और नफरत का अधेंरे हटेगा। दिवाली फिर रोशन होगी। भाईचारे के प्रकाश से।


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