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शिक्षा में करना होगा सुधार, फैक्ट्री में बदल गये ये संस्थान- राजगोपाल पीवी
प्रख्यात गांधीवादी और देश व दुनिया में जल-जंगल की लड़ाई लड़ने वाले वरिष्ठ समाज कर्मी राजगोपाल पीवी इन दिनों मध्य प्रदेश में बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के दौरे पर हैं। उनके द्वारा स्थापित संगठन एकता परिषद के कार्यकर्ता बाढ़ पीड़ितों को हर तरह की मदद देने में जुटे हुए हैं। अभी वे कोरो ना की वजह से उत्पन्न समस्याओं से खास कर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में लोगों की मदद में रात दिन एक किए हुए थे। लोगों के लिए आजीविका की व्यवस्था सुनिश्चित की जा रही थी। उन्हें कोरो ना के खिलाफ जागरूक कर रहे थे।
उन्हें राशन,दवा और ऑक्सीजन तक मुहैया कर रहे थे। राजगोपाल पीवी के नेतृत्व में एकता परिषद अपनी कोशिशों से देश में एक बेहतर संगठन के रूप में उभर कर आया है। इस बीच आजादी के 75वें साल में प्रवेश करने पर राजगोपाल जी ने स्पेशल कवरेज न्यूज को एक ख़ास मुलाकात कार्यक्रम में बताया कि आजादी के समय जो सपने देखे गए थे, उसके ठीक विपरीत हम चल रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि शिक्षा व्यवस्था में सुधारकर हर भारतीय के मन में " मैं "की जगह "हम" का भाव विकसित किया जाए।
राष्ट्रीय एकता के लिए इंदिरा गांधी अवार्ड सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित और आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले 73 साल के राजगोपाल का कहना है कि वर्तमान दौर में सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि शिक्षा व्यवस्था में सुधार (री-ओरियंट) किया जाए। वर्तमान में शिक्षण संस्थान फैक्ट्री में बदल गए हैं, जहां से बड़ी संख्या में युवा निकल रहे हैं। इन फैक्ट्रियों में बच्चों को सिर्फ यह सिखाया जा रहा है कि उन्हें कैसे सफल होना है, उन्हें कैसे कमाना है ,कैसे आगे बढ़ना है ।
आम लोगों के बारे में कुछ भी नहीं सिखाया जाता, पर्यावरण के बारे में कुछ भी नहीं सिखाया जाता। उन्होंने आगे कहा, फैक्टरी बन चुके शिक्षण संस्थान यह नहीं बताते कि आसपास के लोगों के विकास में ही तुम्हारा विकास है, पर्यावरण सुरक्षित रहेगा तो हम लोग सुरक्षित रहेंगे, अंतिम व्यक्ति को न्याय देने से न्याय व्यवस्था को ताकत मिलेगी । यह सब सिखाने के बदले, उन्हें सिर्फ अपने हितों को पूरा करना बताया जाता है। इसलिए लेागों को तैयार करने वाली फैक्ट्री को सुधारना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फैक्ट्रियों से तैयार हुए लोग दफ्तरों में घुस जाते है, निर्णायक की भूमिका में आ जाते हैं जो सिर्फ अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में सोचते हैं ।
देश और जनता के बारे में नहीं सोचते, ऐसा क्यों हो रहा है इसकी जड़ में जाना होगा और उसी तरह लोगों केा तैयार करना हेागा। राजगोपाल का कहना है कि आजादी के समय जो कल्पना की गई थी उससे भिन्न दिशा में देश को ले जाया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्तमान में लोगों को युद्ध में आनंद आता है, दूसरे को हराने में आनंद आता है और ताकतवर बनने का सोचते हैं। वास्तव में ताकत को लेकर जो समझ है उसे बदलना होगा। ऐसा देश जहां करेप्शन नहीं है, अन्याय नहीं है जहां जाति व्यवस्था नहीं है, छुआछूत नहीं है। ऐसे देश की कल्पना वाली समझ बनाने की बजाय आसमान में जाने की बात करते हैं, यही कल्पना देश में असमानता बढ़ाती है।
राजगोपाल ने कहा, आज जरूरत इस बात की है कि मैं नही हम के बारे में सोचें। सर्वोदय का यही मतलब था कि सबकी भलाई में ही मेरी भलाई है, इसलिए सर्वोदय के रास्ते पर जाना चाहिए, जय जगत के रास्ते पर जाना चाहिए। पश्चिमी देशों की नकल से बचना चाहिए। आजादी के समय जो कल्पना लेकर चले थे उसकी विपरीत दिशा में चले गए। सर्वधर्म सम्भाव की कल्पना थी, मगर अब जो दर्शन दे रहे हैं वह है कि जो संख्या बल में ज्यादा होगे वह ताकत दिखाएगा।
महात्मा गांधी ने ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था की बात की थी, मगर देश बर्बाद हुए और किसान मजबूर हुए, आत्महत्या तक पहुॅच गए। जो गांधी का सपना था, उससे दूर चले गए। वहीं यह सोचा था कि शिक्षा के माध्यम से ऐसे समाज को गढ़ेंगे जिसमें ईमानदारी से देश त्याग, तपस्या करने वाले लेाग होंगे, वह तो हुआ नहीं। शिक्षा प्रतिस्पर्धात्मक रही और इस प्रतिस्पर्धा में पैसा कमाने के चक्कर में लोग समाज को भूल गए।
उन्होंने आगे कहा, हम बाहरी आडंबर में भले आगे चले गए परंतु पर्यावरण के बारे में हमने समझ विकसित नहीं की। बाढ़ आ रही है, पहाड़ गिर रहे है, इससे लगता है कि हमने विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ जो रिश्ता रखना था वह रखा नहीं, जबकि हमारे शास्त्र और ज्ञान हमें यह बता रहे हैं कि प्रकृति के साथ मिलकर रहो तो मनुष्य रह सकता है, नहीं तो नहीं रह सकता।
उन्होंने आगे कहा, प्रकृति से हमारी जो दूरी हुई है वह गांधी के सिद्धांत से भिन्न है, दूसरा पैसे की दौड़ में अंतिम व्यक्ति पीछे छूट गया है। बीते 75 साल में हमने समानता लाने के बदल असमानता को बढावा दिया। एक तरफ लालच ने प्रकृति को नुकसान पहुॅचाया तो दूसरी तरफ लालच ने असमानता को बढ़ाया। वास्तव में यह गर्वनेंस का फेल्योर है। वास्तव में राजनीति का अर्थ है समाज को व्यवस्थित करने की कला, लेकिन हमारे यहां समाज व्यवस्थित करने की बजाय सबकुछ किया।
उन्होंने आगे कहा कि बीते 75 साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसका हम उत्सव मनाएं क्योंकि देश में नफरत की राजनीति बढ़ रही है। वास्तव में उत्सव तो यही होगा कि हम अपने अंदर झांकें और देखें कि बुद्ध, महावीर, महात्मा गांधी के देश में इतनी बड़ी गलती हमसे हो गई । जो दुनिया के लिए अच्छा नमूना बनने के बदले ऐसा नमूना बन गए है जिस पर दुनिया के लोग हंस रहे हैं। इसे सुधारा जा सकता है। देर से ही सही जागने से सबकुछ हो सकता है।
प्रसुन लतांत