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शायद सब को यह लग रहा होगा कि मोदी सरकार ने कृषि कानून की वापसी आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को देखते हुए वापस लिया है । इसे सच कहा जा सकता है लेकिन इस सच के पीछे एक बड़ी वजह छिपी हुई है। कृषि कानून का सर्वाधिक विरोध वहीं राज्य कर रहा है जिस राज्य में भाजपा की सरकार नहीं है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में स्वीकार किया कि "समय रहते हम किसान भाइयों को इस कानून की सच्चाई से अवगत नहीं करा पाए"। प्रधानमंत्री ने यह पहली बार कोई कानून वापस नहीं लिया है। इसके पहले भी वर्ष 2014 में जब केंद्र में भाजपा की सरकार बनी थी तब उन्होंने भूमि अधिग्रहण संशोधित कानून को लाया था। इसका भी सर्वाधिक विरोध किसानों द्वारा किया गया था। तब बढ़ते विवाद के बीच नरेंद्र मोदी ने मन की बात में 2015 में इस विवादित कानून को वापस लेने की घोषणा की थी। कृषि कानून को सिखों के प्रमुख त्यौहार प्रकाश पर्व के दिन वापस लेने की घोषणा भाजपा सरकार के खिलाफ सिखों के मन में बैठी नकारात्मक छवि को बाहर निकालने की एक कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन मुख्य सवाल यही है कि आखिर कृषि कानून वापस लेने को सरकार मजबूर हुई क्यों?
अगर विकास के नजरिए से देखा जाए तो शायद बात कुछ और हो सकती है। अर्थशास्त्र में "बड़े धक्के का सिद्धांत" कहता है कि विकास के पथ पर आने के लिए हमें एक बड़े धक्के की आवश्यकता होती है। जैसा की विमान उड़ान भरने से पहले रनवे पर चक्कर लगाता है और उड़ान भरने से ठीक पहले झटके के साथ में अपने लक्षित स्थिति को प्राप्त कर लेता है। ठीक उसी तरह कृषि कानून को लेकर के मोदी सरकार का भी एक अलग नजरिया है। वह नजरिया हो सकता है "पहले सत्ता, फिर सुधार"। अधिकतर मामले में देखा जाए तो कृषि राज्य सूची का विषय है। सर्वाधिक विरोध करने वालो में पंजाब और हरियाणा राज्य के किसान शामिल हैं। दरअसल, केंद्र और राज्य सरकारें किसानों से निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर पर गेहूं और चावल सबसे ज्यादा खरीदती हैं। पंजाब-हरियाणा में गेहूं-चावल का सर्वाधिक उत्पादन होता है। खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में पंजाब-हरियाणा का 80 फीसदी धान और करीब 70 फीसदी तक गेहूं सरकार ने खरीदा है। ऐसे में कृषि विधेयकों के कानून बनने के बाद इन दो राज्यों के किसानों को उनके उत्पाद की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर न होने का डर सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर सरकार उनका अनाज नहीं खरीदेगी तो फिर वह किसे अपने अनाज बेचेंगे?
अभी तो सरकार अनाज लेकर उसे निर्यात कर देती है या फिर और जगहों पर वितरित कर देती है। लेकिन बाद में किसान परेशान हो जाएंगे। उन्हें ये भी डर था कि प्राइवेट कंपनियां या व्यवसायी एमएसपी की जगह मनमाने दामों पर उनके उत्पाद की खरीद कर सकती हैं। क्योंकि किसानों के पास भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है तो उन्हें अपना अन्न मजबूर होकर कम दाम पर भी बेचना पड़ सकता है। पंजाब की प्रमुख पार्टी शिरोमणि अकाली दल जो कभी केंद्र और पंजाब में भाजपा की सहयोगी दल हुआ करती थी। इस कानून के आने के बाद से इस दल ने भाजपा से अपना नाता तोड़ इस कानून के विरोध की आग को और तेज करने का काम किया। लेकिन अब पंजाब में भाजपा को एक मजबूती के रूप में पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का साथ मिला है। फिलहाल अमरिंदर सिंह अभी पूरी तरह से सीधे तौर पर भाजपा के साथ नहीं है। इसके पीछे मुख्य कारण यही है कि यदि अमरिंदर सिंह नई पार्टी बनाने के बजाय भाजपा में शामिल हो जाते तो अमरिंदर सिंह के साथ के लोग भी खिलाफ हो जाते। अमरिंदर सिंह और अमित शाह की दोस्ती किसी से छिपी नहीं है। कांग्रेस छोड़ने के बाद से अमरिंदर सिंह की मुलाकात लगातार अमित शाह से होती रही। उनकी हर एक मुलाकात मीडिया में खबरें बनती रही। पंजाब में भाजपा की मजबूती और अपनी वापसी के बारे में अमरिंदर सिंह ने अपनी तरफ से अमित शाह को सलाह दिया था कि वह कृषि कानून को वापस लेने की घोषणा कर दें। इसके माध्यम से विरोध कर रहे किसानों के बीच एक अच्छा संदेश जा सकता है। लेकिन अमरिंदर सिंह के साथ मुख्य चुनौती यह थी कि वह कृषि कानून का विरोध कर रहे पंजाब के अधिकतर किसानों को किस तरह से अपने पाले में ला सकते हैं। इसके लिए राजनीति के चाणक्य अमित शाह ने एक ही रास्ता सुझाया था कि अमरिंदर सिंह भाजपा में शामिल ना हो करके अपनी एक नई पार्टी का गठन करके आगामी आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ सकते है। अमित शाह की यह सलाह शायद अमरिंदर सिंह को प्रभावित कर गई। उन्होंने पंजाब लोक कांग्रेस के नाम से एक नई पार्टी का गठन करके कांग्रेसियों के भी चारो खाने चित कर दिए है। कयास लगाए जा रहे हैं आने वाले चुनाव में पंजाब में भाजपा और पंजाब लोक कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे।
वैसे कृषि कानून पर चल रहा विरोध खत्म होने वाला ही था, लेकिन इसे धार देने का काम खुद भाजपाइयों ने ही किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के केंद्रीय मंत्री के बेटे के गाड़ी से कुछ किसानों की मौत हो जाने के बाद से इस आंदोलन को और धार मिल चुकी थी। इसके बाद से लगातार भाजपा के खिलाफ हमले हो रहे थे। यहां तक की कांग्रेस ने तो इसे अपना मुद्दा ही बना लिया है। आज कांग्रेस अपने हर एक संबोधन में इसी घटना का जिक्र करती है। लगातार हो रहे हमले से भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने वोट बैंक के खत्म होने का डर था। इधर के उपचुनाव में भी भाजपा को खासी सफलता हासिल नहीं हो पाई थी। इसी वजह से कुल मिला करके अगर देखा जाए तो यह सिर्फ और सिर्फ आने वाले चुनाव को देख करके ही सरकार को इस कानून को वापस लेने की जरूरत महसूस पड़ी। कृषि कानून तो वापस हो चुका है लेकिन अभी भी दिल्ली की सीमाओं पर किसान डटकर इसके खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। अब किसान कृषि कानून वापसी के बाद एमएसपी को गारंटी बनाने और 700 किसानों की मौत का मुआवजा एवं उनके परिवार के एक सदस्यों को नौकरी देने के मुद्दे पर अड़े हुए हैं। इसी तरह से यह लग रहा है कि आने वाले विधानसभा चुनाव तक किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे मुख्य नेता राकेश टिकैत यही टिके रहने चाहते हैं। जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी वह एक बार फिर से विधानसभा चुनाव लड़ करके अपना विधायकी का सपना पूरा कर सके। पूर्व में भी वह विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं और अपनी जमानत जब्त करवा चुके हैं। इसीलिए कुल मिलाकर देखा जाए तो शायद मेरे हिसाब से कृषि कानून फिर से लाया जा सकता है। पहले सत्ता, फिर सुधार के जरिए या फिर संशोधन के जरिए।
( यह लेखक के निजी विचार है निखिल कुमार सिंह पेशे से पत्रकार है और जुड़ापुर, जौनपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले है)
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