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अरुणा घवाना
हिन्दी की बिंदी का परचम होगा- इंटरव्यू में यह वाक्य जब लिखा गया तो बहुत से लोगों ने इसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा था, कि अंग्रेजी बिन तो सब सून, लाख पढ़ा ले तू हिन्दी, इसकी बिंदी तो मिट ही जानी है। पर अब पासा उलटा है- लाख पढ़ा ले अंग्रेज़ी तू, हिंदी तो अब रानी है। और इसी बहस का अमली जामा हम यूरोप में भी देखते हैं, जहां हिन्दी को भी तव्वजो दी जाती है। और इसका श्रेय प्रवासी भारतीयों को दिया जाए तो गलत नहीं होगा।
परदेश में रह कर ये प्रवासी भारत की संस्कृति-संस्कार, त्यौहार व भाषा को विश्वपटल पर पुष्पों सा बिखेर देते हैं जिसमें से हिन्दी भाषा की सौंधी-सौंधी खुशबू चारों ओर वातवरण में फ़ैल जाती है।
हिन्दी भारत के अलावा पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान के लोगों द्वारा भी असानी से बोली और समझी जाती है। गिरमिटिया देशों में भी भावविभोर कर देने वाला हिन्दी साहित्य लिखा गया जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कनाडा, अमेरिका, फ़िजी, सूरीनाम, जापान, चीन, मध्य एशिया, दक्षिण अफ़्रीका के अलावा यूरोपीय महाद्वीप में भी हिन्दी का इस्तेमाल बतौर संपर्क भाषा किया जाता है। विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी को पढ़ाने का प्रयास किया जाता है। मुश्किल है तो एक कि भारत में दिन-ब-दिन अंग्रेज़ी भाषा का काला साया फ़ैल रहा है, कहीं हिन्दी भाषा का हाल बौध्द धर्म जैसा न हो जाए, जो अपनी जन्मभूमि में ही आज बेगाना बना फ़िर रहा है।
हिन्दी राजभाषा का इस्तेमाल भारत ही नहीं विश्वभर में एक बहुत बड़ा वर्ग संपर्क भाषा के तौर पर करता है। भारत के स्वतंत्र होने के दो साल बाद वर्ष 1949 में 14 सितंबर को हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया। तब से हर वर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। साहित्यकार श्री व्यौहार राजेंद्र सिंह के 50वें जन्मदिवस के अवसर पर 14 सितंबर को हिन्दी को राजभाषा बनाने का विचार बना क्योंकि उन्होंने ही हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए बहुत संघर्ष किया।
भारत में यूरोप से चार गुना ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं। भारतीय लगभग 900 भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं जबकि इसके विपरीत यूरोप में लगभग 250 भाषाएं बोली जाती हैं। देश विशेष के लोगों से बातचीत के आधार पर यह लेख तैयार किया गया है।
नार्वे: नार्वे जैसे शांति प्रिय देश में किसी न किसी मोड़ पर हिन्दी सुनाई देना एक आम बात है। यह कहना है, नार्वे की एक द्विभाषिक पत्रिका स्पाइल-दर्पण के संपादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल जो शरद आलोक के नाम से लिखते हैं। कहना न होगा, कोविड महामारी के समय में उन्होंने विश्व का पहली हिन्दी काव्य संग्रह लिखा- लाकडाउन
नीदरलैंड: यहां पर जानेमाने भाषाविद प्रो मोहनकांत गौतम, डा रामा तक्षक और प्रो पुष्पिता अवस्थी जैसे कई जाने-माने नाम हिन्दी के पर्याय बन चुके हैं। बड़ी तन्मयता से हिन्दी की सेवा में लगे ये विद्वान हिन्दी पर गर्व करते हैं। बकौल प्रो गौतम, न जाने क्यों भारतीय हिन्दी बोलने में कतराते हैं। अपनी भाषा आपकी अपनी पहचान होती है।
नीदरलैंड के एक भारतीय छात्र ने बताया कि यदि आप नीदरलैंड में लंबे समय तक रहना चाहते हैं तो डच सीखना अच्छा और अनिवार्य है। भारतीय छात्र आपस में मिलते हैं तो हिन्दी में बात करते हैं, पर विडंबना यह है कि पढ़ने का माध्यम अंग्रेज़ी है तो अनायास ही अंग्रेजी में बातचीत शुरू हो जाती है। और कालांतर में यह सामान्य सी बात हो जाती है।
स्वीडन: स्वीडन से श्री सुरेश पांडेयजी हिन्दी की सेवा में लगे हैं। इंडो-स्कैंडिक आर्गेनाइजेशन के वाइस प्रेज़िडेंट हैं। हिन्दी कविता के पुट में अपनी बात कहने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं है। उन्होंने अपना लेखन हिन्दी में ही शुरू किया, पर उन्हें इस बात का मलाल ज़रूर है कि वे अपने बच्चों को पूरी तरह हिन्दी नहीं सिखा सके। हिन्दी में लिखी उनकी पुस्तक को उनकी तीसरी पीढ़ी नहीं पढ़ सकती इसका दुख उन्हें सालता है। लेकिन उन्हें इस बात की बेहद खुशी है कि जब भी उनके बच्चे भारत जाते हैं तो सबसे हिन्दी में ही बात करते हैं। कोई हिचकिचाहट नहीं। चाहे सामने वाला व्यक्ति कितनी भी अंग्रेज़ी बोले!
जर्मनी: जर्मनी में यों तो जर्मन भाषा के आगे कुछ नहीं है, फ़िर भी प्रो रामप्रसाद भट्ट जर्मनी में हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में शिक्षण के कार्य में संलग्न हैं। कक्षाओं में विद्यार्थियों की संख्या भले ही कम हो गई लेकिन संस्कृत के अलावा हिन्दी भाषा के प्रति भी विद्यार्थियों में क्रेज़ देखा जा सकता है। अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में हिन्दी वहां कुछ बेहतर स्थिति में है। इसका कारण संभवत: भारत से बड़ी संख्या में गए विद्यार्थी।
कहना न होगा कि लातिन के चलते जहां जर्मनवासियों में संस्कृत का क्रेज बरकरार है, वहीं वे एशियाई देशों से संपर्क रखने का सबसे बड़ा माध्यम हिंदी को ही मानते हैं। एक भारतीय कर्मचारी ने बताया कि भारतीय विद्यार्थियों की संख्या अधिक होने के चलते सड़कों पर हिन्दी आसानी से सुनाई देगी क्योंकि भारत से आते ही वे हमवतनों को खोजने लगते हैं। हिन्दी ही उनको आपस में जोड़ने का बेहतरीन माध्यम बन जाता है।
डेनमार्क: डेनमार्क में हिन्दी रेडियो अपनी अच्छी पैठ बना चुका है। डेनमार्क में अर्चना पैन्यूली हिन्दी की पहचान हैं। बुल्गारिया: बुल्गारिया जैसे देश में हिन्दी का अपना एक स्थान है। विश्वविद्यालय के स्तर पर सोफ़िया विश्वविद्यालय में प्रो आनंद शर्मा ने हिन्दी विभाग संभाला है। सोफ़िया में मोना कौशिक का हिन्दी के प्रति प्रेम किसी से कम नहीं है।
स्पेन: स्पेन में गुरूकुल में हिन्दी अध्यापन में व्यस्त पूजा को हिन्दी की पूजा करने में कोई गुरेज़ नहीं है। चेक गणराज्य: यहां पर भारतीयों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। जबकि मज़ेदार बात यह है कि भारत में एक ब्रांड ऐसा है जिसे सब भारत का उत्पाद ही समझते हैं लेकिन असल में वह चकोस्लोवाकिया का है- बाटा शूज़
इटली- इटली के मिलान शहर से उर्मिला चक्रवर्ती हिन्दी की सेवा में तत्पर नज़र आती हैं। जैसी ध्वनि बोली जाए वैसी ही लिखी जाए, ऐसी हिन्दी भाषा की विशेषता है। अंग्रेज़ी की तरह इसमें कुछ भी साइलेंट नहीं है। विदेशों में बसे इन भारतीयों को इस बात पर हैरानी है कि विदेश में जाकर लोगों के सामने हिन्दी बोलने में गुरेज़ क्यों?
इस सबका एक दूसरा पहलू भी है, जो भारतीय लंबे समय से विदेशों में बस गए हैं वे अपनी भारतीय पहचान को कायम रखने के लिए हिन्दी बोलते हैं या उन्हें सचमुच हिन्दी में दिलचस्पी है। खैर, यह अलग विषय है। विश्व पटल पर भारत की निखरती छवि भी हिन्दी को विश्व में स्थापित करने में अवश्य मील का पत्थर साबित होगी।