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भारत-चीन सैनिक झड़प: अतीत के आईने और भविष्य के मायने
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कमलेश पाण्डेय
अमूमन भारत-पाकिस्तान के बीच होते रहने वाली झड़पों में तो हमलोग पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते आये हैं, लेकिन यदा-कदा जब भारत-चीन के बीच सीधी झड़प की नौबत आती है तो हमलोगों का प्रायः वह उत्साह नहीं दिखता, जो ऐसे मौके पर दिखना चाहिए! तब हमलोग शायद यह भी नहीं सोच पाते कि जब पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, वर्मा आदि जैसे हमारे लघु पड़ोसी देश हमारी उदारतावश कभी कभार हमसे आंख में आंख मिलाकर बातचीत करने की हिमाकत करते आए हैं, तो फिर भारत जैसा मजबूत देश और हम भारतवासी चीन के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकते! यही वह बात है जिसे समझने, समझाने और तदनुरूप नीतियां बनाने की जरूरत है, जिससे हमारा सियासी व प्रशासनिक जमात भी कमोबेश बचने की कोशिश करता आया है। फिर भी मोदी युगीन भारत में समर्थ चिंतन की जो अजस्र धारा सिस्टम के हरेक रग को अनुप्राणित कर रही है, उसे व्यापक जनसमर्थन कैसे मिले, इस ओर भारतीय प्रबुद्ध लोगों को सतत सचेष्ट रहना होगा।
दरअसल, सन 1962 के अप्रत्याशित भारत-चीन युद्ध में वीरों की भूमि कहे जाने वाले भारत की नहीं, बल्कि एक सदाशयी और साहित्यिक मिजाजी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अव्यवहारिक चिंतन की हार हुई थी, गुटनिरपेक्षता और पंचशील सिद्धांत जैसी उनकी तत्कालीन अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों की पराजय हुई थी। क्योंकि हिंदी-चीनी भाई-भाई के खटराग के समानांतर उन तैयारियों को उन्होंने कभी अहमियत नहीं दी, जो कि निज भाई के ही जानी दुश्मन बन जाने की आशंकाओं के मद्देनजर हर जगह पर की जाती है। बाद के वर्षों में हमने महसूस किया है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों यथा- लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दृढ़ निश्चय से आसेतु हिमालय वासियों को यह समझा दिया कि चीन-पाकिस्तान जैसे खुटरमचाली देश यदि तनें तो आंख झुकाने या पीठ दिखाने की नहीं बल्कि आंख में आंख मिलाकर बात करने और सीने पर मुक्का तानने वाली मुद्रा दिखाने को उद्यत रहने वाला निर्भीक भाव प्रदर्शित करने की सख्त जरूरत है। अपने इस फौलादी और चट्टानी इरादे में हमलोग एक हद तक सफल भी होते आये हैं और होते रहेंगे, क्योंकि देशज कहावत भी है कि हिम्मते मर्दे, मर्दे खुदा। यहां पर यह स्पष्ट कर दें कि हमलोग शब्द में ही हमारे वीर बांकुड़े सैनिक भी शामिल हैं।
निःसन्देह, बदलते वक्त का तकाजा है कि हमारा प्रशासन पाकिस्तान-चीन के हर परोक्ष या प्रत्यक्ष गठजोड़ से मुकाबले की स्पष्ट और व्यापक रणनीति अमल में लाये, जिसमें स्पष्ट जनभागीदारी भी दिखे। भारतीय हितों की रक्षा करने और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर उसे सामर्थ्यशाली बनाये रखने हेतु यह बहुत जरूरी है। यहां यह बतलाना जरूरी है कि भारत-चीन के सैनिकों के परस्पर आमने सामने होते ही हमलोगों में भी वही जज्बा दिखना चाहिए, जो कि भारत-पाकिस्तान के सैन्य झड़प के मौके पर दिखाई देता है। यह बात मैं इसलिये बता रहा हूँ कि यह भारत सबका है, लेकिन ऐसे अहम मौकों पर समाज के एक वर्ग में जिस राष्ट्रवादी उत्साह का सर्वथा अभाव महसूस किया जाता है, वैसे लोग आखिर यह क्यों नहीं सोचते कि उनके भी खातिर सीमा पर चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करके लड़ने का माद्दा दिखाने वाले हमारे वीर बांकुड़े जवानों पर तब क्या बीतती होगी, जब उन्हें यह एहसास होता होगा कि उन्हें सम्पूर्ण भारत के लोगों का अपेक्षित समर्थन हासिल नहीं है!
इस बात में कोई दो राय नहीं कि अविलम्ब प्रशासनिक सहयोग और पर्याप्त जनसमर्थन के संकेत मिलते रहने से ही हमारे कमांडरों व उनके सहयोगियों का मनोबल ऊंचा रहता है। इसके लिए हमें अपने आंतरिक जनतांत्रिक शत्रुओं यथा- जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, वर्गवाद, भाषावाद और सम्पर्कवाद जैसी व्यवस्थागत कमियों, उनमें निहित खामियों से आगे निकलकर समवेत स्वर में बात करने की हमें अथक कोशिश करनी होगी।
# आप मानें या न मानें, मई के पहले पखवाड़े में भारत-चीन के सैनिकों के बीच सिक्किम में हुई ताजा झड़प के कुछ खास निहितार्थ हैं, जिन्हें समझने, समझाने और उसके मुताबिक ही भावी रणनीति अख्तियार करने की जरूरत है।
पहला, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते सियासी कद से चीन-पाकिस्तान के पेट में रह रह करके जो दर्द उठ जाता है, इससे उनको जो दिली परेशानी होती है, उसका बस एक ही उपाय है कि हमलोग सैन्य, कूटनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सियासी मोर्चे पर सतत संचेतनशील रहते हुए अपेक्षित सावधानी बरतें। क्योंकि जिस तरह से हमारी विविधता में एकता की परिपाटी को खंडित कर भारत को 30 हिस्सों में बांटने का दिवास्वप्न चीन देखता और पाकिस्तान उसे दिखाता आया है, उसका अब एक ही जवाब है, वह है मुंहतोड़ जवाब! खुद से भी और दुनियादारी के मोर्चे पर भी, जैसा कि पीएम मोदी ने कर दिखाया है।
दूसरा, भारत-चीन के रणनीतिक सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव की जो दो मुख्य वजहें हैं, उसमें से एक भारत व उसके मित्र देशों के साथ, अमेरिका व उसके मित्र देशों के आर्थिक व सैन्य हितों से पारस्परिक सामंजस्य बिठाने की अंदरूनी कोशिशें हैं, तो दूसरा भारत व उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले हमदर्द देशों के साथ वैश्विक कूटनीतिक मंच पर हमारे सबसे भरोसेमंद मित्र देश रूस (पहले सोवियत संघ) व उसके समर्थक देशों के कूटनीतिक, सैन्य व व्यापारिक हितों से पारस्परिक सामंजस्य बिठाने की अंदरूनी कोशिशें हैं, जो हमारे सिस्टम से अपना गहरा नाता रखती हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और नोएडा एनसीआर के दैनिक भास्कर के प्रभारी है