संपादकीय

भारत आज भी मैला ढोने वाली प्रथा से मुक्त नहीं

भारत आज भी मैला ढोने वाली प्रथा से मुक्त नहीं
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यहां तक कि इनके बच्चे, जिनका इन कामों से कोई नाता नहीं होता उन्हें भी बचपन से ही सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है।

यह हैरानी और शर्मनाक बात है कि भारत मैला (मनुष्य का मल मूत्र) ढोने की प्रथा से अभी तक मुक्त नहीं हुआ है। अपने देश में आज भी लाखों लोग मनुष्य के मल मूत्र को ढोने और उसे ठिकाने लगाने के लिए विवश हैं,जिनमें सत्तर फीसदी से कहीं अधिक महिलाएं हैं। मनुष्य के मल मूत्र की सफाई का काम किसी पुरुष या महिला पर थोपने की यह व्यवस्था पूरी तरह से अमानवीय है। इस प्रथा के कारण सामाजिक तौर पर लाखों लोग अपमान और जिल्लत की जिंदगी जीने के लिए विवश हैं, अभिशप्त हैं। अपने समाज में ऐसे लोगों को घृणा की नजर से देखा जाता है। उनसे अनावश्यक सामाजिक दूरी बनाई जाती है और समाज में इनकी हैसियत हाशिए से भी नीचे होती है।

यहां तक कि इनके बच्चे, जिनका इन कामों से कोई नाता नहीं होता उन्हें भी बचपन से ही सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है। हम अपने परिवार में प्रिय से प्रिय लोगों के मल मूत्र साफ करने को कभी राजी नहीं होते हैं और ये नहीं के बराबर की मजदूरी पर दूसरे इंसानों के मल मूत्र साफ करने के लिए विवश होते हैं। हमने विकास यात्रा के क्रम में कई भौतिक सुविधाओं को अपने हिसाब से विकसित किया लेकिन मानव मल मूत्र उठाने और उसको ठिकाने लगाने वालों के जीवन को उन्नत करने और उनको इस अपमानजनक कार्य से मुक्ति दिलाने के दृष्टिकोण से किसी मिशन को कामयाब करने में चूकते चले गए हैं।

अब तक इस प्रथा का वजूद पूरी तरह से खत्म हो जाना चाहिए था। पिछले कुछ सालों से देश भर में राष्ट्रीय स्तर पर स्वच्छता अभियान चले। गांधी जी की कूड़े उठाते तस्वीर प्रदर्शित की गई। चूक यही हो रही है कि हमने इसे केवल सफाई के मुद्दे से जोड़ कर ही देखा, मानवीय गरिमा को बहाल करने के नजरिए से नहीं देखा। मैला ढोने वाले को सरकारी भाषा में मैनुअल स्कैवेंजर्स कहा जाता है और इसमें वे भी शामिल हैं, जो मल मूत्र से भरे सीवर की सफाई का काम करते हैं। सीवरेज की सफाई करने वाले सफाई कर्मियों की हालत भी कम दयनीय नहीं है। पिछले दिनों लोकसभा में सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास आठवले ने बताया कि पिछले पांच सालों में उत्तर प्रदेश,तमिलनाडु,दिल्ली,महाराष्ट्र, गुजरात और हरियाणा में सफाई करते हुए 340 लोगों की मौत हो चुकी है।

सूत्रों के मुताबिक यह बात भी सामने आ गई है कि इस अमानवीय कार्य से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए केंद्र सरकार का फिलहाल सख्त कानून बनाने का कोई इरादा नहीं है और ना ही देश में यांत्रिकृत स्वच्छता पारिस्थितिकी तंत्र बहाल करने की कोई कारगर योजना ही सिरे चढ़ाई जा रही है। हालांकि इस बारे में एक योजना का प्रारूप बनाया गया है पर उसे लागू करने की दिशा में कोई तत्परता दिखाई नहीं पड़ रही है।

इस प्रथा को जल्द से जल्द खत्म करने के लिए महात्मा गांधी और डॉ बाबा साहेब आंबेडकर ने भी आवाज उठाई थी। महात्मा गांधी ने अपने आश्रम में कार्यकर्ताओं को स्वयं से शौ चालय साफ करने का चलन प्रचलित किया। बाबा साहेब आंबेडकर ने तुरंत गंदे पेशे छोड़ने का आह्वान किया था। यह प्रथा ना केवल अपमानजनक और अमानवीय है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 15,21,38 और 42 के प्रावधानों के खिलाफ भी है। अनेक सफाई कर्मचारी और मानवाधिकार संगठन भी इस प्रथा को पूरी तरह से खत्म करने पर जोर देते रहे हैं और इसके लिए आंदोलन भी करते रहे हैं।

बावजूद यह प्रथा ना सिर्फ आज भी जारी है,बल्कि इस प्रथा के तहत काम करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी भी हो रही है जबकि कानूनन इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध है। सरकारी प्रयासों का आलम यह है कि इस पर पूरी तरह रोक लगाने और मैला ढोने वाले लोगों के पुनर्वास के लिए भारत सरकार ने बजट में जहां पिछले साल 110 करोड़ रुपए आवंटित किया था और अब इसे घटा कर मात्र 30 करोड़ कर दिया है। इस कारण मैला ढोने के काम में लगे लोगों खासतौर से महिलाओं के पुनर्वास के काम में भारी कमी आएगी। यह चिंता की बात है कि विकास के नए सोपान चढ़ते और विश्व गुरु होने के बढ़ चढ़ कर दावे करने के बीच हम इस अमानवीय और अपमान भरे कार्य से अपने देश को मुक्त नहीं कर पाए हैं।

देश में वैसे यह प्रथा सैकड़ों सालों से जारी रही है । आजादी के बाद पांच दशकों तक भी इस प्रथा को पूरी तरह से खत्म करने के लिए सरकारी स्तर से कोई खास प्रयास नहीं हुआ। अनेक संगठनों की लगातार मांग और संघर्ष के परिणाम स्वरूप 1993 में एक कानून बनाया गया,जिसके तहत इसके दोषी को एक साल की जेल या पचास हजार जुर्माना का प्रावधान है। मीडिया के मुताबिक केंद्र सरकार स्वयं स्वीकार करती है कि इस कानून के तहत आज तक किसी एक को भी सजा नहीं दी गई है।

इस प्रथा को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष करने वालों का आरोप है कि राज्य सरकारें जान बूझ कर यह स्वीकार नहीं कर रही हैं कि उनके राज्य में आज भी मैला ढोने की प्रथा बरकरार है। बिहार,हरियाणा,जम्मू कश्मीर और तेलांगना ने दावा किया था कि उनके राज्य में एक भी मैला ढोने वाला नहीं है। जबकि बिहार में 4757, हरियाणा में 1221, जम्मू कश्मीर में 254 और तेलांगना में 288 लोगों ने खुद को मैला ढोने वाले श्रमिक के रूप में रजिस्ट्रेशन कराया था।

केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ओर से कुछ साल पहले मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए एक स्वरोजगार योजना की शुरुआत की गई,जिसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी मंत्रालय की संस्था राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त व विकास निगम (एन एस के एफ डी सी) को दी गई। इस संस्था ने देश के विभिन्न राज्यों में मैला ढोने वालों के बीच सर्वेक्षण कराया। उनकी ओर से 2018 में सीमित स्तर पर कराए गए सर्वेक्षण के दौरान 18 राज्यों के 170 जिलों के 87,913 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था लेकिन इनमें से केवल 42,303 को ही स्थानीय प्रशासन ने माना और आधे से अधिक को मैनुअल स्कैवेंजर मानने से इंकार कर दिया था। और यह सर्वेक्षण केवल 18 राज्यों तक सीमित था।

बाकी के राज्यों के बारे में पर्याप्त जानकारी भी नहीं है। अनुमान के मुताबिक मैला धोने वालों की संख्या आज भी लाखों में है। ये सर्वेक्षण इसलिए किए गए थे कि ऐसे लोगों की पहचान करके उनका पुनर्वास किया जाए ताकि पूरी तरह से प्रतिबंधित यह अपमानजनक कार्य को ख़तम किया जा सके। पिछले सोमवार को वित्त मंत्री द्वारा पेश किए बजट में इनके पुनर्वास के लिए फंड में 73 फीसद कटौती कर दी गई है। गौरतलब है कि 20 सितंबर 2020 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री रामदास आठवले ने एक बयान दिया था कि 2020-21 के दौरान इनके पुनर्वास के लिए 15 सितंबर 2020 तक कोई भी फंड जारी नहीं किया गया था।

जबकि इसके लिए 110 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश भर में 26 लाख ऐसे घर थे जहां अस्वास्थ्यकर शौचालय थे, जिनकी सफाई मैला धोने वालों के माध्यम से कराई जा रही थी। मैला ढोने वालों के हित में और उनकी मानवीय गरिमा को बहाल करने के लिए सरकार और समाज पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रयास करे ताकि भारत इस कलंक से जल्द से जल्द मुक्त हो सके।

(हेमलता म्हस्के)

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