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अरविंद जयतिलक
यह विडंबना है कि एक ओर वैश्विक समुदाय कल्याणकारी योजनाओं के जरिए श्रमिकों की दशा में सुधार के लिए प्रयासरत है वहीं श्रमिक उबरने के बजाए बदहाली के दलदल में धंसते जा रहे हैं। कल्याणकारी योजनाओं के लागू होने के बाद उम्मीद जगी कि श्रमिकों की संख्या में कमी आएगी। लेकिन गौर करें तोउनकी संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की मानें तो उभरते हुए विकासशील देशों में आज 70 करोड़ से अधिक श्रमिक गरीबी का दंश भोगने को मजबूर हैं।े इस संगठन के आंकड़ें के मुताबिक यह श्रमिक वर्ग प्रतिदिन 3.50 डाॅलर प्रति व्यक्ति की आय से खुद को उपर नहीं उठा पा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक उनके विकास और प्रगति की दर बेहद धीमी और निराशाजनक है। सच कहें तो विकासशील देश बढ़ते श्रम बल के साथ श्रमिकों को बेहतर जीवन देने में अभी तक नाकाम साबित हुए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के जरिए भी तथ्य उजागर हो चुका है कि दुनिया भर में आर्थिक समृद्धि बढ़ी है लेकिन उस अनुपात में श्रमिकों की हालत में सुधार नहीं हुआ है। भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां श्रमबल जनसंख्या तकरीबन 460 मिलियन है जिसमें 430 मिलियन कामगार असंगठित क्षेत्र की विषम परिस्थितियों से संबंधित हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 65 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के कामगारों से प्राप्त होता है। इनमें भी असंगठित क्षेत्र का लगभग 48.5 प्रतिशत महिला कामगारों का है। गौर करें तो इन पर उत्पादन कार्य और प्रजनन का दोहरा बोझ है। इन श्रमिकों का जीवन बदतर और बदहाल है। जबकि आजादी के बाद से ही देश की सरकारें कल्याणकारी योजनाओं और सुधारात्मक कानून के जरिए कृषि श्रमिकों, बाल श्रमिकों, महिला श्रमिकों एवं संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के जीवन स्तर को सुधारने में जुटी हैं। लेकिन अभी तक कोई क्रांतिकारी बदलाव देखने को नहीं मिला है। कृषि-श्रमिकों की ही बात करें तो यह वर्ग भारतीय समाज का सबसे दुर्बल अंग बन चुका है। यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से अति निर्धन तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यंत शोषित है। इनकी आय बहुत कम है।
यह वर्ग गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। अधिकांश कृषि-श्रमिक भूमिहीन तथा पिछड़ी, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से हैं। इनके बिखरे हुए एवं असंगठित होने के कारण किसी भी राज्य में इनके सशक्त संगठन नहीं है जो इनके अधिकारों की रक्षा कर सके। नतीजा उनकी समस्याएं दिनों दिन बढ़ती जा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में कृषि मजदूरों की संख्या में हर वर्ष इजाफा हो रहा है। यह स्थिति तब है जब कृषि-श्रमिकों के कल्याण के लिए देश में रोजगार के विभिन्न कार्यक्रम मसलन 'अंत्योदय अन्न कार्यक्रम', 'काम के बदले अनाज', 'न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम', 'जवाहर रोजगार योजना,' 'रोजगार आश्वासन योजना' एवं 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना' जैसी कई योजनाएं चलायी जा रही हैं। यहां समझना होगा कि कृषि करने वाले किसान ही कृषि-श्रमिक बन रहे हैं। दरअसल प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ ने किसानों को दयनीय बना दिया है। हां यह सही है कि सरकार ने कृषि-श्रमिकों आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं में सुधार के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम गढ़ा है लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन नहीं होने से श्रमिकों की दशा में अपेक्षित सुधार नहीं हो पा रहा है। उचित होगा कि सरकार इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन कराए तथा श्रमिकों के कार्य के घंटों का नियमन करे। यह भी सुनिश्चित करे कि अगर कृषि-श्रमिकों से अतिरिक्त कार्य लिया जाता है तो उन्हें उसका उचित भुगतान हो। भूमिहीन कृषि-श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए उन्हें भूमि दी जाए। जोतों की अधिकतम सीमा के निर्धारण द्वारा प्राप्त अतिरिक्त भूमि का उनके बीच वितरण किया जाए। भू आंदोलन के अंतर्गत प्राप्त भूमि का वितरण करके उनके जीवन स्तर में सुधारा लाया जाए। गौर करें तो महिला श्रमिकों की हालत और भी त्रासदीपूर्ण है। एक आंकड़े के मुताबिक विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई काम करती हैं लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ 10 प्रतिशत ही आय प्राप्त होता है। भारतीय संदर्भ में महिला श्रमिकों की बात करें तो पिछले दो दशक के दौरान श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।
भारत में अधिकतर महिलाएं विशेष रुप से गामीण महिलाएं कृषि कार्य से जुड़ी हैं। किंतु चिंता की बात है कि उन्हें उनके परिश्रम का उचित मूल्य और सम्मान नहीं मिल रहा है। यही नहीं एक श्रमिक के रुप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनका श्रम कानूनों में कोई उल्लेख नहीं हैं उचित होगा कि देश की सरकारें इस दिशा में सुधारवादी कदम उठाएं। यहां जानना आवश्यक है कि संगठित क्षेत्र में 20 हजार से अधिक श्रमिक संगठन हैं। वे अपनी समस्याओं को पुरजोर तरीके से उठाते हैं। सरकार से अपनी मांग पूरा कराने में भी कामयाब हो जाते हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र को यह लाभ नहीं मिल पा रहा है। छोटे व सीमांत किसान, भूमिहीन खेतीहर मजदूर, हिस्सा साझा करने वाले, मछुवारे, पशुपालक, बीड़ी रोलिंग करने वाले, भठ्ठे पर काम करने वाले, पत्थर खदानों में लेबलिंग एवं पैकिंग करने वाले, निर्माण एवं आधारभूत संरचनाओं में कार्यरत श्रमिक, चमड़े के कारीगर इत्यादि असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं। गौरतलब है कि श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने असंगठित क्षेत्र में आने वाले श्रमिकों के कल्याण के लिए श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 अधिनियमित किया है। लेकिन जब तक सरकार सुरक्षा अधिनियम के प्रावधानों को कड़ाई से क्रियान्वयन नहीं कराएगी तब तक उसका समुचित लाभ श्रमिकों को नहीं मिलेगा। देखा जा रहा है कि सख्त कानून के बावजूद भी कल-कारखाने, कंपनियां और उद्योग समूह अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। कोरोना महामारी के इस समय हालात तो और अधिक बदतर हैं। उचित होगा कि सरकार श्रमिकों की सुरक्षा के लिए ऐसी कंपनियों और उद्योगों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई करे ताकि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ नाइंसाफी न हो। दूसरी ओर देश से बालश्रम मिटाने की चुनौती भी जस की तस बरकरार है। देश में सख्त कानून होने के बावजूद भी तकरीबन 50 लाख बाल श्रमिकों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
याद होगा गत वर्ष पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल श्रमिकों की दुर्दशा को लेकर सख्त नाराजगी जताते हुए सरकार को ताकीद किया था कि बाल मजदूरी से जुड़ी शिकायतों पर 24 घंटे के भीतर कार्रवाई हो और बचाए गए बच्चों को मुआवजा देने और उनके पुनर्वास का काम 45 दिनों में सुनिश्चित हो। लेकिन इस सख्त आदेश के बावजूद भी बाल श्रमिकों के साथ ज्यादती जारी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 में स्पष्ट प्रावधान है कि मानव तस्करी व बलात् श्रम के अलावा 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानें और जोखिम भरे कार्यों में नहीं लगाया जा सकता। दुखद पहलू यह भी कि बाल श्रम से जुड़े बच्चों का इस्तेमाल वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी जैसे घृणित कार्यों में हो रहा है। एक जिम्मेदार राष्ट्र व संवेदनशील समाज के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो आज भारत 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिकों वाला देश बन चुका है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 20 करोड़ से अधिक बच्चे जोखिम भरे कार्य करते हैं जिनमें से सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चों की ही है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक विश्व में करीब दस करोड़ से अधिक 14 वर्ष से से कम उम्र की लड़कियां विभिन्न खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रही हैं इनमें भी सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चियों की ही है। आज की तारीख में इनका जीवन संकट में है। वे आर्थिक बदहाली के कारण त्रासदी भोगने को मजबूर हैं। सच कहें तो यह स्थिति भारत राष्ट्र के माथे पर कलंक जैसा है। उचित होगा कि देश की सरकारें संगठित व असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाएं।