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"विपक्षी दलों के गठबंधन के सदस्यों का दौरा मात्र दिखावा है। जब पूर्ववर्ती सरकारों के शासन में मणिपुर जलता था, तब उन लोगों ने संसद में एक भी शब्द नहीं कहा, जो अब पूर्वोत्तर राज्य का दौरा कर रहे हैं।" — अनुराग ठाकुर
मोदी सरकार में युवा मामलों तथा खेलों के मंत्री, अनुराग ठाकुर का ऊपर-उद्यृत वक्तव्य, चौबीस महत्वपूर्ण विपक्षी पार्टियों के मंच—इंडिया—के इक्कीस सांसदों की टीम के मणिपुर के दो दिन के दौरे को खारिज करने की अपनी बदहवासी में, सबसे बढ़कर इसी का सबूत पेश करता है कि मोदी के डबल इंजन राज से, मणिपुर के हालात को संभालने के लिए, कम से कम किसी भी तरह के बहुपक्षीय प्रयास की उम्मीद नहीं की जा सकती है। बहरहाल, यह विनाशकारी नकारात्मकता सिर्फ राजनीतिक बहुपक्षीयता का रास्ता बंद करने तक ही सीमित नहीं है। मणिपुर में शांति तथा सद्भाव का संदेश लेकर पहुंचे विपक्षी सांसदों के दल के राजधानी इम्फाल पहुंचने के मौके पर प्रायोजित तथाकथित शांति रैली, जिसका आयोजन मणिपुर इंटिग्रिटी समन्वय समिति या कोकोमी द्वारा किया गया था, जाहिर है कि शासन के अनुमोदन से, इसका खुलेआम ऐलान कर रही थी कि इथनिक-सामाजिक बहुपक्षीयता का रास्ता, असामान्य हालात के तीन महीने पूरे होने के बाद भी, कसकर बंद ही रखा जाना है।
खबरों के अनुसार, इस प्रधानत: मैतेई रैली का पूरा जोर यह साबित करने पर तो था ही कि सारी समस्या, कुकी-चिन समुदाय की खड़ी की हुई थी, जिसे उत्तर-पूर्व के संदर्भ में संघ की जानी-पहचानी शब्दावली में 'अवैध घुसपैठिए' बताया जा रहा था। इससे भी खतरनाक यह कि रैली में शामिल लोगों को इन कुकी-चिन घुसपैठियों को 'उखाड़कर संंघर्ष खत्म करने' यानी उखाड़ने तक यह संघर्ष जारी रखने का संकल्प दिलाया जा रहा था। इन दोनों को जोड़कर देखें तो, एक ही नतीजे पर पहुंचना होगा कि मणिपुर की त्रासदी यह नहीं है कि वह जल रहा है, उसकी असली त्रासदी यह है कि उसे जान-बूझकर जलाया जा रहा है और जलाने वालों के ही हाथों में आज सत्ता है, देश में भी और प्रदेश में भी।
मणिपुर में 3 मई से जो हो रहा है और उत्तर-पूर्व के इस अभागे राज्य में, इससे पहले भी कई मौकों पर जो कुछ होता रहा है, उसमें यही गुणात्मक अंतर है। यह आज राज में जो बैठे हुए हैं, उनकी विफलता का मामला नहीं है, जैसा कि अब तक रहता आया है। इन विफलताओं के कारण बेशक पुराने और ऐतिहासिक हैं। यह राज्य विविधताओं तथा उसने जुड़े इथनिक टकरावों का ही नहीं, असंतुलनों का भी भंडार है। सबसे बड़ा असंतुलन तो यही कि मैतेई, जो आबादी का 52 फीसद से ज्यादा हिस्सा हैं, आर्थिक व शैक्षणिक-सांस्कृतिक दृष्टि से कहीं उन्नत हैं और परंपरागत रूप से हिंदू परंपराओं के निकट रहे हैं। वे मुख्यत: इम्फाल घाटी में संकेंद्रित हैं। मैतेई पिछले एक दशक के करीब में बढ़ते पैमाने पर अपनी पहचान हिंदू के तौर पर कराने लगे हैं। वे करीब 20 फीसद जमीनों पर काबिज हैं और मोटे तौर पर विधानसभा की साठ से चालीस सीटें उनके हिस्से में आती हैं। दूसरी ओर, कुकी-जोमी तथा अन्य आदिवासी के रूप में मान्यता-प्राप्त समुदाय, जो मुख्यत: पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, आर्थिक व सांस्कृतिक लिहाज से कम विकसित हैं, वन्य इलाकों में रहते हैं, बड़ी संख्या में खुद को ईसाई मानते हैं और विधानसभा की साठ में से कुल बीस सीटें ही उनके लिए आरक्षित हैं
इस राज्य में जहां परंपरागत रूप से, विशेष रूप से सभी आदिवासी ग्रुपों के अपने सशस्त्र संगठन रहे हैं, जिनमें से अनेक से युद्घविराम जैसे समझौते के जरिए हथियार रखवा कर पिछले दशकों में एक हद तक शांति भी कायम कर ली गयी थी, मैतेई समुदाय पर केंद्रित कर आरएसएस-भाजपा द्वारा पांव फैलाए जाने ने और फिर 2018 के चुनाव के बाद से भाजपा के जोड़-तोड़ से सत्ता पर काबिज होकर राज चलाए जाने ने, रुई पर तेल छिड़कने का ही काम किया है। इसी पृष्ठभूमि में अप्रैल के आखिर में आए, हाई कोर्ट के निर्देश ने, जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रोक भी लगा दी, मैतेई समुदाय को आदिवासी यानी अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने का एक तरह से आदेश ही देकर, माचिस दिखाने का काम किया।
मैतेई समुदाय को आदिवासी दर्जा दिए जाने की इस संभावना के खिलाफ, जिसकी आशंकाओं को राज्य और केंद्र, दोनों में भाजपा सरकार की मौजूदगी और हवा ही देती थी, 3 मई को निकली आदिवासी ग्रुपों की विरोध रैली पर हमलों से जो हिंसा भड़की, उसने तेजी से राज्य में घाटी और पहाड़ी क्षेत्र के मुख्य समुदायों को, जैसे परस्पर युद्घरत राष्ट्रों में बदल दिया। चूंकि इस युद्घ की स्थिति के बीच व्यावहारिक मानों में पूरे राजतंत्र को और बहुत ही महत्वपूर्ण रूप से राज्य सरकार के तंत्र को, उसमें इथनिक आधार पर थोड़े-बहुत विभाजन के बावजूद, आम तौर पर बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के ही साथ खड़ा माना जा रहा था। इसके ऊपर से मुख्यमंत्री द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय को ही 'विदेशी घुसपैठियों' से लेकर 'नशा कारोबारी', आतंकवादी आदि, आदि करार दिए जाने का सिलसिला जारी था। इसने मणिपुर में शासन नाम की शायद ही कोई चीज छोड़ी है। और सारी विफलताओं के बावजूद, जिनमें राजधर्म का निर्वाह करने में विफलता सबसे बड़ी है, मोदी-शाह द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री बिरेन सिंह को संरक्षण दिए जाने ने, इस गृहयुद्घ को रुकवाने में शासन की भूमिका को एक तरह से त्याग ही दिया है।
लेकिन, मणिपुर के संकट के संदर्भ में शासन का इस तरह लापता ही हो जाना, न तो संयोग है और न ही किसी भूल-चूक का मामला है। इस गैर-हाजिरी का तीन महीने लंबा इतिहास खुद इसकी गवाही देता है। बेशक, 3-4 मई से मणिपुर जब सुलगना शुरू हुआ, मोदी राज का पूरा ध्यान कर्नाटक में चुनाव प्रचार पर था। खुद प्रधानमंत्री मोदी, उनके नंबर दो तथा देश के गृहमंत्री, अमित शाह और एक प्रकार से उनकी पूरी की पूरी सरकार ही, कर्नाटक के चुनाव प्रचार में जुटे हुए थे। लेकिन, लोगों को हैरान करते हुए, कर्नाटक का चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद भी, मई के आखिर तक मणिपुर की मोदी राज ने, केंद्रीय बलों की संख्या बढ़ाने के अलावा, कोई खोज-खबर नहीं ली। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री को वहां के घटनाक्रम पर चिंता जताना और लोगों से शांति बनाए रखने की अपील करना तक, मंजूर नहीं हुआ। और तो और, जब बाकायदा युद्घ के जैसे हालात से विचलित, खुद सत्ताधारी पार्टी के विधायकों समेत, पक्ष-विपक्ष, सभी ओर के राजनीतिक नेताओं ने केंद्र से सक्रिय हस्तक्षेप की मांग करने के लिए दिल्ली के दौरे किए, पर प्रधानमंत्री को अपनी ही पार्टी के विधायकों तक से बात करने का समय नहीं मिला और वह कई दिन की विदेश यात्रा पर चले गए।
मई के आखिर में, गृहमंत्री अमित शाह के तीन दिन के पहले दौरे से, अगर अल्पसंख्यक समूहों को थोड़ी-बहुत कुछ उम्मीद बंधी भी होगी, तो उसे भी राज्यपाल की अध्यक्षता में एक सर्वपक्षीय समिति बनाने जैसी उनकी घोषणाओं के साथ वास्तव में जो अगंभीर सलूक हुआ, उसने जल्द ही खत्म कर दिया। उनकी अपील के बावजूद, न लूटे गए हथियार लौटाए गए और न ही हिंसक हमले रुके। उल्टे प्रदर्शनकारियों द्वारा रास्ते रोके जाने के बल पर, सैन्य बलों को ही उनके शिविरों मेें कैद कर के रख दिया गया।
उसके बाद गुजरे दो महीनों में हालात में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है। हां! कुछ कुकी महिलाओं के साथ दरिंदगी का वीडियो वाइरल होने के बाद, संसद के मौजूदा सत्र की पूर्व-संध्या पर देश भर में दौड़ी विक्षोभ तथा वितृष्णा की लहर के बाद, प्रधानमंत्री को जरूर पहली बार मणिपुर की त्रासदी पर कुछ बोलना पड़ा है। लेकिन, वह बोलना भी इतना कम था कि उसमें संबंधित घटना पर दु:ख तथा क्षोभ जताने के साथ ही प्रधानमंत्री, विशेष रूप से विपक्ष-शासित राज्यों पर ऐसी घटनाओं के लिए हमला करने की ओर मुड़ गए। दूसरी ओर, उन्होंने न तो आम तौर पर मणिपुर की त्रासदी पर कोई दु:ख या पछतावा जताया और न ही लोगों से शांति व सौहार्द्र बनाए रखने की अपील तक की।
प्रधानमंत्री का उक्त बयान भी चूंकि संसद में नहीं, संसद के दरवाजे पर ही दिया गया था, विपक्ष आज तक मणिपुर के संकट पर प्रधानमंत्री के बयान और उसके बाद संसद में उस पर बहस की मांग ही कर रहा है। इस सरासर न्यायसिद्घ मांग को हठपूर्वक ठुकराने के जरिए, मोदी राज ने संसद के एक और सत्र को पहले ही दिन से ठप्प कर रखा है। दूसरी ओर, विपक्ष समेत जनमत के विशाल हिस्से की सुस्पष्ट मांग के बावजूद, मोदी राज ने बिरेन सिंह को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाने का एक प्रकार से ऐलान ही कर दिया है।
लेकिन, यह सिर्फ प्रधानमंत्री के जवाबदेही से इंकार करने या अहंकार का ही मामला भी नहीं है। 2002 के गुजरात के नरसंहार और 2023 के मणिपुर के खून-खराबे में इतनी सारी समानताएं, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से यौन हिंसा का निशाना बनाया जाना भी शामिल है, कोई संयोग से ही नहीं प्रकट हो गयी हैं। इनके पीछे, बहुसंख्यक समुदाय के राजनीतिक समर्थन के सांप्रदायिक सुदृढ़ीकरण की बहुत ही सोची-समझी रणनीति है। सब कुछ के बावजूद, इस अभियान के बीच से संघ-भाजपा मैतेई समुदाय के बीच अपनी पकड़, पहले से मजबूत होने की ही उम्मीद रखते हैं। रही बाकी सब लोगों की बात, तो उन्हें शासन के डंडे से ठोक-पीटकर झुकाने में कुछ समय भले ही लग जाए, लेकिन देर-सबेर कुछ न कुछ कामयाबी भी मिल ही जाएगी। और शासन के डंडे से ठोक-पीट के लिए अल्पसंख्यकों को विदेशी या घुसपैठिया या आतंकवादी करार दे देना ही काफी है।
पूर्व-थल सेनाध्यक्ष, जनरल नरवणे ने 'मणिपुर हिंसा में विदेशी एजेंसियों के हाथ' की अटकलों को हवा देेने के जरिए, इसके लिए रास्ता और साफ कर दिया है। यह गुजरात का आजमाया फार्मूला है, जो कश्मीर में एक हद तक कामयाब आजमाइश के साथ, अब मणिपुर में आजमाया जा रहा है। मणिपुर, खुद जल नहीं रहा है, मणिपुर जलाया जा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका 'लोकलहर' के संपादक हैं।)