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नारी तू नारायणी। नारी.... ऊर्जा का वह केन्द्र बिंदु है जो किसी भी विषम या भीषण परिस्थिति को अपनी सकारात्मक सोच व कार्य शक्ति से उम्मीद व संभावना में तब्दील करने की काबिलियत रखती है। वह उस अदृश्य शक्ति का पर्याय है जिसकी जादूगरी आम नजरों से तो नही दिखती है लेकिन उसके परिश्रम और पराक्रम से वह हर काली रात को सुबह की दुधिया रोशनी में परिवर्तित कर सकती है।
लॉक डाउन एक भीषण समय काल। जो स्वतन्त्र भारत के इतिहास में त्रासदी बनकर आया। एक ऐसा समय जो इंसान को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर अक्षमता की कगार पे ला खड़ा किया है। ऐसा समय जब जिंदगी का दूसरा नाम मजबूरी बन गया। एक ऐसा समय जब दिमाग दिशाहीन हो गया और निर्णय लेने की काबिलियत अपंग हो गयी। ठीक इसी मजबूरी के चरम बिंदु पे स्त्री ने हर बार की तरह मोर्चा संभाला और अपने तथा अपनों के जीवन को अपनी मुस्कुराहट और हौसले से एक नयी उम्मीद को रौशन किया।
स्त्री चाहे किसी भी तबके से हो, आर्थिक, सामाजिक परिदृश्य भिन्न हो, सोचने समझने की कूबत तार्किक या व्यभारिक हो, शिक्षित हो या अशिक्षित हो, चाहे जिस भी परिवेश में हो, वो नारायणी है। हर विकार उसके सानिध्य में साकार रूप ले लेता है। वह महामाया है।
आज की कहानी तीन भिन्न महिलायों पे आधारित है जिनकी जीवन शैली व कार्य शैली एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न है।
मुंगेर की प्रसिद्द फिजयो थेरेपिस्ट डॉ. इंद्राणी सिंह एक समृद्ध परिवार से ताल्लूक रखती है । पति चिकित्सक है। घर के हर कोने में ईश्वर ने समृद्धि का वरदान दे रखा है। लेकिन डॉक्टर इंद्राणी अपनी कर्मठता और कार्यकुशलता से खुद को और अपने परिवार को बखूबी संभालती है। इस लॉक डाउन में उन्होंने क्या किया। संभ्रांत होने के नाते रोज़ी रोटी पर सवाल तो बिल्कुल नही था, फिर उन्होंने लॉक डाउन का समय कैसे बिताया। उन्होंने कहा कि इस दरमियाँ उन्होंने खुद को और परिवार को पूरा समय दिया। पति के ड्यूटी पे होने के कारण दिक्कतें तो बहुत हुई लेकिन इस समय को सृजन के कार्यों में लगाया। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के प्रसारण को बच्चों के साथ देखा जिससे बच्चें अाध्यात्म और संस्कृति से परिचित हुए। अलग अलग व्यञ्जनों को बनाया। वागवानी की। खुद को समय दिया। रोज़मर्रा के भाग दौर के जिंदगी से दूर रहकर मन और दिमाग को रीफ्रेश किया।
रोज़ कमाना और रोज़ खाना की बात को चरितार्थ करने वाली वृद्ध महिला पारवती देवी रोड किनारे बैठ कर अपनी छोटी पूंजी के तहत रोजाना सब्ज़ी बेचती है। जो रुपये नसीब हुए उन्हें अपने फ़टे आंचल में बांध कर घर जाती है तो चूल्हा जलता है। बेटा बहू तो है लेकिन उनकी सुधि लेने वाला कोई नही है। वे भी बाहर रहते है। वह कहती है कि लॉक डाउन उनके लिए जैसे काल बन कर आया। कमाई बंद हो गयी और जमा पूंजी कुछ भी नही थी। वृद्ध शरीर व मन.... एक एक सांस जिंदगी पे भारी पर रहा था। उस पर अनिश्चितता कि आगे क्या होगा। कभी सब सामान्य होगा भी या नही। कई कई दिन तो भूखे ही रहना पड़ा। बाबजूद, उन्होंने हार नही मानी। ईश्वर की मर्ज़ी समझकर उन्होंने उस स्थिति का सामना किया और स्वयं के सम्मान के साथ खुद को संभाला और आज चेहरे पे फिर से हंसी है।
विधिवत कोई घर नही, कोई संसार नही। रास्ते पर ही जहाँ मन हुआ, डेरा डाल दिया। बन गया आशियाना। गुलाबो कुछ ऐसी ही है। न कोई पिता का परिचय न तो पति का। यायावर की जिंदगी। गुलाबो बताती है वो कब यहां आयी, याद नही कब तक रहेगी, पता नही। लॉक डाउन उसके लिए क्या परिभाषा ले के आया। उसने कहा बहुत ज्यादा दिक्कत हुई। वह किला के इलाके में अमूमन रहती है। कचहरी और विभिन्न प्रशासनिक कार्यालय के यहां होने के कारण लोगों की हमेशा खूब चहल पहल होती है। लोगों से पैसे या खाने की पूर्ति मांग के हो जाती है। दिन गुज़र जाता है। लॉक डाउन के वजह से चारों तरफ वीरानगी छायी रही। उस समय भी गुलाबो को जीना तो था ही। इसलिए उसने घर घर दस्तक दे कर मांग के खाया।किसी ने तिरस्कार किया तो किसी ने प्रेम से खाना भी दिया। लेकिन उसने जीने के हौसले को मरने नही दिया। जिंदगी जीने की ललक ने उसे अनजाने ही योद्धा बना दिया। उसने बता दिया कि वह स्त्री है जो किसी भी भयावह संकट की स्थिति को अपने सकारात्मक ऊर्जा से आलोकित करती है।