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कर्नाटक और महाराष्ट्र में रार: विभाजन, विग्रह, विखंडन की भाजपाई राजनीति
बादल सरोज
अब महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच रार ठनी हुयी है। दोनों सरकारों के मुखिया ; कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई और महाराष्ट्र के असली मुख्यमंत्री, वैसे उपमुख्यमंत्री, देवेंद्र फडणवीस सार्वजनिक रूप से एक दूजे को ललकार रहे हैं। बात पुलिस तक पहुँच गयी है। महाराष्ट्र भाजपा की पहल पर कर्नाटक में स्थित बेलगाम (इसे कर्नाटक बेलगावी और बेलगाव कहके पुकारता है) में उकसावे के लिए रखी गयी एक कांफ्रेंस में जाने वाले महाराष्ट्र के नेताओं को कर्नाटक की पुलिस ने रोक कर वापस रवाना कर दिया। गर्मागर्मी और बढ़ी। इधर महाराष्ट्र की विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर कर्नाटक की निंदा की गयी - उधर कर्नाटक इसी भाषा में इसका जवाब देने की तैयारी में जुट गया। ध्यान रहे कि दोनों ही राज्यों की सरकारें भाजपा सरकारें हैं - बोम्मई और फडणवीस दोनों ही भाजपा के बड़े नेता है।
झगड़ा राज्यों के पुनर्गठन के समय कुछ गाँवों के इस या उस राज्य में शामिल होने या न होने को लेकर है, आज से नहीं है, तभी से है। एक आयोग बन चुका। कुछ गाँवों के बारे में उसका निराकरण आ चुका, मगर मतभिन्नता बनी रही। अभी भी गाँवों के इधर उधर लिए दिए जाने के दोनों राज्यों के दावो पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है। सभ्य समाज में कायदे की बात तो यह होती कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इन्तजार किया जाता। जो भी आता उसे लागू किया जाता। मगर यहां न कायदे से कोई मतलब है न सभ्यता से ही कोई ताल्लुक है। इसलिए फैसले का इन्तजार करने की बजाय दोनों भाजपाई सरकारें अपनी सीमाओं को कुरुक्षेत्र बनाने पर आमादा हैं ।
खबर यह है कि भाजपा सत्ता में नेतृत्वक्रम जहां पूरा हो जाता हैं उस दो नंबर पर विराजे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह दोनों मुख्यमंत्रियों को बुलाकर उन्हें समझाते हैं ; परिणाम यह है कि बजाय इसके कि माहौल में नरमी आती, दोनों अपने अपने प्रदेशों की राजधानियों में पहुंचकर पहले से भी ज्यादा ऊँचे स्वर पर बोलना शुरू कर देते हैं।
ताज्जुब की बात नहीं होगी यदि कुछ महीनो में महाराष्ट्र - कर्णाटक सीमा पर दोनों तरफ की पुलिस एक दूसरे के सामने अटेंशन की मुद्रा में राइफल ताने खड़ी नजर आये। पिछली साल ही यह अशुभ भी हो चुका है जब असम और मिजोरम पुलिस की आमने सामने की भिड़ंत में 6 पुलिस सिपाही मारे गए थे। आज भी इन दोनों प्रदेशों की सीमाओं पर उनके प्रदेशों की पुलिस अलर्ट है। असम में भाजपाई मुख्यमंत्री ने पूर्वोत्तर के अपने से छोटे और नन्हे राज्यों के खिलाफ जैसे कमान ही संभाली हुयी है। सीमा को लेकर उनका पंगा सिर्फ मिजोरम के साथ ही नहीं था, उनका विवाद मेघालय से भी हैं, नागालैण्ड से भी हैं, अरुणाचल प्रदेश से भी है। होने को तो यह मसले पहले से चले आ रहे हैं मगर भाजपा के आने के बाद इनकी तीव्रता और तीक्ष्णता दोनों बड़ी हैं । यह अतिरिक्त चिंता का विषय है क्योंकि समूचे पूर्वोत्तरी राज्यों की संवेदनशील पृष्ठभूमि रही है । इनके संघीय गणराज्य भारत का अंग बनने की लंबी प्रक्रिया चली है । उसे देखते हुए इस तरह के टकराव मुश्किल में डालने वाले हो सकते हैं । मगर भाजपा को इसकी परवाह नही है ।
अचानक ऐसी क्या बात हो गयी, ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि एक ही पार्टी - वह भी खुद को भूतो न भविष्यतः टाइप की राष्ट्रवादी मानने वाली पार्टी - की दो सरकारें, एक ही पार्टी के दो नेता एक दूसरे के सामने तलवारें भांज रहे हैं, पड़ोसी और शत्रु देशों की तरह एक दूजे को द्वंदयुद्ध के लिए ललकार रहे है?
यह रोग, लक्षण दोनों के साथ उसका योजनाबद्ध तरीके से फैलाया जा रहा संक्रमण भी है। यह डिवाइडर इन चीफ के वायरसों के नए रूपों, संस्करणों की बढ़ती मारकता का भी एक नया आयाम है। विभाजन की प्रक्रिया विग्रह से शुरू होती है, विद्वेष से होती हुई अपने तार्किक अंत विखण्डन तक पहुंचती है। इसका अपना डायनामिक्स - गत्यात्मकता - होती है। यह जब शुरू होती है, तो सिर्फ जिसके खिलाफ शुरू हुई या की गई होती है, सिर्फ उस तक ही नही टिकती। अंधड़ के उभरते हुए बगूले की तरह अपनी तेज से निरन्तर तेजतर होती गति में हरेक को समेट लेती है, अपनी परिधि में सब कुछ चपेट लेती है। हाल के कुछ दशक इसका उदाहरण हैं ; जहाँ "हम और वे" की शिनाख्त की शुरुआत धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने से हुई और फिर हिंदी–उर्दू, बामन–ठाकुर, अवर्ण–सवर्ण, सवर्णों और अवर्णों के भीतर भी "वो और हम" की खाईयां चौड़ी करते हुए हुए अब देश के भीतर प्रदेशों के बीच सीमायें बनाने और उन पर इन राज्यों के अर्धसैनिक बलों को एक–दूसरे के खिलाफ खड़ा करने तक आ पहुँची है।
यह अनायास नही है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और असम के भाजपाई मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री राजनीतिक नौसिखिये नहीं है। ऐसा नही कि वे नहीं जानते कि इस तरह के मुद्दे हल करने के तरीके क्या हैं। मगर जब फूट, विग्रह और विभाजन राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बन जाये, चुनाव जीतने का जरिया बन जाए, जैसे भी हो – वैसे चुनाव जीतना ही एकमात्र लक्ष्य रह जाए और इस जीत की हाँडी पकाने के लिए इस तरह के उन्माद की आग सुलगाना चतुराई और कथित चाणक्य नीति मानी जाने लगे, तो आधी सदी पुरानी क़ब्रें खोदने के इस तरह के कारनामें होना तय है। इसकी नीचाई की कोई सीमा नहीं होती ; त्रिपुरा में चुनाव जीतने के लिए किन–किन से गठबंधन करके चुनाव लड़ा गया, यह सारा देश जानता है।
महाराष्ट्र और कर्णाटक दोनों प्रदेशों की भाजपा अपने–अपने राज्यों में क्षेत्रीयतावादी उन्माद भड़का कर वही करना चाह रही हैं, जो वह देश भर में कर रही है ; भावनात्मक मुद्दे उठाकर वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाना और अपनी सरकारों की असफलताओं और असंवैधानिकताओं को संकुचित, संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद के झीने आवरण में छुपाना।
कुछ लोगों, खासकर उन लोगों के लिए जो भाजपा के एक राष्ट्रवादी पार्टी होने के माकेटिंग वाले जुमले में थोड़ा–बहुत यकीन करते है, यह अजीब लग सकता है। किंतु इसमें न कुछ नया है, न अप्रत्याशित। भारत के बारे में उनकी समझदारी ही औंधी है। संविधान के फ़ेडरल - संघीय - ढाँचे में उनका विश्वास नहीं है। विविधताओं के समन्वय और मेल में उनका यकीन नहीं है। जिस ऊंच–नीच की धारणा वह समाज पर लागू करते हैं, वही विषमता और दुराव की समझ उनकी प्रदेशों यहां तक कि प्रदेश के अलग–अलग अंचलों के बारे में है। राष्ट्र की संघी अवधारणा भी मनुस्मृति की भौंड़ी व्याख्या पर टिकी हुई है। उनका आर्यावर्त हिमालय से शुरू होकर विंध्याचल तक खत्म हो जाता है। यही उनका इंडिया है, बाकी विंध्य के नीचे का पूरा भारत या तो मद्रासी है या अधिकतम साउथ इण्डिया है। पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता तो उनके लिए तभी और तब तक ही भारतीय होती है, जब उनके बेटे–बेटियां खेलों में कोई अंतर्राष्ट्रीय मैडल वगैरा जीत कर लाते हैं। वर्चस्वकारी सोच का यह विषाणु अब धीरे धीरे शाख और तने से होते हुए जड़ों तक पहुँच रहा है। स्वतन्त्रता संग्राम की भट्टी में तपकर, ढलकर जिस देश ने एक राष्ट्र-राज्य का आकार ग्रहण किया था, उसे अनकिया किया जा रहा है।
आजादी के 75वें वर्ष में महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच खींची जा रही तलवारें फौरी फायदे के लिए की जा रही खता के वे लमहे हैं, जिन्हे यदि यहीं नहीं रोका गया, तो सदियों को सजा भुगतनी पड़ सकती है। विध्वंस को रोकने का रास्ता वही है, जिसे तामीर के लिए, निर्माण के लिए अपनाया गया था। यह राजे–महाराजे, निजाम–दीवान या बादशाह नहीं थे -- जनता थी, जिसने औपनिवेशिक गुलामी से लड़ते–लड़ते संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संघीय गणराज्य इंडिया दैट इज भारत को बनाया था। इस महान संग्राम में संघ–भाजपा की क्या भूमिका थी, इसे याद दिलाने की जरूरत नहीं है। वे तब भी इस एकता के दुश्मन थे, आज सत्ता में आने के बाद भी उसी आचरण पर कायम है। हमारे पुरखों ने सही कहा था कि यदि ये फूटपरस्त सत्ता में आ गए, तो सिर्फ कौमी एकता ही नहीं, राष्ट्रीय अखंडता बचाना भी कठिन हो जाएगा, इनकी अगुआई में जारी इस विग्रह, विद्वेष और विभाजन के विखंडन तक पहुँचने से रोकने के लिए भी जनता को ही पहल करनी होगी। मेहनतकश जनता के संगठनों द्वारा ज्वलंत मांगों को लेकर की जाने वाली देशव्यापी कार्यवाहियां इसी तरह की कोशिशें हैं । इनका महत्व इन मांगों के साथ–साथ पूरे देश की एकजुटता को भी मजबूत करने में है।
(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)