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आज हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों में खबरों की अलग दुनिया देखिये
आज अंग्रेजी के मेरे सभी अखबारों में पुंछ की घटना के बाद जांच के नाम पर ज्यादती और यातना में तीन लोगों की मौत और पांच लोगों के अस्पताल में दाखिल होने की खबरों के बाद चल रही जांच और संबंधित कार्रवाई की खबरें लीड हैं। इसके साथ ही हिन्दी के दो अखबारों की अलग दुनिया ज्यादा स्पष्ट है। नवोदय टाइम्स में सेना प्रमुख का आदेश, पेशेवर तरीके से चलायें अभियान फोटो के साथ तीन कॉलम में प्रमुखता से है। लेकिन अमर उजाला में आज लगातार तीसरे दिन यह खबर गायब है। किसी खबर का न होना या उसे महत्व नहीं दिया जाना बहुत बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि अमर उजाला ने हिरासत में तीन लोगों की मौत के मुकाबले "दो आतंकी ढेर" की सरकारी खबर को लीड और शीर्षक बनाया था। वह भी तब जब आतंकियों के शव बरामद नहीं हुए थे। कहा गया था कि आतंकी साथियों के शव साथ ले गये। मैं खबर की सत्यता पर शक नहीं कर रहा हूं पर खबरों में किसे प्राथमिकता दी गई उसे रेखांकित कर रहा है और बताना चाहता हूं कि मैं इसे राजा का बाजा बजाना कहता हूं।
अपराध के किसी मामले में आठ लोगों को वैसे ही उठा लिया जाना और पूछ ताछ के नाम पर उनके साथ ऐसी ज्यादती की जाये कि तीन की मौत हो जाये और पांच को अस्पताल में दाखिल करना पड़े तो यह मनमानी और अधिकारों के दुरुपयोग की अति है। खास बात यह है कि ऐसा देश की सेना ने किया है अपने ही नागरिकों के खिलाफ। इस एक खबर के साथ दूसरी खबर यह आई कि सेना ने दो आतंकियों को ढेर कर दिया तो आप शीर्षक सेना की बहादुरी पर नहीं, मनमानी पर लगायेंगे। इसके लिए किसी शिक्षा या डिग्री की जरूरत नहीं है। संपादन का काम करने वाले किसी भी व्यक्ति में इतनी बुनियादी समझ होनी चाहिये। बाद में इसे सुधारा भी जा सकता है या यह भी संभव है कि जांच के आदेश के बाद खबर की सत्यता पर यकीन हो जाये तो पहले की गलती या चूक सुधारी जा सकती है।
अमर उजाला की लीड आज हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में और टाइम्स ऑफ इंडिया में दो कॉलम में है। द हिन्दू में संक्षेप खबर के जरिये बताया गया है कि पेज 11 पर है। इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। हिरासत में मौत के मामले में सेना प्रमुख के दौरे और उनकी सलाह की खबर के अलावा आज दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर और भी कई खबरें हैं जो अमर उजाला में पहले पन्ने पर सकती थी लेकिन अमर उजाला ने जिस खबर को पहले पन्ने पर रखने का निर्णय किया वह बेशक अनूठा और अकेला है। इसे समझने के लिए आज के अंग्रेजी अखबारों की लीड के शीर्षक ही देख लीजिये। इससे पता चलेगा कि आतंकी कार्रवाई की जांच के नाम पर उठाये गये तीन लोगों की हिरासत में मौत का मामला कितना गंभीर हो गया है। द हिन्दू - असैनिकों की मौत की जांच की सेना की कार्रवाई में तीन वरिष्ठ अधिकारियों को पद से हटाया गया। ब्रिगेड कमंडर, कमांडिग ऑफिसर और सेकेंड इन कमांड जांच पूरी होने तक स्थानीय इकाई से अटैच कर दिये गये हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया - ब्रिगेडयर तीन अन्य पद से हटाये गये, सेना प्रमुख पुंछ पहुंचे।
इंडियन एक्सप्रेस ने मुख्य खबर के साथ भुक्तभोगी का बयान भी छापा है। मुख्य खबर है - हिरासत में मौत की जांच के एक दिन बाद सेना प्रमुख पुंछ पहुंचे, कहा, पेशेवर व्यवहार करें। इसके साथ वाली खबर का शीर्षक है, मैं वीडियो में हूं ... उनलोगों ने हमें पीटा और हमारे जख्मों पर मिर्च पावडर लगाया। एक भुक्तभोगी के बयान के आधार पर जम्मू डेटलाइन से अरुण शर्मा की बाइलाइन वाली इस खबर में बताया गया है कि उन कपड़े उतरवा दिये गये थे और पिटाई व मिर्च पावडर लगाने का काम तब तक चला जब हम बेहोश हो ये। अंग्रेजी के मेरे पांचों अखबारों में यह खबर लीड है। द टेलीग्राफ में इस खबर का फ्लैग शीर्षक है, प्रदर्शन, हंगामे ने ब्रिगेड कमांडर को हटाने के लिए मजबूर किया। इसके साथ सिंगल कॉलम की खबर है, सेना प्रमुख की सलाह : पेशेवर बने रहें। मुख्य शीर्षक है, पुंछ की ज्यादती के बाद कार्रवाई हुई।
जब सेना प्रमुख ने पेशेवर तरीके से अभियान चलाने की बात कह दी तो यह इस क्रम में लगातार तीसरी बड़ी खबर है जिसे अमर उजाला ने पहले पन्ने का महत्व नहीं दिया है। बेशक, यह सब संपादकीय निर्णय और विवेक का मामला है और इसमें सही या गलत नहीं होता है। लेकिन इन खबरों को छोड़कर अगर आप सरकार की प्रशंसा और प्रचार छापेंगे तो उसे रेखांकित किया जाना चाहिये। यहां यह बताना जरूरी है कि आज अमर उजाला के पहले पन्ने पर विज्ञापन ज्यादा है और मैं हिन्दी के जिस दूसरे अखबार, नवोदय टाइम्स की बात करने जा रहा हूं उसमें आज विज्ञापन कम है। इसलिए संभव है कि यहां विज्ञापन नहीं होता या वहां होता तो शायद मामला अलग होता पर मेरा मानना है कि पहले पन्ने पर विज्ञापन लेने की सीमा होनी चाहिये। बहुत पहले शायद ऐसा था भी। संभव है, तब कम विज्ञापन होते हों इसलिए एक ही छपता हो और तब पहला पूरा पेज तो विज्ञापन का होता ही नहीं था।
ऐसे में अखबारों को चाहिये कि पहला पेज पूरा हो या एक ही विज्ञापन हो जो चौथाई पन्ने से ज्यादा न हो। इससे बड़ा और ज्यादा विज्ञापन पहले पन्ने पर होना ही नहीं चाहिये। पर वह अलग मामला है। अभी तो विज्ञापन से बची जगह खबरों से भरी जाती हैं और ऐसे में खबरें भी विज्ञापन हों तो अखबार साढ़े तीन रुपये का क्यों और इंटरनेट पर 299 रुपए साल भी क्यों? नवोदय टाइम्स फ्री है। वैसे अभी यह सब मुद्दा नहीं है। मुद्दा पहले पन्ने पर छपी खबर है और अमर उजाला की लीड का शीर्षक (ऊपर तक तीन कॉलम का विज्ञापन है, इसलिए पांच कॉलम में ही) है, “श्रमिकों-वंचितों को सशक्त बनाना प्राथमिकता”। उपशीर्षक है, “पीएम मोदी ने कहा - सुनहरा भविष्य कर रहा इंतजार .... मजदूरों की मुस्कुराहट बेहतर काम की प्रेरणा”। इसके ऊपर की खबर लीड नहीं है क्योंकि शीर्षक छोटे फौन्ट में है। इसलिए इसका उल्लेख लीड के बाद कर रहा हूं। हालांकि, शीर्षक भी पुराना है।
विपक्ष मुक्त संसद में जिस दिन ये विधेयक पास हुए थे उस दिन भी यही कहा गया था और छपा भी था, “अंग्रेजों के जमाने के आपराधिक कानूनों से मिली आजादी”। मुझे लगता है कि उपशीर्षक फिर भी पहले पन्ने की खबर हो सकती थी। इसलिए कि नई सूचना है पर देर-सबेर आनी ही थी इसलिए पहले पन्ने पर नहीं भी होती तो कोई बात नहीं थी। पहले पन्ने के लायक यह खबर तब होती जब कहना होता कि राष्ट्रपति की सहमति नहीं मिली। वरना एक ही खबर दो बार इतनी जल्दी छापने की तुक नहीं है। पर वह निजी पसंद का मामला तो है ही, संपादकीय स्वतंत्रता भी। इसके मुकाबले नवोदय टाइम्स की लीड गौरतलब है। आम आदमी के लिए सूचना और जानने लायक तथ्य तो है ही। आपको पता हो या नहीं, चीनी फोन कंपनी वीवो के खिलाफ ईडी की धनशोधन मामले में कार्रवाई चल रही है। इस सिलसिले में उसके दो अफसरों को गिरफ्तार किया गया है। लीड का शीर्षक है, वीवो के अफसरों की गिरफ्तारी पर विवाद। दो उपशीर्षक है, 1) चीन ने कहा, हमारी कंपनियों के साथ भेदभाव न करें 2) ई़डी ने 62,476 करोड़ रुपये के धनशोधन मामले में कार्रवाई की।
कहने की जरूरत नहीं है कि विदेशी कंपनी को मेक इन इंडिया का न्यौता दिया जाये करोड़ों अरबों के निवेश के बाद उसके अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया जाये। इसलिए कि मेरी शर्तों पर कारोबार करो। भारत में मामला है तो मोटे तौर पर यही होगा। मैं नहीं कहता कि कार्रवाई नहीं की जानी चाहिये या कुछ भी करने की छूट दी जानी चाहिए। मेरा मानना है कि (कम से कम विदेशी कारोबारियों के मामले में) गिरफ्तारी के बिना भी अपराध साबित किया जा सकता है और अपराध साबित हो जाये तो देश निकाला दीजिये या टांग दीजिये - कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन अपराध तो साबित कीजिये उससे पहले की कार्रवाई आम तौर पर परेशान करने और ब्लैकमेल करने जैसी लगती है और सरकार को विदेशी कंपनियों के मामले में इस स्थिति से बचना चाहिये। इसलिए भी कि चीन सीमा पर घुसपैठ करे, सैनिक मारे जाएं तो, ना कोई घुसा है ना घुसा हुआ है और देश में निवेश करवाकर परेशान करने से नागरिकों ही नहीं दुनिया भर में गलत संदेश जायेगा। इसलिए यह खबर बहुत बड़ी है और अंग्रेजी अखबारों में भी यह खबर पहले पन्ने पर है। लेकिन अमर उजाला में जगह ही नहीं है।
नवोदय टाइम्स ने अपनी इस खबर के साथ दो और खबरें छापी हैं। इनमें एक का शीर्षक है, “ग्लोबल टाइम्स के अनुसार भारत खुद को नुकसान पहुंचा रहा है”। इसके अनुसार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, “वीवो जैसी चीनी कंपनियों पर अंतहीन कार्रवाई यह दर्शाती है कि भारत विदेशी कंपनियों के लिए कब्रिस्तान बनता जा रहा है। .... भारत में काम कर रही चीनी कंपनियों के साथ अनुचित और भेदभावपूर्ण व्यवहार दर्शाता है कि भारतीय पक्ष आर्थिक मुद्दों का राजनीतिकरण करता रहता है। ..... भारत ने 2020 से चीनी कंपनियों पर हमला तेज कर दिया है।" दूसरी खबर का शीर्षक है, “गिरफ्तार दो अफसरों को कॉन्स्युलर प्रोटेक्शन देगा चीन”। खबर के अनुसार, चीनी सरकार अपनी सभी कंपनियों के सभी कानूनी हितों की हिफाजत करेगी। पर यह स्थिति क्यों और इससे भारत को क्या फायदा है? अगर इससे भारत में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को फायदा नहीं भी हो (पीएम केयर्स में चीनी कंपनियों के दान जैसा) तो जनता को यह सब बताया जाना चाहिए ताकि वह अपनी सरकार चुनने के लिए जानकार निर्णय करे। मीडिया का यही काम है।
आप जानते हैं कि न्यूजक्लिक के खिलाफ भी कथित चीनी निवेश और मनीलॉन्ड्रिंग का ईडी का मामला चल रहा है। उसके संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ और एचआर प्रमुख जेल में हैं। उनकी विशेषता है कि वे इमरजेंसी में भी जेल में थे और अभी भी हैं। वे शायद अकेले ऐसे भारतीय हैं। चीनी कंपनी वीवो से संबंधित इस खबर के मद्देनजर यह बताना प्रासंगिक होगा कि इस मामले में दो में से एक गिरफ्तार ने सरकारी गवाह बनने की अनुमति मांगी है। आज ही छपी खबरों के अनुसार, “न्यूजक्लिक के एचआर हेड ने दिल्ली की एक अदालत में इस संबंध में याचिका दायर की है”। ठीक है कि इस मामले में पुलिस के रुख अभी मालूम नहीं है पर आरोप दमदार होते, अपराध गंभीर होता, सबूत आसानी से उपलब्ध होते तो मामला अभी तक खुल गया होता और आरोप है कि इस मामले में यूएपीए लगाया ही इसलिए गया है कि सरकार के खिलाफ खबरें करने के लिए सजा दी जा सके तो संस्थान में नौकरी करने वाले के पास विकल्प कहां बचता है।
हर कोई मनीष सिसोदिया या मायावती नहीं हो सकता है। यहां भी मामला वैसा ही लगता है, सरकारी कार्रवाई चाहे जो हो। मुझे लगता है कि अखबार वाले नहीं बताते हैं, सरकार का साथ देते हैं इसलिए यह सब चल पा रहा है। आगे मामले धीरे-धीरे साफ हो ही रहे है। जांच के नाम पर बगैर सबूत विरोधियों और जनप्रतिनिधियों को जेल में रखने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। उपराष्ट्रपति बच्चों को भारत में लोकतंत्र पर भाषण दे रहे हैं और सांसदों को रिकार्ड संख्या में निलंबित करने के बाद कांग्रेस नेता खरगे को बात करने के लिए बुला रहे हैं जबकि वे कह चुके हैं कि उन्हें मिमिक्री करना बुरा नहीं लगा, राहुल गांधी का वीडियो बनाना बुरा लगा। अपने इस कथित अपमान को वे पद के साथ जाटों के अपमान से जोड़े के बाद खुद को उपराष्ट्रपति होने के बाद भी सफरर (पीड़ित) बता रहे हैं। ऐसे में खरगे ने कहा है कि धनखड़ ऑटोक्रेसी (एक ऐसी व्यवस्था जहां संपूर्ण अधिकार वाले एक व्यक्ति का शासन हो) के एजेंट हैं। पर यह सिर्फ टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के पहले पन्ने पर छोटी सी खबर के अनुसार खरगे ने कहा है, भाजपा सांसदों के निलंबन को लोकतंत्र का महत्व कम करने के सुविधाजनक साधन के रूप में हथियार का रूप दे रही है।