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अरुण कुमार त्रिपाठी
लोकसभा का सेमीफाइनल कहे जा रहे चार राज्यों के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को आत्मविश्वास से अहंकार की ओर जाने का मौका दे दिया है तो वहीं कांग्रेस पार्टी के धराशायी होने से यह साबित हो गया है कि वह न तो भाजपा को अकेले रोक सकती है और न ही इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कर सकती है। लेकिन उससे भी बड़ी बात इस चुनाव से लोकतंत्र के लिए पैदा हुई आशंका है। कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस के उभरने के साथ भाजपा के चक्रवर्ती बने रहने को जो चुनौती मिल रही थी वह क्षणिक साबित हुई है। भारतीय राजनीति तेजी से एकदलीय दिशा में बढ़ रही है और वहां मतदाता अब महज लाभार्थी बनकर रह गया है। वह आज्ञापालक बन गया है जहां सवाल नहीं पूछे जाते बल्कि जो कुछ तमाशा हो रहा है उस पर ताली बजाई जाती है। जनता माई बाप का मुहावरा घिस चुका है और अब जनता एक ताकतवर राजनीतिक दल और उसके करिश्माई नेतृत्व के सामने मदारी के बंदर की तरह से नाचने पर मजबूर है।
मध्य प्रदेश में बीस साल से चल रही भाजपा की सरकार ने बहुत सारे घोटाले और गड़बड़ियां की थी। कहा भी जा रहा था कि इस सरकार को एक किस्म की थकान हो गई है और जनता बदलाव चाहती है। जबकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अशोक गहलोत और भूपेश बघेल के कामों को देखते हुए कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों में इस बात की आश्वस्ति थी कि वहां की जनता इन सरकारों को दोबारा मौका देने जा रही है। लेकिन सारे अनुमान और संभावनाएं धरी रह गईं और जो कुछ हुआ वह उन शक्तियों के लिए बड़ा झटका साबित हुआ जो इस देश में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर कुछ उम्मीदें पाले हुए थे। और जो कह रहे थे कि आखिर अमेरिका ने डोनाल्ड ट्रंप को हराकर और ब्राजील ने बोलसोनारो को हराकर दुनिया के फिलसते लोकतंत्र को संभालने की तरकीब तो सिखाई है।
कई तरह की वजहें बताई जा रही हैं कांग्रेस की हार की। मध्यप्रदेश के बारे में यह दावा किया जा रहा है कि कमलनाथ की राजनीतिक शैली और उनका अज्ञानी आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा। अगर ऐसा न होता तो वे एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी के नेता होते हुए बालेश्वर धाम के बाबा के पास माथा टेकने न जाते और न ही अखिलेश यादव के लिए अखिलेश वखिलेश जैसे शब्द का प्रयोग करते। न ही वे मध्य प्रदेश में होने जा रही इंडिया गठबंधन की रैली को रोकते। मध्य प्रदेश में कांग्रेस का भ्रम और विभ्रम दोनों उसके लिए घातक साबित हुए और भाजपा के लिए जो कुछ घातक बन रहा था उसे उसने अपनी बदली रणनीति से संभाल लिया। उधर अशोक गहलोत की जादूगरी और गारंटी योजनाएं धरी रह गईं और जनता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का शिकार हो गई। छत्तीसगढ़ में बघेल के लिए महादेव ऐप कांड ले डूबू उपादान बन गया और उसके आगे जनकल्याण के उनके कार्यक्रम फुस्स पटाखे साबित हुए। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि कांग्रेस ने जातीय जनगणना का समर्थन करके सवर्ण मतदाताओं को पूरी तरह उस पाले में ठेल दिया और दलित पिछड़े पहले से ही उस पाले में थे।
इसका यह असर तो होने जा रहा और जिस दिशा में राजनीति भी तेज गई है कि अब कांग्रेस को इंडिया गठबंधन के नेतृत्व की मजबूत दावेदारी छोड़नी होगी। अब उसके नेतृत्व की दावेदारी ममता बनर्जी कर सकती हैं, नीतीश कुमार कर सकते हैं, शरद पवार कर सकते हैं, अरविंद केजरीवाल कर सकते हैं और अखिलेश यादव भी पीछे रहने वाले नहीं हैं। दावा स्टालिन का भी बनता है। हालांकि एक साथ सभी को नेतृत्व मिल पाना कठिन है और ऐसे में एक सामूहिक नेतृत्व बनाने का प्रयास ही सर्वश्रेष्ठ तरीका होगा। कांग्रेस के पास खुश होने के लिए एक ही बात है और वह है तेलंगाना में उसकी जीत। इस तरह से वह दावा कर सकती है कि विंध्य पार उसकी राजनीति को समझने और उसके साथ खड़े होने वाले हैं और हिंदी क्षेत्र की गोबरपट्टी सांप्रदायिक हो चुकी है। इसी के साथ यह दावा भी किया जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी अब उत्तर भारत और विशेषकर पश्चिम भारत में एक शक्ति भले हो लेकिन वह विपक्ष के लिए अकेले दम पर सीटें निकालकर देने लायक नहीं है। इंडिया गठबंधन की बैठक कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बुला ली है और वहां इस प्रकार के तमाम मुद्दे तय होंगे। लोकसभा चुनाव के लिए ज्यादा वक्त नहीं है और अगर अभी से गठबंधन अपनी एकता और उसे लागू करने वाले कार्यक्रम नहीं बना सका तो 2024 के नतीजे 2019 से भी ज्यादा एकतरफा होने वाले हैं।
लेकिन लोकतंत्र की इस फिलसन को हम सिर्फ राजनीतिक दलों की गलती और रणनीतिक कमजोरी को दोष देकर दरकिनार नहीं कर सकते। कहा जाता है कि लमहों ने खता की और सदियों ने सजा पाई। आज भारत उसी स्थिति में पहुंच गया है। भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का इरादा देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने का है। 2025 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का शताब्दी वर्ष है और वह थाली में सजाकर मिलने वाली जीत को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहेगा। नरेंद्र मोदी के पास राजनीतिक शक्तियां केंद्रित हैं लेकिन ऊपर से एक व्यक्ति के साथ दिखने वाला यह केंद्रीकरण एक प्रकार से स्वार्थ समूहों का केंद्रीकरण है। यह केंद्रीकरण कॉरपोरेट पूंजीवाद और हिंदुत्ववादी ताकतों की एकजुटता का केंद्रीकरण है। इस प्रक्रिया ने न्यायपालिका, मीडिया और समाज की स्वतंत्रचेत्ता शक्तियों का हरण कर लिया है। कॉरपोरेट पूंजीवाद और हिंदुत्व की शक्तियों ने शासन करने का एक मॉडल बनाया है जिसमें मक्खन तो पूंजीपतियों के पास जाएगा और आम जनता के लिए छाछ का इंतजाम कर दिया गया है। लेकिन इसने इसी के साथ नागरिकों के अतीत, भविष्य और वर्तमान तीनों पर कब्जा कर लिया है। वह अतीत की जो व्याख्या चाहता है करता है, वह वर्तमान को जिस तरह से दर्शाना चाहता है दर्शाता है और भविष्य के बारे में ग्राफिक डिजाइन से लेकर नए नए सुनहरे स्वप्न प्रस्तुत करता रहता है।
ऐसा लोकतंत्र न सिर्फ एकदलीय होता जाता है बल्कि एकफसली भी बन जाता है। वह नागरिकों को देने का खूब दावा करता है लेकिन वास्तव में उनसे लेता ज्यादा है। वह उनकी नागरिकता छीन लेता है और उन्हें एक राजा की कृपा पर जीवित रहने वाला लाभार्थी या प्रजा बनाकर छोड़ देता है। यह लोकतंत्र न सिर्फ समाज की जन धन की हानि करता है बल्कि उसका बुद्धि विवेक भी हर लेता है। इस फिसलन भरे समय में लोकतंत्र का इलाज मुश्किल होता जा रहा है। क्योंकि वहां एक ओर महज जुमलेबाजी है तो दूसरी अपनी बीमारियों को पहचानने और उसका इलाज करने वाले विशेषज्ञों का अभाव है।
गांधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण सभी ने लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप की सीमाओं और बीमारियों का जिक्र करते हुए अपने अपने विकल्प सुझाए थे। लेकिन सिद्धांत और नैतिकता से ज्यादा राजनीतिक प्रक्रिया और व्यवहार को आवश्यक मानने वालों उन्हें दरकिनार कर दिया। महान साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति के शब्दों में कहें तो आज भारत हिंदुत्व और हिंद स्वराज के बीच में फंस गया है। गांधी ने इसे हिंद स्वराज देना चाहा था और सावरकर ने हिंदुत्व। गांधी ने इसे एक टिकाऊ किस्म की विकास प्रणाली और जवाबदेही व व्यक्ति को गरिमा प्रदान करने वाली लोकतांत्रिक प्रणाली देनी चाही थी। तो सावरकर ने एक दमनकारी राष्ट्र राज्य के माध्यम से नागरिकों को राष्ट्रवाद का एक पुर्जा बनाना चाहा था। विनोबा ने संगठित धर्म और राजनीति के खतरों को बताते हुए उन्हें गिरोह की संज्ञा दी थी। जबकि जयप्रकाश नारायण ने दलविहीन लोकतंत्र की कल्पना की थी।
आज तमाम आदर्शों से हटकर लोकतंत्र एक अंधेरी सुरंग में फंस गया है। बार बार चेताए जाने के बावजूद आखिर वह सुरंग खोद ही दी गई जहां लोगों को फंसना था। वह ऐसी सुरंग है जहां आजमाई गई मशीनों के ब्लेड टूट रहे हैं और लोगों की सांसे घुट रही हैं। पता नहीं वहां हाथ से खोदने वाले सफल होंगे या मशीनें बार बार छलती रहेंगी। यह दुविधा चुनाव प्रक्रिया को लेकर भी उत्पन्न होती जा रही है। देखना है हमारे राजनीतिक दल, लोकतांत्रिक संस्थाएं इस सुरंग में फंसी जनता को कैसे निकालते हैं। क्या फिर कोई हाथ से काम करने वाला खनिक अपने औजार लेकर आएगा और सबका उद्धार करेगा या भीतर फंसे लोग खुद ही कोई नई सुंरग खोदकर धरती का सीना चीरकर बाहर निकल पड़ेंगे।